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________________ स्वरूप संबोधन ५०९ स्वरूप संबोधन-१. आ अकलंक भट्ट (ई. ६२०-६८०) कृत २५ श्लोक प्रमाण आध्यात्मिक ग्रन्थ, जिस पर नयसेन के शिष्य महासेन (वि.श ७-८)। (जै/२/१८)। २. शुभचन्द्र (ई. १५१६-१५५६) कृत। (दे. शुभचन्द्र)। स्वरूपाचरण चारित्र--असंयतादि गुणस्थानों में सम्यक्त्वके कारण परिणामों में जो निर्मलता या आंशिक साम्यता जागृत होती है, उसीको आगममें स्वरूपाचरण या सम्यक्त्व चारित्र कहते हैं। मोक्षमार्ग में इसका प्रधान स्थान है। व्रतादि रूप चारित्रमें इसके साथ वर्तते हुए ही सार्थक है अन्यथा नही। स्वर्ग- देवोंके चार भेदोंमें एक वैमानिक देव नामका भेद है। ये लोग ऊप्रलोकके स्वर्ग विमानों में रहते हैं तथा बड़ी विभूति व ऋद्धि आदिको धारण करनेवाले होते हैं । स्वर्गके दो विभाग हैं- कल्प व कल्पातीत । इन्द्र सामानिक आदि रूप कल्पना भेद युक्त देव जहाँ तक रहते हैं उसे कल्प कहते हैं । वे १६ हैं। इनमें रहनेवाले देव कल्पवासी कहलाते हैं । इसके ऊपर इन सत्र कलानाओंसे अतीत, समान ऐश्वर्य आदि प्राप्त अहमिन्द संज्ञावाले देव रहते हैं। वह कल्पातीत है। उनके रहनेका सब स्थान स्वर्ग कहलाता है। इसमें इन्द्रक व. श्रेणी. बद्ध आदि विमानोंकी रचना है। इनके अतिरिक्त भी उनके पास घूमने फिरनेको विमान है, इसीलिए वैमानिक संज्ञा भी प्राप्त है। बहुत अधिक पुण्यशाली जीव वहाँ जन्म लेते हैं, और सागरोंकी आयु पर्यन्त दुर्लभ भोग भोगते हैं। 7 १. स्वरूपाचरण चारित्र निर्देश चा. पा./मू./८ तं चेव गुणविसुद्धं जिणसम्मत्तं सुमुक्खठाणाय। जं चरइ णाणजुत्तं पढ़मं सम्मत्तचरणचारित्तं । =निःशंकित आदि गुणोंसे विशुद्र अरहन्त जिनदेवकी श्राद्ध होकर, यथार्थ ज्ञान सहित आचरण कर सो प्रथम स्वरूपाचरण चारित्र है। सो यह मोक्षमार्ग में कारण है ।। पं. ध./उ./७६४ कर्मादानक्रियारोधः स्वरूपाचरणं च यत् । धर्म: शुद्धोपयोगः स्यात्सैष चारित्रसंज्ञकः ७६४। - जो कर्मों की आसव रूप क्रियाका रोधक है वही स्वरूपाचरण है, वही चारित्र नामधारी है, शुद्धोपयोग है, वही धर्म है। (ला. सं./४/२६३ ) । m * * * * * * २. चारित्रका उदय स्वरूपाचरणमें बाधक नहीं पं.ध./उ./६६०-६६२ कार्य चारित्रमोहस्य चारित्राच्च्युतिरात्मनः । नात्मदृष्टस्तु दृष्टित्वान्न्यायादितरदृष्टिवत् ।६६०। यथा चक्षुः प्रसन्न वै कस्यचिदैवयोगतः। इतरत्राक्षतापेऽपि दृष्टाध्यक्षन्न तक्षतिः ।६६१। कषायाणामनद्रेकश्चारित्रं तावदेव हि । नानुद्रेकः कषायाणां चारित्राच्युतिरात्मनः १६६२न्यायसे तो चारित्रसे आत्माको च्युत करना ही चारित्र मोहका कार्य है किन्तु इतरकी दृष्टिके समान शुद्धात्मानुभवसे च्युत करना चारित्र मोहका कार्य नहीं है। जैसे प्रत्यक्षमें दैवयोगसे किसोको आँख में पीड़ा होनेपर भी किसी दूसरे की आँख प्रसन्न भी रह सकती है। वैसे हो चारित्रमोहसे चारित्रगुणमें विकार होनेपर भी शुद्धारमानुभवकी क्षति नहीं।६६१। निश्चयसे जितना कषायोंका अभाव है उतना ही चारित्र है और जो कषायौंका उदय है वही चारित्रसे च्युत होता है।६६२। * * १ । वैमानिक देवोंके भेद व लक्षण वैमानिक व कल्पके लक्षण । कल्प व कल्पातीत रूप मेद व उनके लक्षण । कल्पातीत देव सभी अहमिन्द्र होते हैं। सौधर्म ईशान आदि भेद। -दे. स्वर्ग/१/२। वैमानिक देव सामान्य निर्देश मोक्ष जानेकी योग्यता सम्बन्धी नियम । * मार्गणा व गुणरथान आदि २० प्ररूपणाएँ-दे. सद। | सत् संख्या क्षेत्र आदि आठ प्ररूपणाएँ। -दे. बह-वह नाम । * | अवगाहना व आयु। -दे. बह-वह नाम । सम्भव कषाय, वेद, लेश्या, पर्याप्ति। -दे. वह-वह नाम । सम्भव कोका बन्ध उदय सत्व। -दे. वह-वह नाम । जन्म, शरीर, आहार, सुख, दुःख आदि। -दे. देव/II/२। | कहाँ जन्मे और क्या गुण प्राप्त करे। -दे. जन्म/६। ३ / वैमानिक इन्द्रोंका निर्देश | नाम व संख्या आदिका निर्देश । २ दक्षिण व उत्तर इन्द्रोंका विभाग। ३ | इन्द्रों व देवोंके आहार व श्वासका अन्तराल । * विमानोंके भेद-वैत्रि.यक व स्वाभाविक -दे. विमान। ४ इन्द्रोंके चिह्न व यान विमान । ५ | इन्द्रों व देवोंकी शक्ति व विक्रिया । वैमानिक इन्द्रोंका परिवार । । १. सामानिक आदि देवोंकी अपेक्षा । २. देवियों की अपेक्षा। इन्द्रोंके परिवार देवोंकी देवियों। इन्द्रोंके परिवार, देवोंका परिवार विमान आदि । वैमानिक दवियोंका निर्देश इन्द्रोंकी प्रधान देवियों के नाम । देवियोंकी उत्पत्ति व गमनागमन सम्बन्धी नियम । * * * अन्य सम्बन्धित विषय १. अल्प भूमिकामें भी कथंचित् शुद्धोपयोग रूप स्वरूपाचरण चारित्र अवश्य होता है। -दे. अनुभव/५ । २. निन्दन गर्हण ही अविरत सम्यग्दृष्टिके स्वरूपाचरण चारित्रका चिह्न है। -दे. सम्यग्दृष्टि/५ । ३. स्वरूपाचरण चारित्र ही मोक्षका प्रधान कारण है। -वे चारित्र/२/२६ ४ लौकिक कार्य करते भी सम्यग्दृष्टिको शान चेतना रहती है। -दे. सम्यग्दृष्टि/२। tư . स्वरूपाभाव-दे. अभाव। स्वरूपासिद्ध-दे. असिद्ध । स्वरूपास्तित्व-दे, अस्तित्व। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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