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________________ हेतु ५४१ हेमचंद ३. हेतु स्वपक्ष साधक व परपक्ष दृषक होना चाहिए प. मु./६/७३ प्रमाणतदाभासौ दुष्टतयोद्भाषितौ परिहतापरिहृतदोषौ वादिनः साधनतदाभासौ प्रतिवादिनोदूषणभूषणे च॥७३॥-प्रथमवादी के द्वाराप्रयुक्त प्रमाणको प्रतिवादी द्वारा दुष्ट बना दिया जानेपर, यदि वादी उस दूषणको हटा देता है तो वह प्रमाण वादी के लिए साधन और प्रतिवादीके लिए दूषण है। यदि वादी साधनाभासको प्रयोग करे, और पीछे प्रतिवादी द्वारा दिये दूषणको हटा न सके तो वह प्रमाण वादी के लिए दूषण और प्रतिवादी के लिए भूषण है। यही स्वपक्ष साधन और परपक्ष दूषणकी व्यवस्था है। स, भं. त./80/३ हेतुः स्वपक्षस्य साधकः परपक्षस्य दूषकश्च । हेतु स्वपक्षका साधक और परपक्षका दूषक होना चाहिए। ४. हेतु देनेका कारण व प्रयोजन प. मु./अन्तिम श्लोक परीक्षामुखमादर्श हेयोपादेयतत्वयोः। संविदे मादृशो बालः परीक्षादक्षवव्यधाम् ।। - परीक्षा प्रवीण मनुष्यकी तरह मुझ बालकने हेय उपादेय तत्त्वों को अपने सरीखे बालकोंको उत्तम रीतिसे समझानेके लिए दर्पणके समान इस परीक्षामुख ग्रन्थकी रचना की है। स.भ.त./80/२ स्वेष्टार्थ सिद्धिमिच्छता प्रवादिना हेतुः प्रयोक्तव्यः, प्रतिज्ञामात्रेणार्थसिद्ध रभावात् । -अपने अभीष्ट अर्थको सिद्धि चाहने वाले प्रौढ वादीको हेतुका प्रयोग अवश्य करना चाहिए। क्योंकि केवल प्रतिज्ञा मात्रसे अभिलषित अर्थ की सिद्धि नहीं होती। * जय-पराजय व्यवस्था -दे. न्याय/२। ३. हेत्वाभास निर्देश १. हेत्वाभास सामान्यका लक्षण न्या. वि./म्./२/१७४/२१० अन्यथानुपपन्नवरहिता ये विडम्बिताः 1१७४। हेतुत्वेन परस्तेषां हेत्वाभासत्वमीक्षते । - अन्यथानुपपन्नत्वसे रहित अन्य एकान्तवादियोंके द्वारा जो हेतु नहीं होते हुए भी, हेतुरूपसे ग्रहण किये गये हैं वे हेत्वाभास कहे गये हैं। न्या. दी./३/६४०/८८/५ हेतुलक्षणरहिता हेतुबदवभासमानाः खलु हेत्वाभासाः । =जो हेतुके लक्षणसे रहित हैं, और कुछ रूपमें हेतुके समान होनेसे हेतुके समान प्रतीत होते हैं वे हेत्वाभास हैं । (न्या. दी./३/६०/१००/१) (न्या. सू. भाषा./२/१/४/४४) २. हेत्वामासके भेद न्या, मू /२/१०१/१२६ विरुद्धासिद्धसंदिग्धा अकिंचित्करविस्तराः इति ।१०१ -विरुद्ध, असिद्ध, सन्दिग्ध और अकिंचिरकर ये चारों ही अन्यथानुपपन्नत्व रूप हेतुके लक्षणसे विकल होनेके कारण हेत्वा भास हैं । ( न्या. वि. मू./२/१६७/१२५) सि. वि /मू./६/३२/४२६ एकलक्षणसामद्धित्वाभासा निवर्तिताः। विरुद्वान कान्तिकासिद्धाज्ञाताकिञ्चित्करादयः ।३२ =अन्यथानुपपत्ति रूप एक लक्षणकी सामर्थ्य से ही विरुद्ध, अनै कान्तिक, असिद्ध अज्ञात व अकिंचित्कर आदि हेत्वाभास उत्पन्न होते हैं। अर्थात उपरोक्त लक्षगको वृत्ति विपरोत आदि प्रकारों से पायी जाने के कारण ही ये विरुद्ध आदि हेत्वाभास हैं। श्लो. पा. ४/न्या./२७३/४२५/७ पर भाषामें उद्धत-सव्यभिचारविरुद्धप्रकरणसमसाध्यसमातोतकाला हेत्वाभासाः । सव्यभिचारी, विरुद्ध, प्रकरणसम, साध्यसम, अतीतकाल ये पाँच हेत्वाभास हैं । (न्या. सू./ मू. १/४/४४) न्या. दी./३/६४०/८६/४ पञ्च हेत्वाभासा असिद्धविरुद्धनै कान्तिककालात्ययापदिष्टप्रकरणसमाख्याः संपन्नाः। -हेत्वाभास पॉच हैं असिद्ध, विरुद्ध, अनेकान्तिक, कालत्ययापदिष्ट और प्रकरणसम । प.मु./६/२१ हेत्वाभासा असिद्धविरुद्धानै कान्तिकाकिचित्कराः। - ___ हेत्वाभासके चार भेद है- असिद्ध, विरुद्ध, अनै कान्तिक और अकिंचित्कर । स. म./२४/१ विरोधस्योपलक्षणत्वाव वैयधिकरणम् अनवस्था संकरः व्यतिकरः संशयः अप्रतिपत्तिः विषयव्यवस्थाहानिरिति। -सप्त भंगी बादमें विरोध, वैयधिकरण्य, अनवस्था, संकर, व्यतिकर, संशय, अप्रतिपत्ति और विषयव्यवस्था हानि ये आठ दोष आते हैं। * हेतुओं व हेत्वाभासोंके भेदोंका चित्र-दे, न्याय/१॥ * हेत्वाभासके भेदोंके लक्षण-दे. बह-वह नाम । हेतुवाद-दे, हेतु/१। य धर्मध्यान-दे.धर्मध्यान/१४/१०। हेत्वन्तर-घ्या. सू./म. व. टी./५/२/६/३११ अविशेषोक्ते हेतौ प्रतिषिद्धे विशेषमिच्छतो हेत्वन्तरम् ।। निदर्शनम् एकप्रकृतीदं व्यक्तमिति प्रतिज्ञा कस्माद्ध तोरेकप्रकृतीनां विकाराणां परिमाणाद मृत्पूर्वकाणां शरावादीनां दृष्टं परिमाण यावान्प्रकृते! हो भवति तावान्विकार इति दृष्ट' च प्रतिविकार' परिमाणम् । अस्ति चेदं परिमाण प्रतिव्यक्तं तदेक प्रकृतीनां विकाराणां परिमाणात् पश्यामो व्यक्तिमदनेकप्रकृतीति । अस्य व्यभिचारेण प्रत्यवस्थानं नानाप्रकृतीनां च विकाराणां दृष्टं परिमाणमिति । ..... तदिदमपि शेषोक्ते हेतौ प्रतिषिद्ध विशेष अवतो हेत्वन्तरं भवति। - विशेषोंका लक्ष्य नहीं करके सामान्य रूपसे हेतुके कह चुकनेपर पुनः प्रतिवादी द्वारा हेतुके प्रतिषेध हो जानेपर विशेष अंशको विवक्षित कर रहे बादीका हेत्वन्तर निग्रहस्थान हो जाता है। उदाहरण-जैसे व्यक्त एक प्रकृति है यह प्रतिज्ञा है, एक प्रकृति वाले विकारों के परिणामसे यह हेतु है । मिट्टोसे बने शराव आदिकोंका परिमाण दृष्ट है, जितना प्रकृतिका व्यूह होता है उतना ही विकार होता है और यह परिमाण प्रतिव्यक्त है । वह एक प्रकृति वाले विकारों के परिमाण से देखा जाता है। इससे सिद्ध हुआ कि व्यक्त एक प्रकृति है। (श्लो. वा./४/ न्या. १६१/३७६/६ में इसपर चर्चा । हेत्वाभास-दे. हेतु/३ । हेमग्राम-श्रीयुत् मल्लिनाथ चक्रवर्ती एम. ए. एल. टी.ने अपने प्रवचनसारकी प्रस्तावनामें लिखा है कि मद्रास प्रेसीडेन्सीके मलाया प्रदेशमें 'पोन्नूरगाँव' को ही प्राचीन काल में हेमग्राम कहते थे । (कुरल काव्य/प्र.२१)। हेमचंद-१. काष्ठा संघकी गूर्वावलीके अनुसार ( दे. इतिहास) आप कुमारसेन ( काष्ठा संघके संस्थापक ) के शिष्य तथा पद्मनन्दि के गुरु थे। समय-वि.८०, (ई. १२३)-दे. इतिहास/७/१। २. गुजरातके , धंधुग्राम में चच्चनामक वैश्यके पुत्र थे । बचपनका नाम चंगदेव था। पाँच वर्षको आयुमें देवचन्द्र गणीसे दीक्षा ग्रहण की। तब इनका नाम हेमचन्द्र रखा गया और सोमदेवकी उपाधिसे विभूषित हुए। ये श्वेताम्बराचार्य थे। कृतियाँ-गुजराती व्याकरण, सिद्ध हेम शब्दानुशासन, प्राकृत व्याकरण, अभिधान चिन्तामणि कोष (हमी नाममाला), अनेकार्थसंग्रह, देशीनाममाला, काव्यानुशासन, छन्दानुशासन, प्रमाणमीमांसा, अन्ययोग व्यवच्छेद (द्वात्रिशतिका स्याद्वाद मञ्जरी) अयोग व्यवच्छेद द्वात्रिंशतिका, अध्यात्मोपनिषद्, योगशास्त्र, दयाश्रय महाकाव्य, निघंटुशेष, वीतरागस्तोत्र, अन्तरश्लोक (द्वादशान जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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