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________________ संयतासंयत संयम ३. इसके परिणामोंमें चतु:स्थान पतित हानि वृद्धि ल. सा./मू./१७६/२२८ देसो समये समये सुज्झतो संकिलिस्समाणो य। चउड्ढिहाणिदयादव द्विदं कुण दि गुणसे दि । = अथाप्रवृत्त देशसंयत जीव समय-समय विशुद्ध और संक्लिष्ट होता रहता है। विशुद्ध होनेपर असंख्यातभाग, संख्यातभाग, संख्यातगुण व असंख्यातगुण इन चार प्रकारकी वृद्धि सहित, और संक्लिष्ट होनेर इन्हीं चार प्रकारकी हानि सहित द्रव्यका अपकर्षण करके गुणश्रेणी में निक्षेपण करता है। इस प्रकार उसके काल में यथासम्भव चतुःस्थानपतित वृद्धि हानि सहित गुणश्रेणी विधान पाया जाता है । ४. संयमासंयमका स्वामित्व दे. नरक// [नरक गतिमें भव नहीं।] दे तिर्यच/२/२-४ (केवल संज्ञो पंचेन्द्रिय तिर्यंचको सम्भव है, अन्य एकेन्द्रियसे असंज्ञो पर्यतको नहीं, कर्मभूमिजोंको ही होता है भोगभूमिजोंको नहीं. कर्म भूमिजों को भी आर्यखण्डमें ही होता है, म्लेच्छ-खण्डमै नहीं। वहाँ भी क्षायिक सम्यग्दृष्टि तिर्यचको नहीं होता । सर्वत्र पर्याप्तकों में ही होता है अपर्याप्तकोमे नहीं।] दे. मनुष्य/३/२ [ मनुष्यों में केवल कर्मभूमिजोंको ही सभव है भोगभूमिजों को नहीं, वहाँ भी आर्य खण्डों में हो सम्भव है म्लेच्छरखण्डोंमें नहीं। विद्याधरोमे भी सम्भव है। सर्वत्र पर्याप्तकों में ही होता है अपर्याप्तकों में नहीं। दे, देव/II/३/२ [ देव गतिमें सम्भव नहीं। दे. आयु/६/७ [ जिसने पहिले देवायुके अतिरिक्त तीन आयुको बाँध लिया है ऐसा कोई जोव संयमासंयमको प्राप्त नहीं हो सकता।) दे. सम्यग्दर्शन/iV// [ क्षायिक सम्यग्दृष्टि संयतासंयत मनुष्य ही होते हैं तिथंच नहीं। ५. संथमासंयमके पश्चात् भवधारणकी सीमा वसु. श्रा./५३६ सिज्झइ तइयम्मि भवे पंचमए कोवि सत्तमट्ठमए। भुंजिवि सुरमणुयसह पावेइ कमेण सिद्धपयं ।५३४उपरोक्त रीतिमे श्रावकों का आचार पालन करनेवाला (दे. श्रावक)] तीसरे भव में सिद्ध होता है। कोई कमसे देव और मनुष्यो के सुख को भोगकर पाँचवें सातवे या आठवें भवमें सिद्ध पदको प्राप्त करते हैं। [यह नियम या तो क्षायिक सम्यग्दृष्टिकी अपेक्षा जानना चाहिए ( दे. सम्यग्दर्शन/11५/४), और या प्रत्येक तीसरे भवमें संयमासंयमको प्राप्त होनेवालेकी अपेक्षा जानना चाहिए, अथवा उपचाररूप जानना चाहिए, क्योंकि एक जोब पत्यके असख्यातवें बार तक सयमासंयमकी प्राप्ति कर सकता है ऐसा निर्देश प्राप्त है ( दे. संयम/२)] । ६. संयतासंयतमें सम्भव भाव ध. १/१,९,१३/१७४/७ औदयिकादिपञ्चमु गुणेषु के गुणमाश्रित्य संयमासंयमगुणः समुत्पन्न इति चेत् क्षायोपशमिकोऽयं गुणः ।.. संयमासंयमधाराधिकृतसम्यक्त्वानि कियन्तीति चेक्षायिकक्षायोपशमिकोपशमिकानि त्रीण्यपि भवन्ति पर्यायेण ।-प्रश्न- औदयिकादि पाँच भावोंमेसे किस भावके आश्रयसे संयमासंयम भाव पैदा होता है ? उत्तर-संयमासंयम भाव क्षायोपशमिक है। (और भी दे भाव/ २/8) । प्रश्न-संयमासंयमरूप देशचारित्रकी धारासे सम्बन्ध रखनेवाले कितने सम्यग्दर्शन होते हैं : उत्तर-क्षायिक, क्षायोपशामिक व औपशमिक इन तीनों में से कोई एक सम्यग्दर्शन विकल्प रूपसे होता है । (और भी दे. भाव/२/१२) । ७. इसमें क्षायोपशमिक भाव कैसे रा. वा./२/५/८/१०८/६ अनन्तानुबन्ध्यप्रत्यारख्यानकषायाष्टकोदयक्षयात सदुपशमाच्च प्रत्याख्यानकषायोदये संज्वलनकषायस्य देशवातिस्पधंकोदये नोकषायनवकस्य यथासंभवोदये च विरताविरतपरिणाम: क्षायोपशमिकः । - अनन्तानुबन्धी और अप्रत्याख्यानावरण रूप आठ कषायोंका उदयक्षय और सदवस्थारूप उपशम, प्रत्याख्यानावरण कषायका उदय, संज्वलनके देशघाति स्पर्धक और यथासंभव नोकषायोंका उदय होनेपर विरत-अविरत परिणाम उत्पन्न करनेवाला भाव क्षायोपशामिक है। घ. १/१,१,१:/१७४/८ अप्रत्याख्यानावरणीयस्य सर्वधातिस्पर्द्धकानामुदयश्यात सतः चोपशमात प्रत्याख्यानावरणीयोदयादप्रत्याख्यानोस्पत्ते'।अप्रत्यारन्यानावरणीय कषायके वर्तमान कालिक सर्वघाती स्पर्द्धकों के उदयभावी क्षय होनेसे, और आगामी कालमें उदयमें आने योग्य उन्हींके सदवस्थारूप उपशम होनेसे तथा प्रत्याख्यानावरणीय कषायके उदयसे संयमासं यमरूप अप्रत्याख्यान-चारित्र उत्पन्न होता है। ( गो. जी./मू./४६६/८७६) । ध.७/२.१,५१/१४/६ चदुसं जलण-णवणोकसायाणं खओवसमसण्णिदेस धादिफयाणमुदएण संजमासंजमुप्पत्तीदो स्वओक्समलद्धीए सयमास यमो । तेरसण्हं पयडीणं देसघादिफद्दयाणमुदओ संजमलंभणिमित्तो कधं संजमासंजमणि मित्तं पडिवज्जदे । ण, पञ्चक्खाणाघरणसव्यधादिफहयाणमुदएण पडिय चदुसंजलणादिदेसघादिफद्दयाणमुदयस्स संजमासंजमं मोत्तण संजमुप्पायणे असमत्थादो। -चार संज्वलन और नवनोकषायोंके क्षयोपशम संज्ञावाले देशघातीस्पर्धकोंके उदयसे संयमासंयमकी उत्पत्ति होती है, इसलिए क्षयोपशम लब्धिसे संयमासंयम होता है। (ध. ५/१,७,७/२०२/३) । प्रश्न-चार संज्वलन और नव नोकषाय, इन तेरह प्रकृतियों के देशघाती स्पर्ध कोंका उदय तो संयम की प्राप्तिमें निमित्त होता है (दे० संयत/२/३) । वह संययास यमका निमित्त कैसे स्वीकार किया गया है ! उत्तरनहीं, क्योंकि, प्रत्याख्यानावरण के सर्वघाती स्पर्धकों के उदयसे जिन चार संज्वलनादिकके देशघाती स्पर्धकों का उदय प्रतिहत हो गया है, उस उदयके संयमासं यमको छोड़ संयम उत्पन्न करनेका सामर्थ्य नहीं होता है। दे० अनुभाग/४/६/६ [ इससे प्रत्यारण्यानावरणका सर्वघातीपना भी नष्ट नहीं होता है। सयम-सम्यक प्रकार यमन करना अर्थात बत-समिति-गुप्ति आदि रूपसे प्रवर्तना अथवा विशुद्धात्मध्यानमें प्रवर्तना संयम है। तहाँ समिति आदि रूप प्रवर्तना अपहृत या व्यवहार संयम और दूसरा लक्षण उपेक्षा या निश्चय संयम है। इन्हीं दोनों को वीतराग व सराग चारित्र भी कहते है। अन्य प्राणियों की रा करना प्राणिसयम है और इन्द्रियोंके विषयोंसे विरक्त होना इन्द्रिय संयम है। सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यधारख्यात ऐसे इसके पाँच भेद हैं। सराग चार इन्द्रियोंके परिहारविशुखि १ भेद व लक्षण संयमका लक्षण। व्यवहार संयमका लक्षण । निश्चय संयमका लक्षण । निश्चय व्यवहार चारित्रकी कथंचित् मुख्यता गौणता। -दे. चारित्र/४/७। संयम लब्धिस्थान व एकान्तानुवृद्धि आदि । संयम। -दे० लब्धि /५ । संयममार्गणाकी अपेक्षा भेद व लक्षण । सामायिकादि संयम । -दे० शीर्षक सं.४। * शायोपशमिकादि सयम निर्देश। -दे० भाव/२ । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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