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________________ सत् पं. ध . / पू. / १५३ नैवं यतः स्वभावादसतो जन्म न सतो विनाशो वा । उत्पादादित्रयमपि भवति च भावेन भावतया । १८३| इस प्रकार शंका ठीक नहीं है । क्योंकि स्वभावसे असत् की उत्पत्ति और सत्का विनाश नहीं होता है किन्तु उत्पादादि तीनों में भवनशील रूपसे रहता है । ५. सत् ही जगत्का कर्ता हर्ता है। पं. का./मू./२२ जीवा पुग्गलकाया आयास अस्थिकाइय सेसा । अमया अस्थित्तमया कारणभूदा हि लोगस्स | २२ | जीव पुद्गलकाय आकाश और शेष दो अस्तिकाय अकृत हैं, अस्तित्वमय हैं और वास्तव में लोक के कारणभूत हैं |२२| २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ १. सत् प्ररूपणाके भेद " धमला/१/१.९/ सु. ८/१५१ संतपदा दुनियेसो यो आदेसेण न च प्ररूपणायास्तृतीयः प्रकारोऽस्ति सामान्य विशेषव्यतिरिकस्यानुपलम्भाद = सत्प्ररूपणार्मे ओघ अर्थात् सामान्यकी अपेक्षा और आदेश अर्थात् विशेषकी अपेक्षासे इस तरह दो प्रकारका कथन है । इन दो प्रकारकी प्ररूपणाको छोड़कर वस्तुके विवेचनका तीसरा उपाय नहीं पाया जाता, क्योंकि वस्तु सामान्य विशेष धर्म को छोड़कर तीसरा धर्म नहीं पाया जाता । २. सत् व सत्व में अन्तर रा.वा./१/८/१२/४२/२५ मानेन सम्यग्दर्शनाचे सामान्येन सत्वमुच्यते किन्तु गतीन्द्रियकायादिषु चतुर्दशसु मार्गणास्थानेषु 'कास्ति सम्यग्दर्शनादि क नास्ति विशेषणार्थ सम्रचनम् इस ( सत् ) के द्वारा सामान्य रूपसे सम्यग्दर्शन आदिका मात्र नहीं कहा जाता है किन्तु गतिइन्द्रिय न्याय आदि चौरह मार्गणा स्थानोंमें 'कहाँ है, कहीं नहीं है आदि रूपसे सम्यग्दर्शनादिका अस्तित्व सूचित किया जाता है । ३. सत् प्ररूपणाका कारण व प्रयोजन रा. बा./१/८/१३/४२/२८ ये वनधिकृता जीवपर्यायाः । क्रोधादयो ये चाजीवपर्याया वर्णादयो घटादयश्च तेषामस्तित्वाधिगमार्थं पुनबेचन अनधिकृत क्रोधादि या अजीव पर्यायवर्णादिके अस्तित्व सूचन 'करनेके लिए 'सत्' का ग्रहण आवश्यक है । PR दे सत् / २ / २ गति इन्द्रियादि चौदह मार्गणाओं में सम्यग्दर्शनादि कहाँ है कहाँ नहीं है यह सूचित करनेको सत् शब्दका प्रयोग है । १६० पं. का./ता.वृ./८/२३/६ शुद्ध जीवद्रव्यस्य या सत्ता सैवोपादेया भवतीति भावार्थ: । शुद्ध जीव द्रव्यकी जो सत्ता है वही उपादेय है ऐसा भावार्थ है । - Jain Education International ४. सारणीमें प्रयुक्त संकेत सूची अज्ञा अज्ञान अना. अनाकार, अनाहारक अनुभय अपर्याप्त, अपर्याप्त, अपकायिक अनु. अप. अभ. अब. अवि. अशु. असं. आ. उ. एके. ओ. का. केवल. क्षयो. क्षा. ज्ञा. च. छे, ति. ते. त्र. दे देश सं. न. नि. पं. परि, प. पृ. प्र. के म. भ, मनः मनु. मा. fa. मे. यथा, लो. व. ने. 5. सा. सा. सू. जेनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only अभव्य अवधिज्ञान अविरत गुणस्थान अशुभ लेश्या आदि असंज्ञी, असंयम आहारक, आहारसंज्ञा " २. सत् विषयक प्ररूपणाएँ उत्कृष्ट, उभय एकेन्द्रिय औदारिक काययोन, औपशमिक सम्य, कापोत लेश्या, कार्मण केवलज्ञान, केवलदर्शन क्षयोपशमिक सम्य. सायिक सम्यग्दर्शन ज्ञान चतुर्ग तिनिगोद छेदोपस्थापना चारित्र तियंचगति तेजोलेश्या (पीत. ) प्रसकाय देवगति देशसंयम नरकगति नियनिनोद पंचेन्द्रिय परिग्रह, परिहार वि पर्या पर्या पृथिवीकाय प्रतिष्ठित, प्रत्येक वनस्पतिकाय भव्य मन:पर्यय मनोयोग मनुष्यगति मानकषाय मिथ्यात्व मैथुनसंज्ञा यथाख्यात लोभकषाय मचभयोग बेकियकयोग शुक्ललेश्या झुण्ज्ञान संज्ञो साधारण बनस्पति सामायिक, सासादन सूक्ष्म, सूक्ष्मसाम्पराय www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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