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________________ सप्तभंगी २. प्रमाण नय सप्तभंगी निर्देश भंगी होती है ... यथा-सर्व सामान्य आदि किसी एक द्रव्यार्थ दृष्टिसे 'स्यादस्त्येव आत्मा' यह पहला विकलादेश है ।....."इसी तरह अन्य धर्मों में भी स्व विवक्षित धर्मकी प्रधानता होती है और अन्य धर्मों के प्रति उदासीनता; न तो उनका विधान ही होता है और न प्रतिषेध हो। क. पा. १/१, १३-१४/१७०/२०१/२ स्यादस्ति स्यान्नास्ति स्यादवक्तव्यः स्यादस्ति च नास्ति च स्यादस्ति चावक्तव्यश्च स्यान्नास्ति चावक्तव्यश्च स्यादस्ति च नास्ति चावक्तव्यश्च घट इति सप्तापि सकलादेशः ।...एषः सकलादेशः प्रमाणाधीनः प्रमाणायत्तः प्रमाणव्यपाश्रयः प्रमाणजनित इति यावत् । क. पा. १/१, १३-१४/६१७१/२०३/६ अस्त्येव नास्त्येव अवक्तव्य एव अस्ति नास्त्येव अस्त्यवक्तव्य एव नास्त्यवक्तव्य एव अस्ति नास्त्यवक्तव्य एव घट इति विकलादेशः। ... अयं च विकलादेशो नयाधीनः नयायत्तः नयवशादुत्पद्यत इति यावत् । =१. कथं चित् घट है, कथंचित घट नहीं है. कथं चिन् घट अवक्तव्य है, कथंचित घट है और नहीं है, कथंचित घट है और अवक्तव्य है, कर्थ चित् घट नहीं है और अवक्तव्य है, कथंचित घट है नहीं है और अवक्तव्य है, इस प्रकार ये सातों भंग सकलादेश कहे जाते हैं। यह सकलादेश प्रमाणाधीन है अर्थात् प्रमाणके वशीभूत हैं, प्रमाणाश्रित है या प्रमाणजनित है ऐसा जानना चाहिए। २. घट है ही, घट नहीं ही है, घट अवक्तव्य रूप है, घट है ही और नहीं ही है, घट है ही और अवक्तव्य ही है, घट नहीं ही है और अवक्तव्य ही है. घट है ही नहीं ही है और अवक्तव्य रूप है, इस प्रकार यह विकलादेश है। ...यह विकलादेश नयाधीन है, नयके वशीभूत है या नयसे उत्पन्न होता है। ध. ६/४.१४५/१६५/४ सकलादेशः.. स्यादस्तीत्यादि.. प्रमाणनिबन्धनत्वात स्याच्छब्देन सूचिताशेषप्रधानीभूतधर्मत्वात् ।...... विकलादेश अस्तीत्यादिः..नयोत्पन्नत्वात् । ध.६/४,१.४५/१८३/७ स्यादस्ति, स्यान्नास्ति, स्यादवक्तव्यम्, स्यादस्ति च नास्ति च, स्यादस्ति चावक्तव्यं च, स्यान्नास्ति चावक्तव्यं च. स्यादस्ति च नास्ति चावक्तव्यं च इति एतानि सप्त सुनयवाक्यानि प्रधानीकृत कधर्मत्वात्। -१. 'कथंचित है' इत्यादि सात भंगोंका नाम सकलादेश है, क्योंकि प्रमाण निमित्तक होनेके कारण इसके द्वारा 'स्यात्' शब्दसे समस्त अप्रधानभूत धर्मों की सूचना की जाती है।...'अस्ति' अर्थात् है इत्यादि सात वाक्योंका नाम विकलादेश है, क्योंकि वे नयोंसे उत्पन्न होते हैं। २. कचित् है, कथंचित् नहीं है, कथं चित् अबक्तव्य है, कथंचित है और नहीं है, कथंचित है और अवक्तव्य है, कथंचित नहीं है और अबक्तव्य है, कथंचित है और नहीं है और अवक्तव्य है, इस प्रकार ये सात सुनय वाक्य हैं, क्योंकि वे एक धर्मको प्रधान करते हैं । न. च.श्रुत./६२/११ प्रमाणवाक्यं यथा स्यादस्ति स्याईनास्ति...आदयः । नयवाक्यं यथा अस्त्येव स्वद्रव्यादिग्राहकनयेन । नास्त्येव परद्रव्यादिग्राहकनयेन। ( इत्यादि) स्वभावानां नये योजनिकामाह । - प्रमाण वाक्य निम्न प्रकार है-जैसे कथंचित है, कथं चित् नहीं है। ...इत्यादि प्रमाण की योजना है। नयवाक्य निम्न प्रकार हैं जैसे-स्वद्रव्यादिग्राहक नयको अपेक्षासे भावरूप ही है। परद्रव्यादिग्राहक नयकी अपेक्षासे अभावरूप ही है...( इसी प्रकार अन्य भंग भी लगा लेने चाहिए ) स्वभावोंकी नयों में योजना बतलाते हैं। ( वह उपरोक्त प्रकार लगा लेनी चाहिए)। ( न. च. वृ /२५२-२५५ )। पं. का./ता. वृ./१४/१२/११ सूक्ष्मव्याख्यानविवक्षायां पुनः सदेकनित्यादिधर्मेषु मध्ये एकैकधर्मे निरुद्ध सप्तभङ्गा वक्तव्याः । कथमिति चेत् । स्यादस्ति स्यान्तास्ति । - सूक्ष्म व्याख्यानकी विवक्षामें सत्, एक नित्यादि आदि एक-एक धर्मको लेकर सप्तभंग कहने चाहिए। जैसे-स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति, ... ( इत्यादि इसी प्रकार अन्य भंगों की योजना करनी चाहिए ) । प्र. सा./११५/पृ./पं. नयसप्तभङ्गी विस्तारयति स्यादस्त्येव 'स्यान्नास्त्येव (१६९/१०) पूर्व पञ्चास्तिकाये स्यादस्तीत्यादिप्रमाणवाक्येन प्रमाणसप्तभङ्गी व्याख्याता, अत्र तु स्यादस्त्येव यदेवकारग्रहणं तन्नयसप्तभङ्गीज्ञापनार्थमिति भावार्थः ।१६।१४। - नय सप्तभङ्गी कहते हैं-यथा-'स्यादस्त्येव' अर्थात् कथंचित् जीव है ही, कथंचित् जीव नहीं ही है। इत्यादि । पहले पञ्चास्तिकाय ग्रन्थमें 'कथ चित् है' इत्यादि प्रमाण वाक्यसे प्रमाण सप्त भंगी व्याख्यान की गयी। और यहाँपर जो 'कथंचित है ही 'इसमें जो एवकारका ग्रहण किया है वह नय सप्तभंग के ज्ञान करानेके लिए किया गया है। न्या. दी./३/१२/१२६-१२७ द्रव्याथिकनयाभिप्रायेण सुवर्ण स्यादेकमेव, पर्यायाथिकनयाभिप्रायेण स्यादनेकमेव ।... सैषा नयविनियोगपरिपाटी सप्तभङ्गीत्युच्यते । द्रव्यार्थिक नयके अभिप्रायसे सोना कथंचित एकरूप है, पर्यायार्थिक नयके अभिप्रायसे कथंचित अनेक रूप है ।... इत्यादि नयोंके कथन करनेकी इस शैलीको ही सप्तभंगी कहते हैं। २. प्रमाण सप्तमंगीमें हेतु रा. वा./४/४२/१५/पृ.सं./पं. सं. जीवः स्यादस्ति स्यान्नास्तीति । अतः द्रव्यार्थिकः पर्यायाधिकमात्मसात्कुर्वन् व्याहियते, पर्यायार्थिकोऽपि द्रव्यार्थिकमिति उभावपि इमो सकलादेशौ ( २५७/८)। ताभ्यामेव क्रमेणाभिधित्सायां तथैव वस्तुसकलस्वरूपसंग्रहात चतुर्थोऽपि विकल्पसकलादेशः ( २५८०२०) ततः स्यादस्ति चावक्तव्यश्च जीव. । अयमपि सकलादेशः। अंशाभेदविवक्षायाम् एकांशमुखेन सकलसंग्रहात ( २५६/२७) यश्च वस्तुत्वेन सन्निति द्रव्याथांशः यश्च तत्प्रतियोगिनावस्तुत्वेनासन्निति पर्यायांशः, ताभ्यां युगपदभेदविवक्षाया अवक्तव्य इति द्वितीयोऽशः। तस्मानास्ति चावक्तव्यश्चात्मा। अयमपि सकलादेशः शेषवाग्गोचरस्वरूपसमूहस्याविनाभावात् तत्र वान्तर्भूतस्य स्याच्छब्देन द्योतितत्वात ( २६०/१) सप्तमो विकल्पः चतुर्भिरात्मभिः व्यंशः । द्रव्या विशेष कंचिदाश्रित्यास्तित्वं पर्यायविशेषं च कंचिदाश्रित्य नास्तित्वमिति समुचितरूपं भवति, द्वयोरपि प्राधान्येन विवक्षितत्त्वात् । द्रव्यपर्यायविशेषेण च केनचित् द्रव्यपर्यायसामान्येन च केनचित् युगपदवक्तव्यः इति तृतीयोऽशः। ततः स्यादस्ति च नास्ति चावक्तव्यश्च आत्मा। अयमपि सकलादेशः। यतः सर्वान् द्रव्यार्थान् द्रव्यमित्यभेदादेक द्रव्यार्थं मन्यते । सर्वान् पर्यायाश्च पर्यायजात्यभेदादेकं पर्यायार्थम् । अतो विवक्षितवस्तुजात्यभेदात कृत्स्नं वस्तु एकद्रव्यार्थाभिन्नम् एकपर्यायाभेदोपचरितं वा एकमिति सकलसंग्रहात (२६०/ ५)। जीव स्यादस्ति और स्यानास्तिरूप है। इनमें द्रव्यार्थिक पर्यायर्थिकको तथा पर्यायाथिक द्रव्यार्थिकको अपने अन्तर्भूत करके व्यापार करता है, अतः दोनों ही भंग सकलादेशी हैं (२५७/८)। ( अवक्तव्य भेद-दे, सप्तभंगी/६) जब दोनों धर्मोकी क्रमशः मुख्य रूपसे विवक्षा होती है तब उनके द्वारा समस्त वस्तुका ग्रहण होनेसे चौथा भी भाग सकलादेशी होता है ( २५८/२०) जीव स्यात् अस्ति और अवक्तव्य है, यह भी विवक्षासे अखण्ड वस्तुको संग्रह करनेके कारण सकलादेश है क्योंकि इसने एक अंश रूपसे समस्त वस्तुको ग्रहण किया है (२५६/२७)जो वस्तुत्वेन'सद है द्रव्यांश वही तथा जो अवस्तुत्वेन असद है वही पर्यायांश है। इन दोनोंकी युगपत अभेद विवक्षामें वस्तु अवक्तव्य है यह दूसरा अंश है। इस तरह आत्मा नास्ति अवक्तव्य है यह भी सकलादेश है क्योंकि विवक्षित धर्मरूपसे अखण्ड बस्तुको ग्रहण करता है। (२६०/१) सातवाँ भंग चार स्वरूपोंसे तीन अंशवाला है। किसी द्रव्यार्थ विशेषकी अपेक्षा अस्तित्व किसी पर्याय विशेषकी अपेक्षा नारितत्व है। तथा किसी जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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