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________________ सम्यग्दर्शन ३५१ I सम्यग्दर्शन सामान्य निर्देश ३. सम्यग्दर्शनके अनेकों गुण ३. सम्यग्दर्शनकी प्रत्यक्षता व परोक्षता ( स. सा./प्रक्षेपक गा./१७७)-संवेओ णिव्वेओ जिंदा गरुहा य उवसमो १. छद्मस्थोंका सम्यक्त्व भी सिद्धोंके समान है भत्ती। वच्छलं अणुकंपा गुण? सम्मत्तजुत्तस्स ।-संवेग, निवेद, निन्दा, गो, उपशम, भक्ति, अनुकंपा, वात्सल्य ये आठ गुण सम्य- दे. देव/I/२/३ ( आचार्य, उपाध्याय व साधु इन तीनोंके रत्नत्रय भी क्व युक्त जीवके होते हैं। (चा. सा./4/२); ( वसु. श्रा./१६); (ध./ सिद्धों के समान हैं। उ./४६५ में उधृत)। दे. सम्यग्दर्शन/IV/१ ( उपशम, क्षायिक व क्षायोपशामिक इन तीनों ज्ञा./419 में उद्धत श्लो, सं. ४ एक प्रशमसंवेगदयास्तिक्या दिलक्षणम् । सम्यक्त्वों में यथार्थ श्रद्धानके प्रति कोई भेद नहीं है)। आत्मनः शुद्धिमात्रं स्यादितरच्च समन्ततः।४।-एक (सराग) पं. का./ता. वृ./१६०/२३१/१२ वीतरागसर्वज्ञप्रणीतजीवादिपदार्थ विषये सम्यक् श्रद्धानं ज्ञानं चेत्युभयं गृहस्थतपोधनयोः समानं चारित्रं...। सम्यक्त्व तो प्रशम संवेग अनुकम्पा व आस्तिक्यसे चिह्नित है और वीतराग सर्वज्ञप्रणीत जीवादि पदार्थों के विषयमें सम्यक् श्रद्धान दूसरा ( वीतराग) समस्त प्रकारसे आरमाकी शुद्धिमात्र है। (पं.ध/ उ/४२४-२५); ( और भी दे. सम्यग्दर्शन/II/४/१)। व ज्ञान ये दोनों गृहस्थ व तपोधन साधुओंके समान ही होते हैं। परन्तु इनके चारित्रमें भेद है। म. पु./२१/१७ संवेगः प्रशमस्थैर्यम् असंमूढत्वमस्मयः । आस्तिक्यमनु मो. मा. प्र,/१/४७५/११ जैसे छद्मस्थके श्रृतज्ञानके अनुसार प्रतीति पाइए कम्पति ज्ञेयाः सम्यक्त्वभावना: 18-संवेग, प्रशम, स्थिरता, है...जैसा सप्ततत्वमिका श्रद्धान छद्मस्थ के भया था, तैसा ही केवली अमूढ़ता, गर्व न करना, आस्तिक्य और अनुकम्पा ये सात सम्यग्द सिद्ध भगवान के पाइए है । तातै ज्ञानादिकको हीनता अधिकता होते र्शनकी भावनाएँ जाननेके योग्य हैं ।१७। (म. पू/8/१२३)। भी तियं चादिक वा केवली सिद्ध भगवान्कै सम्यक्त्व गुण समान है। का, अ./मू./३१५ उत्तमगुणगहणरओ उत्तमसाहूण विणयसंजुत्तो। साहम्मिय अणुराई सो सद्दिट्टी हवे परमो ।३१५-जो उत्तम गुणोंको २. सम्यग्दर्शनमें कथंचित् स्व-परगम्यता ग्रहण करने में तत्पर रहता है, उत्तम साधुओं की विनय करता है तथा साधर्मी जनोंसे अनुराग करता है वह उत्कृष्ट सम्यग्दृष्टि है। श्लो. वा./२/१/२/श्लो. १२/२६ सरागे वीतरागे च तस्य संभवतोऽजसा। प्रशमादेरभिव्यक्तिः शुद्धिमात्रा च चेतसः ॥१२॥ दे, सम्यग्दृष्टि/२/ (सम्यक्वके साथ ज्ञान, वैराग्य व चारित्र अवश्य श्लो. वा. २/१/२/१२/पृष्ठ/पंक्ति-एतानि प्रत्येक समुदितानि वा म्भावी हैं)। स्वस्मिन् स्वसंविदितानि, परत्र कायवाग्व्यवहार विशेषलिङ्गानुमितानि दे. सम्यग्दर्शन/II/२(आत्मानुभव सम्यग्दर्शनका प्रधान चिह्न है)। सरागसम्यग्दर्शन' ज्ञापयन्ति, तदभावे मिथ्यादृष्टिस्वसंभवित्वात दे. सम्यग्दर्शन/II/१/१ ( देव गुरु शास्त्र धर्म आदिके प्रति भक्ति संभवे वा मिथ्यात्वायोगात । ( ३४/१७) । मिथ्यादृशामपि केषांचितत्त्वोंके प्रति श्रद्धा सम्यग्दर्शनके लक्षण हैं)। क्रोधाद्यनुद्रेकदर्शनात प्रशमोऽनै कान्तिक इति चेन्न. तेषामपि सर्वदे. सम्यग्दृष्टि/५ (सम्यग्दृष्टिमें अपने दोषों के प्रति निन्दन गर्हण अवश्य थै कान्तेऽनन्तानुबन्धिनो मानस्योदयात् । स्वात्मनि चानेकान्तात्मनि होता है)। द्वेषोदयस्यावश्यंभावात् पृथिवीकायिकादिषु प्राणिषु हननदर्शनात । ( ३/५)। नन्वेवं यथा सरागेषु तत्त्वार्थश्रद्धानं प्रशमादिभिरनुमीयते ४. सम्यग्दर्शनके अतिचार यथा वीतरागेष्वपि तत्तैः किं नानुमीयते। इति चेन्न, तस्य स्वस्मि नात्मविशुद्धिमात्रत्वात सकलमोहाभावे समारोपानवतारात स्वसंवेदनात. सू./७/२३ शङ्काकासाविचिकित्साऽन्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवाः सम्यग- देव निश्चयोपपत्तेरनुमेयत्वाभावः। परत्र तु प्रशमादीनां तल्लिङ्गाना दृष्टेरतिचाराः १२३ = शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टिप्रशंसा सतामपि निश्चयोपायानां कायादिव्यवहारविशेषाणामपि तदुपायाऔर अन्यदृष्टिसंस्तव ये सम्यग्दृष्टिके ५ अतिचार हैं। (भ. आ./वि./ नामभावात । (४४/१०)। कथमिदानीमप्रमत्तादिषु सूक्ष्मसाम्पराया१६/६२/१४, तथा ४८७/७०७/१ ) । न्तेषु सद्दर्शनं प्रशमादेरनुमातुं शक्यम् । तन्निर्ण योपायाना कायादिव्य बहारविशेषाणामभावादेव ।...सोऽप्यभिहितानभिज्ञः, सर्वेषु सरागेषु ५- सम्यग्दर्शनके २५ दोष सद्दर्शनं प्रशमादिभिरनुमीयत इत्यनभिधानात् । यथासंभवं सरागेषु वीतरागेषु च सद्दर्शनस्य तदनुमेयत्वमात्मविशुद्धिमात्रत्वं चेत्यभिहिज्ञा./६/८ में उद्धृत-मूढ़त्रयं मदाश्चाष्टौ तथानायतनानि षट् । अष्टौ तत्वात् । (४५/३)। १. सराग व वीतराग दोनों में ही सम्यग्दर्शन शङ्कादयश्चेति दृग्दोषाः पञ्चविंशतिः ।-तीन मूढ़ता, आठ मद, सम्भव है। तहाँ सरागमें तो प्रशमादि लक्षणों के द्वारा उसकी छह अनायतन और शंकादि आठ दोष अर्थात् आठ अंगोंसे उलटे अभिव्यक्ति होती है और बीतरागमें वह केवल चित्तविशुद्धि द्वारा आठ दोष ये २५ दोष सम्यग्दर्शनके कहे गये हैं। (द्र.सं./टी,४१/ लक्षित होता है । श्लो १२ । ( अन. ध./२/५१/१७८)। २.. प्रशमादि गुण एक-एक करके या समुदित रूपसे अपनी आत्मामें तो स्वर वेदन गम्य हैं और दूसरोंमें काय व वचन व्यवहाररूप विशेष ज्ञापक ६. कारणवश सम्यक्त्वमें अतिचार लगनेकी संभावना लिंगों द्वारा अनुमानगम्य हैं । इन प्रशमादि गुणों परसे सम्यग्दर्शन सम्बन्धी जान लिया जाता है। ( ३४/१७)-(पं. ध/उ./३८८); (और भी दे. अनुमान २/५); (चा. पा./पं. जयचन्द/१२/८५); (रा. वा./ स. सि./७/२२/३६४/८ तत्सम्यग्दर्शनं किं सापवाद निरपवादमिति । हि/१/२/२४ ) । ३. सम्यग्दर्शनके अभाव में वे प्रशमादि गुण मिथ्यादृष्टि उच्यते-कस्यचिन्मोहनीयावस्थाविशेषात्कदाचिदिमे भवन्त्य- जीवों में सम्भव नहीं हैं यदि वहाँ इनका होना माना जायेगा तो वहाँ पवादाः-1-प्रश्न-सम्यग्दर्शन सापवाद होता है या निरपवाद ! मिथ्यादृष्टिपना सम्भव न हो सकेगा। (३७/१८) । प्रश्न-किन्हीं. उत्तर-किसी जीवके मोहनीयकी अवस्था विशेषके कारण ये ( अगले किन्हीं मिथ्याष्टियों में भी क्रोधादिका तीव्र उदय नहीं पाया जाता सुत्रमें बताये गये शंका कांक्षा आदि) अपवाद या अतिचार होते हैं। है. इसलिए सम्यग्दर्शनको सिद्धिमे दिया गया उपरोक्त प्रशमादि गुणों दे. सम्यग्दर्शन /IV/४ (सम्यक्प्रकृतिके उदयसे चलमल आदि दोष होते वाला हेतु व्यभिचारी है ! उत्तर नहीं है, क्योंकि, उनके स्वमान्य * इससे सम्यक्त्वमें क्षति नहीं होती)। एकान्त मतोंमें अनन्तानुबन्धीजन्य तीव भाव पाया जाता है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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