SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 449
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूक्ष्म स्कध ४४२ सूतक द्र. सं./टी./१३/३५/५ सूक्ष्म परमात्मतत्त्वभावनाबलेन सूक्ष्मकृष्टिगतलोभकषायस्योपशमकाः क्षपकाश्च दशमगुणस्थानवतिनो भवन्ति । --सूक्ष्म परमात्म तत्त्व भावनाके बलसे जो सक्ष्म कृष्टिरूप लोभ कषायके उपशमक और क्षपक हैं, वे दशम गुणस्थानवर्ती हैं। * अन्य सम्बन्धित विषय १. सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थानके स्वामित्व सम्बन्धी गुणस्थान, जीवसमास, मार्गणास्थान आदि २० प्ररूपणाएँ। -दे. वह वह नाम। २. इस गुणस्थान सम्बन्धी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्प-बहुत्वरूप आठ प्ररूपणाएँ। -दे. वह वह नाम। ३. इस गुणस्थानमें कर्मप्रकृतियोंका बन्ध, उदय, व सत्त्व प्ररूपणाएँ। --दे. वह वह नाम। ४. सभी गुणस्थानों व मार्गणास्थानोंमें आयके अनुसार ही व्यय होनेका नियम । -दे. मार्गणा। ५. इस गुणस्थानमें कषाय योगके सद्भाव सम्बन्धी। -दे. वह यह नाम। ६, इस गुणस्थानमें औपशमिक व क्षायिक भाव सम्बन्धी। -दे.अनिवृत्तिकरण । ७. सूक्ष्म कृष्टिकरण सम्बन्धी । --दे. कृष्टि। ८. उपशम व क्षपक श्रेणी। -दे, श्रेणी। ९. पुनः पुनः यह गुणस्थान पानेकी सीमा। -दे. संयम/२ । १०. सूक्ष्मसाम्पराय व छेदोपस्थापनामें मेदामेद । -दे. छेदोपस्थापना/४। लोक व्यवहार शोधनार्थ सूतक आदिका निवारण करने के लिए जो लौकिकी जुगुप्सा की जाती है वह छोड़ने योग्य है, और परमार्थ या लोकोत्तर जुगुप्सा करनी योग्य है। (और भी देखो निर्विचिकित्सा)। २. भोजन शुद्धि में सूतक पातकके विवेकका निर्देश भ, आ./वि./२३०/४४४/२० मृतजातसूतकयुक्तगृहिजनेन.. दीयमाना वसतिर्दायकदुष्टा! -जिसको मरणाशीच अथवा जननाशौच है, ऐसे दोषसे युक्त गृहस्थ के द्वारा यदि वसतिका दी गयी हो तो वह दायक दोषसे दुष्ट है। त्रि.सा./१२४ ...असूचिसूदग"। कयदाणा वि कुवत्ते जीवा कुणरेस जायते ॥२४॥ अपवित्रतासे अथवा मृतादिकका सूतको संयुक्त जो कुपात्रों में दान करता है वह जीव कुमनुष्यों में उत्पड़ होता है ।१४। अन, ध.५/३४ शवादिनापि "दत्तं दायकदोषभाक ।२४। उक्तं चसूती शौण्डी तथा रोगी शवः षण्डः पिशाचवाच । पतिप्तोचारनग्नाच रक्ता वेश्या च लिविनी। -शवको श्मशानमें छोड़कर आये हुए मृतक सुतफसे युक्त पुरुषों द्वारा दत्त थाहार वायक पोषसे दूषित समझना चाहिए ।३४ -जिसके सन्तान उत्पन्न हुई हो...। मो. पा./टी./४/११२ पर उधृत-दीनस्य सूतिकायाश्च...। -दीम अर्थात दरिद्री, सूतक वालीखीके घरका विशेष रूपसे (साधु आहार ग्रहण न करें । खा. सं./५/२५१ सूतकं पासकं चापि यथोक्त जैनशासने । एषणाशुद्धिसिधथं वर्ष येच्छापकाप्रणीः ।२३१॥ -अणुप्रती भावकों को अपने भोजनको शुद्धि बनाये रखनेके लिए अथवा एषणा शुद्धिके सिर यथोक्त सूतक पातकका भी त्याग कर देना चाहिए । भावार्थकिसीके सुतक पातकमें भोजन नहीं करना चाहिए । चर्चा समाधान/५३/पृ.५० मुनि आहारार्थ" सूतक व दुखित ऐसे शुद्ध कुलमें भी प्रवेश न करे। । सूक्ष्म स्कंध-दे. स्कन्ध । सूक्ष्मा वाणी-दे. भाषा। सूची-Width (ज. प./प्र. १०६) । २. ( Diameter or radius व्यास या बाण 1) । ३. सूची निकालनेको प्रक्रिया । -दे. गणित/II/I ४. ध. ३/१,२.१७/१३३/५ अंगुलवग्गमूले विकलं भसई हवदि। तं किं भूदमिति बुत्से विदियवग्गमूलगुणणेण उबलक्खियं । - सूच्यं गुलके प्रथम वर्गमूलमें ( अर्थात सूच्यंगुलका आश्रय लेकर विष्कंभसूची होती है। वह सूच्यंगुलका प्रथम वर्गमूल किस रूप है, ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं कि सूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूलके गुणाकार से उपलक्षित है । अर्थात् सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलको उसीके द्वितीय वर्गमूलसे गुणित कर देने पर सामान्य नारक मिथ्यादृष्टियोंकी विष्कम्भ सूची होती है । उदाहरण-सूच्यंगुल २४२; 3 विष्कम्भसूची २; सूच्यं गुलका वर सूच्यं गुलका द्वितीय वर्गमूल २३ । विष्कम्भसूची। २४२-२ -क्षेत्र प्रमाणका एक भेद-दे. गणित/११/३ । सतक-१. सूतक पातक विषयक जुगुप्सा हेय है म. आ./टी./६४६ जुगुप्सा गहीं द्विविधा द्विप्रकारा-लौकिकी लोकोत्तरा च। लोकव्यवहारशोधनार्थ सूतकादिनिवारणाय लौकिकी जुगुप्सा परिहरणीया तथा परमार्थ लोकोत्तरा च कर्तव्येति। -जुगुप्सा या गीं दो प्रकारको है-लौकिकी व लोकोत्तर । ३. सूतक पातक किसको व कहाँ नहीं लगता प्रतिष्ठापाठ जयसेन/२५८ यदश्यतीर्थकर भिम्भमुदीर्य संस्थामुल्या तदीयकुलगोत्रजनिप्रवेशात् । संवृत्तगोप्रचरणप्रतिपातयोगादाशीचमावहतु नोधभव प्रशस्तम् ।२५८ -जिस वंश बाला यजमान विम्ब प्रतिष्ठा करा रहा है, उसके वंश, कुल, गोत्रमें उस दिमसे अशौच नहीं माना जाता अर्थात जिस दिन नान्दी अभिषेक हो गया उस दिनसे यजमानके कुल में सूतक तथा सूवा नही लगता ।२५६) प्रायश्चित्त संग्रह/३५३ बालत्रणथरत्वाज्ज्वलनादिप्रदेशे दीक्षितः । अनशनप्रदेशेषु च मृतकानां खलु सूतकं नास्ति । -तीन दिनका बालक, युममें मरणको प्राप्त, अग्नि आदिके द्वारा मरणको प्राप्त जिन दीक्षित, अनशन करके मरणको प्राप्त; इनका मरणसूतक नहीं होता। ४. सूतक पातक शुद्धि काल प्रमाण म. पु./३८/80-६१ बहिर्यानं ततो द्वित्रैः मासै स्त्रिचतुरैरुत । यथानुकूल मिष्टेऽह्नि कार्यतूर्यादिमङ्गलैः । ततः प्रभृत्यभीष्टं हि शिशोः प्रसववेश्मनः । बहिःप्रणयनं माता धात्र्युत्सङ्गगतस्य वा १६१। -तदनन्तर (प्रसूतिके ) दो-तीन अथवा तीन चार माहके बाद किसी शुभ दिन तुरही आदि मांगलिक बाजों के साथ-साथ अपनी अनुकूलताके अनुसार बहिर्यान क्रिया करनी चाहिए। जिस दिन यह क्रिया की जाये उसी दिनसे माता अथवा धायकी गोदमें बैठे हुए बालकका प्रसूति गृहसे बाहर ले जाना सम्मत है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy