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________________ श्रद्धान--- श्रावक दे. सम्यग्दर्शम//५ जो सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट है वे भध हैं। क्योंकि सम्य. ग्दर्शनके बिना ज्ञान व चारित्र नियम पूर्वक नहीं होते। धद्धान प्रायश्चित्त-दे. प्रायश्चित्त/१ । श्रद्धावान-१.अपर विदेहका एक वक्षार-दे लोक ॥३॥ २. उस वक्षारका एक कूट तथा उस क्टका रक्षक देव, दे. लोक/५/४। श्रमण-१न, च, वृ./३३२ सम्मा वा मिच्छा विय तवोहणा समण तह य अणयारा। होति विराय सराया जदिरिसिमुणिणो य णायबा ।३३२-श्रमण तथा अनगार सम्यक व मिथ्या दोनों प्रकारके होते हैं। सम्यक् श्रमण विरागी और मिथ्या श्रमण सरागी होते हैं । उनको ही यति, ऋषि, मुनि और अनगार कहते हैं ।३३२॥ (प्र. सा./ता. वृ./२४६); (विशेष-दे. साधु ) २. श्रमणके १० कल्पोका निर्देश साधु/२। श्रमण-१ एक ग्रह-दे. ग्रह । २. एक नक्षत्र-दे. नक्षत्र । श्रावक-विवेकवान विरक्तचित्त अणुव्रती गृहस्थको श्रावक कहते हैं। ये तीन प्रकारके हैं-पाक्षिक, नैष्ठिक व साधक । निज धर्मका पक्ष मात्र करनेवाला पाक्षिक है और वतधारी नैष्ठिक । इसमें वैराग्यकी प्रकर्षतासे उत्तरोत्तर ११ श्रेणियाँ हैं। जिन्हें ११ प्रतिमाएँ कहते हैं। शक्तिको न छिपाता हुआ वह निचली दशासे क्रम पूर्वक उठता चला जाता है। अन्तिम श्रेणी में इसका रूप साधुसे किंचित् न्यून रहता हैं। गृहस्थ दशामें भी विवेक पूर्वक जीवन मितानेके लिए अनेक क्रियाओंका निर्देश किया गया है। आज्ञा प्रमाणभूत माननी चाहिए ऐसा भाव हृदय में रखता है अत: उसके सम्यग्दर्शनमें हानि नहीं है, वह मिथ्याष्टि नहीं गिना जाता है। सर्वज्ञकी आज्ञाके ऊपर उसका प्रेम रहता है, वह आज्ञा रुचि होनेसे सम्यग्दृष्टि ही है, ऐसा भाव समझना। (और भी दे. आगम/५)। गो.जी./जी. प्र./२७/५६/९२ असद्भावं-अतत्त्वमपि स्वस्य विशेषज्ञान शून्यत्वेन केवल गुरुनियोगात् अर्ह दाद्याज्ञातः श्रद्दधाति सोऽपि सम्यग्दृष्टिरेव भवति तदाज्ञाया अनतिक्रमात् ।२७१ - अपने विशेष ज्ञानका अभाव होनेसे गुरुके नियोगसे 'अरहंत देवका ऐसा ही उपदेश है' ऐसा समझकर यदि कोई पदार्थ का विपरीत भो श्रद्धान कर लेता है तो भी वह सम्यग्दृष्टि ही है, क्योंकि उसने अरहंतका उपदेश समझकर उस पदार्थ का वैसा श्रद्धान किया है। उनकी आज्ञाका अतिक्रम नहीं किया। ५. सम्यक् उपदेश मिलनेपर भी हठ न छोड़े तो मिथ्यादष्टि हो जाये भ, आ./मू.३३,३६ सुत्तादो त सम्म दरसिज्जतं जदा ण सद्दहदि। सो चेव हवह मिच्छादिट्ठी जीवो तदो पहुदि ॥३३॥ पदमक्रवरं च एक्क पि जो ण रोचेदि सुत्तणिहिट्ठं । सेसं रोचंतो विहु मिच्छादिट्ठी मुणेयत्रो ३६-१. सूत्रसे आचार्या दिकके द्वारा भले प्रकार समझाये जानेपर भी यदि वह जीव विपरीत अर्थ को छोड़कर समीचीन अर्थका श्रद्धान नहीं करता, तो उस समयसे वह सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यादृष्टि हो जाता है। (ध. १/१,१,३६/गा, १४३/२६२); (गो. जी./मू./२८); (ल. सा./मू./१०६/१४४ ) २. सूत्रमें उपदिष्ट एक अक्षर भी अर्थको प्रमाण मानकर श्रद्धा नहीं करता वह माकीके श्रृतार्थ वा श्रुतांशको जानता हुआ भी मिथ्यादृष्टि है । क्योंकि बड़े पात्रमें रखे दूधको छोटी सी भी विष कणिका बिगाड़ती है। इसी प्रकार अश्रद्धाका छोटा सा अंश भी आत्माको मलिन करता है ।। १. क्योंकि मिथ्याष्टिके ही ऐकान्तिक पक्ष होता है भ. आ./मू./१०/१३८ मोहोदयेण जीवो उवइ8 पवयणं ण सद्दहदि । सद्दहदि असम्भावं उबइठं अणुवइ वा ।४०)- दर्शन मोहनीय कर्मके उदय होनेसे यह जीव कहे हुए जीवादि पदार्थों के सच्चे स्वरूपपर श्रद्धान करता नहीं है। परन्तु जिसका स्वरूप कहा है अथवा कहा नहीं ऐसे असत्य पदार्थों के ऊपर वह श्रद्धान करता है ॥४॥ क. पा. सू./१०८/पृ. ६३७ मिच्छाइट्ठी णियमा उवइट्ठ पवयणं ण सद्दहदि । सद्दहदि असन्भाव उवइट्ठ वा अणुवइर्छ ।१०८/मिथ्यावृष्टि जीव नियमसे सर्वज्ञके द्वारा उपदिष्ट प्रवचनका तो श्रद्धान नहीं करता है, किन्तु असर्वज्ञ पुरुषों के द्वारा उपदिष्ट या अनुपदिष्ट असद्भावका अर्थात पदार्थके विपरीत स्वरूपका श्रद्धान करता है ।१०८) (ध. ६/१,६-८६/गा. १५/२४२) । * सम्यग्दृष्टिको पक्षपात नहीं होता-दे. सम्यग्दृष्टि। .. एकान्त श्रद्धान या दर्शन वादका निर्देश १. मिथ्या एकान्तको अपेक्षा ज्ञा./४/२४ कैश्चित् कीत्तिता मुक्तिदर्शनावेव केवलम् । वादिना खलु सर्वेषामपाकृत्य नयान्तरम् ।२४। कई बादियोंने अन्य समस्त वादियों के अन्य नयपक्षों का निराकरण करके केवल दर्शनसे ही मुक्ति होनी कही है, ॥२४॥ २. सम्यगेकान्तको अपेक्षा दे. विज्ञानवाद/२ ज्ञान क्रिया व श्रद्धा तीनों ही मिलकर प्रयोजन * भेद व लक्षण १ श्रावक सामान्य के लक्षण । श्रावकके भेद। १. पाक्षिकादि तीन भेदः २. नैष्ठिक श्रावकके ११ भेद; ३. ग्यारहवी प्रतिमाके दो भेद। पृथक-पृथक् ११ प्रतिमाएँ। -दे, वह बह नाम । पाक्षिकादि श्रावकोंके लक्षण । श्रावक सामान्य निर्देश गृहस्थ धर्मकी प्रधानता। श्रावक धर्मके योग्य पात्र । विवेकी गृहस्थको हिंसाका दोष नहीं। श्रावकको भत्र धारणकी सीमा। श्रावकके मोक्ष निषेधका कारण । श्रावकके पढने न पढ़ने योग्य शास्त्र -दे. श्रोता। श्रावकमें विनय व नमस्कार योग्य व्यवहार --दे. विनय/३। सम्यग्दृष्टि भी श्रावक पूज्य नहीं -दे. विनय/४ । गृहस्थाचार्य -दे. आचार्य/२। श्रावक ही वास्तवमें ब्राह्मण है -दे. ब्राह्मण । श्रावकको गुरु संशा नहीं -दे. गुरु/१। |* प्रत्येक तीर्थकरके तीर्थमें श्रावकोंका प्रमाण -दे. तीर्थंकर/५। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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