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________________ समाचार काल रूप पुलिन, गुफा इत्यादि निर्जन्तु स्थानों में प्रवेश करने के समय निषेधिका करे और निकलने के समय आसिका करे ।१३४ ६. आतापनादि ग्रहणने बाहारादिकी इच्छाएँ तथा अन्य ग्रामादिको जानेमें नमस्कार पूर्वक पूछकर उनके अनुसार करना वह आपृच्छा है । १३५। ७. जो कुछ महान कार्य करना हो वह गुरु प्रवर्तक स्थवि - रादिकसे पूछकर करना चाहिए फिर अन्य साना मह है । २३६ किये हुए पुस्तकादि उपकरणोंमें विनयका बन्दना सूत्र के अर्थ को पूछना इत्यादिकमें आचार्य आदिकी इच्छा के अनुकूल वर्तना छन्दन है | १३७ ॥ ६. गुरु अथवा साधर्म पुस्तक व कमण्डलु आदिको लेना चाहे तो उनसे नवीभूत होकर याचना करे । उसे निमन्त्रणा कहते हैं । १३८ | १०. उपसंयतका स्वरूप - दे, अगला शीर्षक ] ६. उपसंयत सामान्य व विशेषका स्वरूप सू. आ./१४०-१४३ पाहुणबिणवचारो सेसि चावासभूमि संपृच्छा । दाणाव गादी विणये उपया या १४० संजनयगुणसीला जनयिमादी यजन्तिमिति उनि मासी लेते उपसंपा या | १४१| पाहुणवत्या अग्लो गागमणगमणपु उपसंपदाय मग्गे संजमतत्रणाणजोगजुत्ताणं । १४२ । सुहदुक्खे उवयारो वसही आहारभेसजादीहिं । तुह्म' अहंति वयणं सुहदुक्खुवसंपया णेया । १४३। अन्य संघसे आये हुए मुनियोंका अंग मर्दन प्रिय वचनरूप विनय करना, आसनादिपर बैठाना, इत्यादि उपचार करना, गुरुके विराजनेका स्थान पूछना, आगमनका रास्ता पूछना, संस्तर, पुस्तकादि उपकरणोंका देना, और उनके अनुकूल आचरणादिक करना वह विनयोपसंयत है । १४०| संयम तप व उपशमादि गुण व व्रत रक्षारूप शील तथा यम, नियम, इत्यादिक जिस स्थानमें रहने से बढ़ें, उस क्षेत्र में रहना वह क्षेत्रोपसंयत है । १४९। अपने संघ से आये मुनि, तथा अपने स्थानमें रहने वाले मुनियोंसे आपस में आनेजानेके विषय में कुशलका पूछना, वह संयम, तप, ज्ञान, योगगुणकर सहित मुनिराजोंके मागसंयत है ।१४२६] [सुख-दुःख युक्त पुरुषों को वसतिका, आहार, औषध आदिकर उपकार करना, तथा मैं और मेरी वस्तुए आपकी हैं, ऐसा वचन कहना होत है | १४३ | ( सूत्रोपसंयत के तीन भेद है-सूत्र, अर्थ, तदुभय। इन तीनोंके लौकिक, वैदिक व सामाजिक ये तीन-तीन भेद हैं । - दे. समाचार / २ ) । समाचार काल -- दे. काल / १/४ । समादान क्रिया/३/२० समावेश उद्दिष्ट आहारका एक भेददे उद्दि - समाधान - उत्तम परिणामों में चित्तका स्थिर रखना समाधान है। वे समाधि/१ समाधि - १. समाधि सामान्यका लक्षण नि. सा./मू./१२२-१३३ वयणोच्चारण किरियं परिचत्तं बीयरायभावेण । जो मायदि अप्पा परमसमाही हवे तस्स | १२२ ॥ संगमणियमतवेण दु धम्मज्काणेण सुक्ककाणेण । जो झायह अप्पाणं परमसमाही हवे तस्स | १२३ | = वचनोच्चारणकी क्रिया परित्याग कर वीतराग भावसे जो आत्माको ध्याता है, उसे समाधि है । १२२ । संयम, नियम और तपसे तथा धर्मध्यान और शुक्ल ध्यानसे जो आत्माको ध्याता है, उसे परम समाधि है | १२३ १. / . / २ / ११० सवल बियप जो विल परम-समाहि भांति तेण सुहासुह- भावणा मुणि सयलवि मेन्लंति |१०| = जो समस्त भा० ४-४३ Jain Education International ३३७ समाधि feesोंका नाश होना, उसको परमसमाथि नहते हैं, इसी से सुनिराज समस्त शुभाशुभ विकल्पोंको छोड़ देते हैं । १६० रा. वा./६/१/१२/५०५/२७ युजेः समाधिवचनस्य योगः समाधिः ध्यानमिरयनर्थान्तरम् योगका अर्थ समाधि और ध्यान भी होता है। भ.आ./वि./६७/१६४/८ (समाधि) समेकीभावे वर्तते तथा च प्रयोग:संग संगतं घृतमित्यर्थं एकीभूतं ते एकीभूतं घृतमित्यर्थः । समाधान मनसः एकाग्रताकरणं शुभोपयोगे शुद्ध वा । मनको एकाग्र करना, सम शब्दका अर्थ एकरूप करना ऐसा है जैसे मृत संगत हुआ तेल संगत हुआ इत्यादि मनको शुभयोग अथवा शुद्धोपयोग में एकाग्र करना यह समाधि शब्दका अर्थ समझना । म.पु. / २१/२२६ यत्सम्यक् परिणामेषु चित्तस्याधानमञ्जसा । स समाधिरिति ज्ञेयः स्मृतिर्वा परमेष्ठिनाम् । २२६| उत्तम परिणामों में जो चित्तका स्थिर रखना है वही यथार्थ में समाधि या समाधान है अथवा पंच परमेष्ठियोंके स्मरणको समाधि कहते हैं। दे. उपयोग / II / २ / १ साम्य, स्वास्थ्य, समाधि, योगनिरोध, और शुद्धपयोग समाधि एकार्थवाची नाम हैं। दे. ध्यान / ४ / ३ ध्येय और ध्याताका एकीकरण रूप समरसी भाव ही समाधि है। सं. स्तो./टी./१६/२६ धर्मं शुक्लं च ध्यानं समाधिः । -धर्म और शुक्ल ध्यानको समाधि कहते हैं । स्वा. न./टी./९७/२२१/१८ महिरन्तपथ्यगत योगः चिरानिरोधलक्षणं समाधिः । = बहिर और अन्तर्जल्पके त्याग स्वरूप योग है । और स्वरूपमें चित्तका निरोध करना समाधि है । ३. अनुप्रेक्षा/९/११ सम्यग्दर्शनादिको निर्विघ्न अन्य भनमें साथ ले जाना समाधि है । २. साधु समाधि भावनाका लक्षण स. सि. / ६ / २४ / ३३६ / १ यथा भाण्डागारे दहने समुत्थिते तत्प्रशमनमनुष्ठीयते महूपकारणात्तथा कमलशील समृद्धस्य मुनेस्तपसः कृतरिचप्रत्यूहे समुपस्थिते तत्संधारणं समाधिः । = जैसे भाण्डागार में आग लग जानेपर बहुत उपकारी होनेसे आगको शान्त किया जाता है, उसी प्रकार अनेक प्रकार के व्रत और शीलोंसे समृद्ध मुनिके तप करते हुए किसी कारण से विघ्न के उत्पन्न होनेपर उसका संधारण करना शान्त करना समाधि है । ( रा. वा./६/२४/८/५३०/१); (चा. सा./ ५४/४) । " t ८/४/२०११ साहूणं समाहिसंधारणाएगा-चरितसम्भवद्वाणं समाही नाम सम्म साहणं धारणं संधारणं समाहीए संधारणं समाहिसंधारणं तस्स भावी समाहिसंधारणदा। ताए तिथयरणामकम्मं वदिति ण वि कारण पति समाहि दट्ठूण सम्मादिट्ठी पवयणवच्छलो पवयणप्पहावओ विणयसंपण्णी सोसवदादिचारवजिओ अरहंतादि भसो संतो जदि धारेदि सं समाहिसंधारणं । ... जगाद साधुओंकी समाधिसंधारणा से तीर्थंकर नामकर्म बाँधता है - दर्शन, ज्ञान व चारित्रमें सम्यक् अवस्थानका नाम समाधि है । सम्यक् प्रकारसे धारण या समाधिका नाम संधारण है। समाधिका संधारण समाधिसंधारण और उसके भावका नाम समाधि संधारणता है। उससे सीर्थंकर नाम-कर्म बेचता है। किसी भी कारण से गिरती हुई समाधिको देखकर सम्यग्दृष्टि, प्रवचनवत्सल, प्रवचन प्रभावक, विनय सम्पन्न, शीलताविचार वर्जित और अर्हन्तादिकों में भक्तिमान होकर चूँकि उसे धारण करता है इसलिए वह समाधि संधारण है । यह संधारण शब्द में दिये गये 'सं' शब्दसे जाना जाता है । भा. पा./टी./७७/२२१/१ टपको सम्यक प्रकार मुनिगणतपः संधारणं साधुसमाधिः । मुनिगण धारण करते है वह साधु समाधि है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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