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________________ सम्यग्दृष्टि माहा जगदकी ओर दौड़ते हैं और वह अन्तरंग जगी और माह्यपदार्थक संयोग आदिको भी कुछ विचित्र ही प्रकार से प्रह करता है। इसी कारण बाहर में रागी व भोगी रहता हुआ भी वह अन्तरंग विरागी व योगी बना रहता है। यद्यपि कषायोद्रेक बा काय आदि भी करता है पर विवेक ज्योति खुसी रहने के कारण नित्य उनके प्रति निन्दन गर्हण वर्तता है। इसी से उसके कषाय युक्त भाव भी ज्ञानमयी व निरास्रव कहे जाते हैं । ५ १ १ ** २ ३ * ४ सम्यग्दृष्टि सामान्य निर्देश सम्यग्दृष्टिका लक्षण | अन्य अनेकों लक्षण वैराग्य, गुण, निःशंकितादि अंग आदिका निर्देश - सम्यष्टि /५/४ भय व संशय आदिके अभाव सम्बन्धी - ७ ८ आकांक्षा व रागके अभाव सम्बन्धी सम्यग्दृष्टिका सुख अन्यानका विधि निषेध एक पारिणामिक भावका आय * २ २ सम्यग्दृष्टिकी महिमाका निर्देश सम्यग्दृष्टि एकदेवाजिन कहलाते हैं उसके सब भाव ज्ञानमयी हैं। वह रागी भी विरागी है। वह सदा निरास्त्रव व अबन्ध है । कर्म करता हुआ भी वह बँधता नहीं । विषय सेवता हुआ भी वह असेवक है - दे. राग / ६ । उसके सब कार्य निर्जराके निमित्त हैं। निकित दे, राग / ६ | - दे, मोक्षमार्ग / २ / ४ । सम्यग्दृष्टि दो तीन ही होते हैं - दे, संख्या/२/७ । सम्यग्दृष्टिको शानी कहने की विवक्षा ज्ञानी । सिद्धान्त या आगमको भी कथंचित् सम्यग्दृष्टिव्यपदेश - दे. मुख/२/७ - दे. श्रद्धान / ३ | ५ अनुपयुक्त दशामें भी उसे निर्जरा होती है। ६ उसकी कर्म चेतना भी ज्ञान चेतना है। * सम्यग्दृष्टिका दी शान प्रमाण है सम्बन्दृष्टिका आत्मानुभव व उसकी - दे. जिन / ३ । Jain Education International - दे. राग /९/१,४। कर्म करता हुआ भी वह अकर्ता है - दे, चेतना / ३ । उसके कुध्यान भी कुगतिके कारण नहीं । वह वर्तमान दी मुक्त है। सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्ठिके पुण्य व धर्ममें अन्तर - दे. मिथ्यादृष्टि / ४ । सम्वष्टिको ही सच्ची भक्ति होती है। - दे. भक्ति / ११ दे. प्रमाण /२/५.४ । मत्यता । - अनुभव / ४२। उसका कुशास्त्र ज्ञान भी सम्यक् है - ये ज्ञान / IIT / २ / ९० । मरकर उच्चकुल आदिकमें ही जन्मता है। - दे. जन्म/३। ३७४ ३ उपरोक्त महिमा सम्बन्धी समन्वय मानो ज्ञानमयीपने सम्बन्धी । शुद्धाशुद्धोपयोग दोनों युगपत् होते हैं। ३ ५ 8 १ २ * ३ १ १ सूचीपत्र उसकी भवधारणा की सीमा दे. सम्यग्दर्शन / I / ५ । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश - दे. उपयोग / 1I / ३ - राग/ई। राग व विराग सम्बन्धी सदा निरासाय व अबन्ध होने सम्बन्धी सर्व कार्यों निरा सम्बन्धी ज्ञान चेतना सम्बन्धी। कर्तापने व अपने सम्बन्धी अशुभ ध्यानों सम्बन्धी । -दे, चेतना / ३१ सम्यग्दृष्टिकी विशेषताएँ सम्यग्दृष्टि ही सम्यक्त्व व मिध्यात्वके भेदको यथार्थ जानता है। सम्यग्दृष्टि स्वव पर दोनोंके सम्यक्त्वको जानता है - दे. सम्यग्दर्शन / I / ३ सम्यग्दृष्टिको पक्षपात नहीं होता है। वह नयको जानता है पर उसका पक्ष नहीं करता - ये नय/1/३/५ - दे. वाद । सम्यग्दृष्टि वाद नहीं करता जहाँ जगत् जागता है वहाँ ज्ञानी सोता है। मह पुण्यको हेय जानता है पर विषय वचनार्थ उसका सेवन करता है - पुण्य / २२ सम्यग्दृष्टि व मिध्यादृटिकी मियाओं व कर्म अपणा अन्तर अविरत सम्यग्दृष्टि अविरत सम्यग्दृष्टिका सामान्य लक्षण उसके परिणाम अथः प्रवृत्तिकरणरूप होते हैं For Private & Personal Use Only वह सर्वथा अती नहीं । उस गुणस्थान में सम्भव भाव वेधक सम्यग्दृष्टि क्षायोपशमिक शंका अपने दोषोंके प्रति निन्दभ गर्हण करना उसका स्वाभाविक है। अविरत सम्यग्दृष्टिके अन्य बाह्य चिह्न । इस गुणस्थान में मार्गणा जीवसमास आदि रूप २० प्ररूपणाएँ ४ - दे, करण / ४ । - दे. भाव / २ / ६ । भाव सम्बन्धी - दे. क्षयोपशम / २ | - वे सद इस गुणस्थान में सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर भाग व अल्पबहुत्व रूप आठ मरूपणाएँ - दे, वह वह नाम । www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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