SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीपाल चरित्र श्री देकर सातों पुत्र सहित दीक्षा ग्रहण कर ली (६)। अन्तमें मोक्ष प्राप्त की (८)। श्रीनदि-नन्दि संघ देशीयगण के अनुसार आप सकल-चन्द्रके शिष्य तथा नयनन्दिके गुरु थे। आपके लिए ही श्री पद्मनन्दिने जम्बूदीव पण्ण त्ति लिखी थी। अपरनाम रामनन्दि था। समयवि.१०२५-१०८० ई.६६८-१०२३), (ज. प./प्र. १३ A.N. Up.)। दे. इतिहास/७/५ । श्रीनाथ-अग्रोहाके राजा थे । समय-ई. १८६ । श्रीनिकेत-विजया की उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे. विद्याधर। श्रीनिचय-१. पद्मद में स्थित एक कूट । - दे. लोक/४/७ २. सप्तऋषियो में से एक-दे. सप्तऋषि । । श्रीनिवास-विजयाध की उत्तर श्रेणीका एक नंगर-दे. विद्याधर । श्री-१. विजयार्धकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर देविद्याधर; २. हिमवान् पर्वतस्थ एक कूट-दे. लोक ५/४,३. हिमवान् पर्वतस्थ पद्महदकी स्वामिनी देवी-दे. लोक३/४. रुचक पर्वत निवासिनी दिक्कुमारी देवी-दे. लोक५/१३,५. भरतके आर्य खण्डस्थ एक पर्वत-दे. मनुष्य/४। श्रीकंठ-१. इसको राक्षस वंशीय राजा कीर्तिधवलने वानर द्वीप दिया था, जिससे आगे जाकर इसकी सन्ततिसे वानर वंशकी उत्पत्ति हुई।-दे. इतिहास/७/१२ । २. वेदान्तकी शिवाद्वैत शाखाके प्रवर्तक-दे. वेदान्त/७॥ श्रोकटन-भरतक्षेत्रस्थ आर्य खण्डके मलय पर्वतके निकटस्थ एक पर्वत-दे. मनुष्य/४। श्रीकल्प-कालका प्रमाण विशेष। अपरनाम शिरःकंप।-दे. गणित/I/१/४। श्रीकांता-सुमेरु पर्वतके नन्दनादि वनोंमें स्थित वापियाँ ।-दे. लोक/७! श्रीचंद्र-पुराणसार संग्रह तथा दसणकहारयणकरड के कर्ता अपभ्रश कवि । गुरु परम्परा-नन्दिसंघ देशीयगण में श्रीकीर्ति, श्रुतकीर्ति. सहस्रकीर्ति, वीरचन्द्र, श्रीचन्द्र । समय-ग्रन्थ रचनाकाल घि, १९२३ (ई. १०६६) । (ती./४/१३१) । श्रीदत्त-१. भूतकालीन सप्तम तीर्थकर - दे. तीर्थकर/५ । २. भगवान महावीर की मूल परम्परा में लोहाचार्य के पश्चात एक अङ्गधारी। समय -वी.नि.५६५-५८५ (ई. ३८-५८) । (दे. इतिहास/ ४/४)। ३. एक प्रसिद्ध जैन तार्किक दिगम्बराचार्य जिनका नामोक्लेख आ. विद्यानन्दि ने श्लोकवातिक में किया और आ. पूज्यपाद (ई. श.६) तक ने जिनका स्मरण किया। कृति-जल्प निर्णय । समय - वि..श. ४-५ (ई. श. ४ का उत्तरार्ध)। (तो./२/४४६) (सि. वि./प्र. १६/पं. महेन्द्रकुमार)। श्रीधर-१. गणित तथा ज्योतिष विद्या के विद्वान दिगम्बराचार्य। कृति-गणितसार संग्रह, ज्योतिनिविधि, जातक तिलक, लीलावती (कन्नड़)। समय-रचनाकाल ई.७६६-८६५। (ती./३/१९९१) २. 'सुकुमाल चरिउ' के कर्ता अपभ्रंश कवि । समय-ग्रन्थ रचनाकाल ई. ११५१ । (ती./३/१८९)1३. पासणाह चरिउ तथा बड्ढमाण चरिउ के रचयिता एक भाग्य व पुरुषार्थ उभयवादी। हरियाणावासी बुध गोन्ह के पुत्र । समय-ग्रन्थ रचनाकाल वि. ११८६ । (ती./४/१३४)। ४. 'भविसयन्त चरिउ' के रचयिता अपभ्रंश कवि दिगम्बर मुनि । माथुरवंशीय नारायण के पुत्र । समय-ग्रन्थ रचनाकाल वि १२००। (ती./४/१४५)। ५. 'सुकुमाल चरिउ' के रचयिता एक अपभ्रंश कवि गृहस्थ । साहू पाथी के पुत्र । समय-ग्रन्थ रचनाकाल वि.१२०८ । (ती./४/१४६)। ६. सेनसंघी मुनिसेन के शिष्य, काव्य शास्त्रज्ञ । कृति-विश्वलोचन कोश । (ती-1३/१८८) । ७. भविष्यदत्त चरित्र तथा श्रुतावतार के रचयिता । समयई. श. १४ । (ती./३/१८५)। धोधरा-म.पु./५६/ श्लोक-धरणीतिलक नगरके स्वामी अतिवेग विद्याधरकी पुत्री थी। अलका नगरके राजा दर्शकसे विवाही गयी (२२८-२३०) । अन्तमें दीक्षा ग्रहण कर तप किया (२३२) पूर्व भवके वैरी अजगरने इसे निगल लिया। (२३७) मर कर यह रुचक विमानमें उत्पन्न हुई (२३८) । यह मेरु गणधरका पूर्व का छठाँ भव है -दे, मेरु । श्रीनंदन-प.प्र./१२/श्लोक नं. श्रीमन्यु आदि सप्तऋषियों के पिता थे (४) प्रीतिकर भगवान के केवल ज्ञानके समय एक पुत्रको राज्य श्रीपाल-१.म.प्र./सर्ग/श्लोक-पूर्व विदेहमें पुण्डरी किणी नगरीका राजा था (४७/३-४)। पिता गुणपालके ज्ञानकल्याणमें जाते समय मार्ग में एक विद्याधर घोड़ा बनकर उड़ाकर ले गया, जाकर वनमें छोड़ा (४७/२०) घूमते-घूमते विदेश में अनेकों अवसरों व स्थानोंपर कन्याओंसे विवाह करनेके प्रसंग आये परन्तु 'मैं माता आदि गुरुजनके द्वारा प्रदत्त कन्याके अतिरिक्त अन्य कन्यासे भोग न करू गा' इस प्रतिज्ञाके अनुसार सबको अस्वीकार कर दिया (४५/२८-१५०) । इसके अनन्तर पूर्व भवकी माता यक्षी द्वारा प्रदत्त चक्र, दण्ड, छत्र आदि लेकर, उनके प्रभावसे पिताके समवसरण में पहुँचा (४७/१६०१६३) । इसके अनन्तर चक्रवर्तीके भोगोंका अनुभव किया (४७/१७३)। अन्तमें दीक्षा ग्रहणकर मोक्ष प्राप्त किया (४७/४४-४६)। २. चम्पापुर नगरके राजा अरिदमनका पुत्र था। मैना सुन्दरीसे विवाहा गया। कोढ़ी होनेपर मैना सुन्दरी कृत सिद्धचक्र विधानके गन्धोदकसे कुष्ठ रोग दूर हुआ। विदेश में एक विद्याधरसे जलतरंगिणी व शत्रु निवारिणी विद्या प्राप्त की। धवल सेठके रुके हुए जहाजोंको चोरोंसे छुड़ाया। इनको रैनमंजूषा नामक कन्याकी प्राप्ति होनेपर धवल सेठ उसपर मोहित हो गया और इनको समुद्र में गिरा दिया। तब ये लकड़ीके सहारे तिरकर कुंकुमद्वीपमें गये। वहाँपर गुणमाला कन्यासे विवाह किया। परन्तु धवलसेठके भाटों द्वारा इनकी जाति भाण्ड बता दी जानेपर इनको सूलीकी सजा मिली । तब रैनमंजूषाने इनको छुड़ाया। अन्तमें दीक्षा ग्रहण कर मोक्ष प्राप्त किया (श्रीपाल चरित्र) । ३. पंचस्तूप संघ में वीरसेन स्वामी (ई. ७७०-८२५) के शिष्य और जिनसेन (ई.८१८-८७८) के सधर्मा। समय-(लगभग ई.८००-८४३) वि.श. । (ती./२/४५२) (दे. इतिहास/७/७)। ४. द्रविड़ संघी. गोणसैन के शिष्य और देवकीर्ति पण्डित के गुरु । अनन्तवीर्य के सधर्मा । समय-ई.६७५-१०२५ । (सि. वि./-प्र./७७/पं. महेन्द्र)। ५. एक राजा जिनके निमित्त नेमिचन्द्र सिद्धान्तिकदेव ने द्रव्य स ग्रह की रचना की थी। समय-वि. ११००-१९४० (ई. १०४३१०८.३) (ज्ञा./प्र. २/पं. पन्नालाल)। श्रीपाल चरित्र-१. सकलकोतिकृत संस्कृत छन्दोबद्ध । समय ई. १४०६-१४४२ । (ती./३/३३३) । २. भट्टारक श्रुतसागर (ई. १४८७१४६६) कृत संस्कृत गद्य रचना। (ती./३/४००)।३. कवि परिमान (ई. १५६४) कृत। ४.ब्र. नेमिदत्त (वि. १५८१,ई. १४२८) कृतन (ज./२/३७८)। (ती./३/४०४)। ५. वादिचन्द्र (वि.१६३७-१६६४) कृत हिन्दी गीत काव्य । (ती./४/७२)11.प.दौलत राम (ई.१७२०१७७२) कृत भाषा ग्रन्थ । कृत संस्कृत गद्य (वि. १५८५, ३ १६६४ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy