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हिसा
५३४ ३. व्यवहार हिंसाको कथंचित् गौणता व मुख्यता जाता हूँ वह पुरुष मोही है, अज्ञानी है, और इससे विपरीत है वह बलं श्रद्धीयेत्, दृश्यते तु रज्ज्वादिभिरिणम्। तस्मात् प्रत्यक्षविरोधात ज्ञानी है।२४७१ (यो.सा./अ./४/१२) ।।
मन्यामहे न मन्त्रसामर्थ्य मिति। -हिंसादोषाविनिवृत्तेः ।२५। ... स.सा./आ./२५६/क.१६८ सर्व सदैव नियतं भवति स्वकीयकर्मोदयान्म- नियतपरिणामानिमित्तस्यान्यथा विधिनिषेधासंभवात् ।२६। - रणजीवितदुःखसौख्यम् । अज्ञानमेतदिह यत्त परः परस्य कुर्यात पुमान् प्रश्न-आगम प्रमाणसे प्राणी वध भी धर्म समझा जाता है ? उत्तरमरणजीवितदुखसौख्यम् । = इस लोकमें जीवोंके जो जीवन मरण नहीं, क्योंकि ऐसे आगमको आगमपना ही सिद्ध नहीं है ।१३। यदि दुःख सुख हैं वे सभी सदा काल नियमसे अपने-अपने कर्मके उदयसे हिंसाको धर्मका साधन माना जायेगा तो मछियारे भील आदि होते हैं । ऐसा, होनेपर पुरुष परके जीवन मरण सुख दुःखको करता है सर्व हिंसक मनुष्य जातियों में अविरोधरूपसे धर्म की व्याप्ति चली यह मानना अज्ञान है।
आयेगी।२०। प्रश्न- ऐसा नहीं होता, क्योंकि यज्ञके अतिरिक्त ३. व्यवहार हिंसाकी कथंचित् गौणता व मुख्यता
अन्य कार्यों में किया जानेवाला वध पाप माना गया है। उत्तर
ऐसा भेद नहीं किया जा सकता, क्योंकि हिंसाकी दृष्टिसे दोनों तुल्य १. कारणवश वा निष्कारण भी जीवोंका घात हैं ।२२। प्रश्न-यज्ञके अर्थ ही स्वयम्भूने पशुओंकी सृष्टि की है, अतः हिंसा है
यज्ञके अर्थ वध पापका हेतु नहीं हो सकता ! उत्तर-यह पक्ष असिद्ध
है। क्योंकि पशुओं की सृष्टि ब्रह्माने की है, यह बात अभी तक सिद्ध पु.सि.उ./८०-८६ धर्मो हि देवताभ्यः ८०। पूज्यनिमित्तं घाते ।।
नहीं हो सकी है ।२२। प्रश्न-मन्त्रकी प्रधानताके कारण यह हिंसा बहुसत्त्वधातजनितादशनावरमेकसत्त्वघातोस्थम् ।२। रक्षा भवति निर्दोष है। जिस प्रकार मन्त्रकी प्रधानतासे प्रयोग किया विष मृत्युबहूनामेकैस्य बास्य जीवहरणेन ।...हिंससत्वानाम् ।।३। शरीरिणो
का कारण नहीं उसी प्रकार मन्त्र संस्कार पूर्वक किया पशुवध भी हिंस्रा (८४। बहु दुःखासंज्ञपिताः...दुःविणो।८। सुखिनो हताः सुखिन पाप का हेतु नहीं हो सकता! उत्तर-नहीं, क्योंकि ऐसा माननेपर एव । इति तर्क...सुखिनां घाताय...।६। उपलब्धिसुगतिसाधन- प्रत्यक्ष विरोध आता है-यदि केवल मन्त्र बलसे ही यज्ञवेदीपर समाधि.. स्वगुरोः शिष्येण शिरो न कर्त्तनीयम्।८७ मोक्षं श्रद्धय नैव
पशुओंका घात देखा जाता तो यहाँ मन्त्र बलपर विश्वास किया I परं पुरस्तादशनाय......निजमांसदानरभसादालभनीयो न जाता। परन्तु वह बध तो रस्सी आदि माँधकर करते हुए देखा जाता चात्मापि ८४ा-देवताके अर्थ हिंसा करना धर्म है ऐसा मानकर 1201 है। इसलिए प्रत्यक्षमें विरोध होनेके कारण मन्त्र सामर्थ्य की कल्पना या पूज्य पुरुषों के सत्कारार्थ हिंसा करने में दोष नहीं है ऐसा मानकर उचित नहीं है ।२४। अतः मन्त्रोंसे पशुवध करनेवाले भी हिंसा 1८१ शाकाहारमें अनेक जीवोंकी हिसा होती है और मांसाहारमें दोषसे निवृत्त नहीं हो सकते ।२३। शुभ परिणामोसे पुण्य और अशुभ केवल एककी, इसलिए मांसाहारको भला जानकर ८२॥ हिंसक जीवों
परिणामोंसे पाप बन्ध नियत है, उसमें हेर-फेर नहीं हो सकता। को मार देनेसे अनेकोंकी रक्षा होती है ऐसा मानकर हिंसक जीवोंकी हिंसा ८३। तथा इसी प्रकार हिंसक मनुष्यों की भी।४। दुःखी जीवों
३. खिलौने तोड़ना भी हिंसा है कोदुःखसे छुड़ानेके लिए मार देना रूप हिंसा ।। सुखीको मार देनेसे सा.ध./३/२२ वस्त्रनाणकपुस्तादि न्यस्तजीवच्छिदादिकम् । न कुर्यात्त्यपर भवमें उसको सुख मिलता है, ऐसा समझकर सुखी जीवको मार तपापद्धिस्तद्धि लोकेऽपि गर्हितम् ।२२। -शिकारव्यसनका त्याग देना ।६। समाधिसे सुगतिकी प्राप्ति होती है. ऐसा मानकर समाधिस्थ करनेवाला श्रावक वस्त्र शिका और काष्ठ पाषाणादि शिल्पमें निकाले गुरुका शिष्य द्वारा सिर काट देना।८७। या मोक्षकी श्रद्धा करके ऐसा गये या बनाये गये जीवोंका छेदनादिकको नहीं करे, क्योंकि वखादिककरना ।८८। दूसरेको भोजन कराने के लिए अपना मांस देनेको निज में स्थापित किये गये जीवोंका छेदन भेदन केवल शास्त्र में ही नहीं शरीरका घात करना ।। ये सभी हिंसाएँ करनी योग्य नहीं हैं। किन्तु लोकमें भी निन्दित है। ज्ञा /८/१८, २७ शान्त्यर्थ देवपूजार्थ यज्ञार्थमथवा नृभिः। कृतः प्राणभृतां
४. हिंसक आदि जीवोंकी हिंसा भी योग्य नहीं घातः पातयत्यविलम्बितम् ।१८। चरमन्त्रौषधानां वा हेतोरन्यस्य वा क्वचित् । कृतः सती नरै हिंसा पातयत्यविलम्बितम् ।२७१= अपनी पु.सि.उ./८३-८५ रक्षा भवति बहूनामेकस्यैवास्य जीवहरणेन । इति शान्तिके अर्थ अथवा देवपूजाके तथा यज्ञ के अर्थ जो मनुष्य जीवघात मत्वा कर्तव्यं न हिंसने हिस्रसत्त्वानाम् १८३। बहुसत्त्वघातिनोऽमी करते हैं वह घात भी जीवों को शीघ्र ही नरकमें डालता है ।१८। देवता- जीवन्त उपार्जयन्ति गुरु पापम् । इत्यनुकम्पां कृत्वा न हिंसनीयाः की पूजाके लिए रचे हुए नैवेद्यसे तथा मन्त्र और औषधके निमित्त शरीरिणो हिंसा'४। बहुदुःखासंज्ञपिताः प्रयान्ति त्वचिरेण दुःखअथवा अन्य किसी भी कार्य के लिए की हुई हिंसा जीवोंको नरकमें विच्छित्तिम् । इति वासनाकृपाणीमादाय न दुःखिनोऽपि हन्तव्याः ले जाती है ।२८।
१८५ -एक जीवको मारनेसे बहुतसे जीवोंकी रक्षा होती है, ऐसा २. वेद प्रणीत हिंसा भी हिंसा है
मानकर हिंसक जीवोंका भी घात न करना ।८३। बहुत जीवों के
मारनेवाले यह प्राणी जीता रहेगा तो बहत पाप उपजायेगा इस रा.वा./८/१/१३-२६/५६२-५६४ आगमप्रामाण्यात प्राणिवधो धर्म- प्रकार दया करके भी हिंसक जीवको मारना नहीं चाहिए ।४। यह हेतुरिति चेत; न तस्यागमत्वासिद्धेः ।१३। सर्वेषामविशेष- प्राणी बहुत दुःख करि पीड़ित है यदि इसको मारिये तो इसके सब प्रसङ्गात् ।२०। यदि हिंसा धर्म साधनं मत्स्यबन्ध ( वधक ) शाकुनिक- दुख नष्ट हो जायेंगे ऐसी खोटी बासना रूप तलवार को अंगीकार शौकरिकादीनां सर्वेषामविशिष्टाधर्मावाप्तिः स्यात् ।...यज्ञारकर्मणो- कर दुःखी जीव भी न मारना 11 ऽन्यत्र वधः पापायेति चेत; न; उभयत्र तुल्यत्वात ।२१। 'तादथ्योत सा,ध./२/८१,८३ न हिस्यात्सर्वभूतानीत्याई धर्म प्रमाणयच । सागसोऽपि सर्गस्येति चेत्' ।२२। 'यज्ञार्थ पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयभुवा सदा रक्षेच्छवल्या किं नु निरागसः।। हिंस्रदुःविमुखिप्राणि-घात ( मनुस्मृति/५/१६/इति) इति । अतः सर्गस्य यज्ञार्थत्वात् न तस्य कुर्यान्न जातुचित्। अतिप्रसङ्गश्वभ्राति-सुखोच्छेदसमीक्षणात् । - विनियोक्तुः पापमिति तन्न; किं कारणम् । साध्यत्वात । 'मन्त्र- सम्पूर्ण त्रस स्थावर जीवों में से किसी भी जोबकी हिंसा नहीं करनी प्राधान्याददोष इति चेत; ।२४। यथा विर्ष मन्त्रप्राधान्यादुपयुज्य- चाहिए। इस प्रकारके ऋषि प्रणीत शास्त्रको श्रद्धा पूर्वक माननेवाला मानं न मरणकारणम्, तथा पशुबधोऽपि मन्त्रसंस्कारपूर्वकः क्रिय- धार्मिक गृहस्थ धर्मके निमित्त सदा अपनी शक्ति के अनुसार अपराधी माणो न पापहेतुरिति । तन्न, किं कारणम् । प्रत्यक्षविरोधात् ।...यदि जीवों की रक्षा करे और निरपराधी जीवोंका तो कहना ही क्या है मन्त्रेभ्यो एव केवलेभ्यो याज्ञे कर्मणि पशुन्निपातयन्तः दृश्येर मन्त्र १२ कल्याणार्थी गृहस्थ अति-प्रसंग रूप दोष नरक सम्बन्धी दु:ख
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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