Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 547
________________ २. हेतु निर्देश हेतु ५४० २. हेतु निर्देश नास्त्यत्र समतुलायामुन्नामो नामानुपलब्धेः । यथास्मिन् रहता और सपक्षसे रहित है. वह हेतु केवलव्यतिरेकी है। जैसे---- प्राणिनि व्याधिविशेषोऽस्ति निरामयचेष्टानुपलब्धेः ।८७। अस्त्यत्र जिन्दा शरीर जीव सहित होना चाहिए, क्योंकि वह प्राणादिवाला देहिनि दु.ख मिष्टसंयोगाभावात् ।८। अनेकान्तारमकं वस्त्वेकान्तस्व- है जो-जो जीव 'सहित नहीं होता है बह-बह प्राणादि वाला नहीं रूपानुपलब्धेः १८१) =विधिरूप-१. इस भूतल पर घड़ा नहीं है होता है जैसे लोष्ठ । यहाँ जिन्दा शरीर पक्ष है, जीव सहितत्व साध्य क्योंकि उसका स्वरूप नहीं दीखता १७६) २. यहाँ शिशपा नहीं है, 'प्राणादिक' हेतु है और लोष्ठादिक व्यतिरेकी दृष्टान्त है। .. क्योंकि कोई किसी प्रकारका यहाँ वृक्ष नहीं दीखता ८०1३. यहाँपरजिसकी सामर्थ्य किसी द्वारा रुकीनही ऐसी अग्नि नहीं है, क्योंकि ७. अतिशायन हेतुका लक्षण यहाँ उसके अनुकूल धुआँ रूप कार्य नहीं दीखता है ।८१। ४. यहाँ धुआँ आप्त मी./१/४ दोषावरणयोहानिनिःशेषास्त्यतिशायनात्। क्वचिद्यथा नहीं पाया जाता क्योंकि उसके अनुकूल अग्नि रूप कारण यहाँ नहीं है स्वहेतुभ्यो गहिरन्तरमलक्षयः ।४ - क्वचित् अपने योग्य ताप आदि 1८२1 १. एक मुहूर्त के बाद रोहिणीका उदय न होगा, क्योंकि इस निमित्तोंको पाकर जैसे सुवर्ण की कालिमा आदि नष्ट हो जाती है समय कृत्तिकाका उदय नहीं हुआ 1८३। ६. मुहूर्त के पहले भरणीका उसी प्रकार जीवमें भी कथंचित् कदाचित सम्पूर्ण अन्तरंग व बाह्य उदय नहीं हुआ है क्योंकि इस समय कृत्तिकाका उदय नहीं पाया मलोंका अभाव सम्भव है, ऐसा अतिशायन हेतुसे सिद्ध है। जाता ।८।। ७. इस बराबर पलड़ेवाली तराजू में (एक पतले में ) ऊँचापन नहीं क्योंकि दूसरे पल्ले में नीचापन नहीं पाया जाता ।। ८. हेतुवाद व हेतुमत्का लक्षण प्रतिषेध रूप-१. जैसे इस प्राणी में कोई रोग विशेष है क्योंकि ध, १३/५.५,५०/२८७/५ हिनोति गमयति परिच्छिनत्यर्थमात्मानं चेति इसकी चेष्टा नीरोग मालूम नहीं पड़ती।८७१ २ यह प्राणी दुःखी है प्रमाणपञ्चकं वा हेतुः। स उच्यते कथ्यते अनेनेति हेतुवादः क्योंकि इसके पिता माता आदि प्रियजनों का सम्बन्ध छूट गया है श्रुतज्ञानम् । =जो अर्थ और आत्माका 'हिनोति' अर्थात् ज्ञान ।८८ ३. हरएक पदार्थ नित्य, अनित्य आदि अनेक धर्मवाला है कराता है उस प्रमाण पंचकको हेतु कहा जाता है। उक्त हेतु जिसके क्योंकि केवल नित्यत्व आदि एक धर्म का अभाव है ।। द्वारा 'उच्यते' अर्थात् कहा जाता है वह श्रुतज्ञान हेतुवाद ६. अन्वय व्यतिरेकी आदि हेतुओंके लक्षण कहलाता है। सू. पा./पं. जयचन्द/६/५४ जहाँ प्रमाण नय करि वस्तुकी निबधि सिद्धि न्या. दी./३/६४२-४४/१-१०/१ तत्र पञ्चरूपोपपन्नोऽन्वयव्यतिरेकी। जामें करि मानिये सो हेतुमत है। यथा-'शब्दोऽनिरयो भवितुमर्हति कृतकत्वात्, यद्यत्कृतकं तत्तदनित्य यथा घटः, यद्यद नित्यं न भवति तत्तत्कृतकं न भवति यथाकाशम्, तथा चायं कृतकः, तस्माद नित्य एवेति।' अत्र शब्द पक्षीकृत्यानित्यत्वं साध्यते। तत्र कृतकत्वं हेतुस्तस्य पक्षी कृतशब्दधमत्वात्पक्षधर्मत्व- १. अन्यथानुपपत्ति ही एक हेतु पर्याप्त है मस्ति। सपक्षे घटादौ वर्तमानत्वाद्विपक्षे गगनादाववर्तमानत्वादन्नयव्यतिरे कित्वम् ।।२। पक्षसपक्षवृत्तिविपक्षरहितः केवलान्वयी। सि. वि./मू./४/२३/३६१ सतर्केगोह्यते रूपं प्रत्यक्षस्येतरस्य वा। अन्ययथा- 'अदृष्टादयः कस्यचित्प्रत्यक्षा अनुमेयत्वात्, यद्यदनुमेयं थानुपपन्नत्व हेतोरेकलक्षणम् ।२३। तत्तत्कस्यचित्प्रत्यक्षम, यथान्यादि' इति। अत्रादृष्टादयः पक्षः, सि. वि./टी./२/१५/३४५/२१ विपक्षे हेतुसद्भावबाधकप्रमाणव्यावृत्ती कस्यचित्प्रत्यक्षत्वं साध्यम्, अनुमेयत्वं हेतुः, अग्न्याद्यन्वयदृष्टान्तः हेतुसामध्यमन्यथानुपपत्तरेव । प्रत्यक्ष या आगमादि अन्य प्रमाणों(४३। पक्षवृत्ति विपक्षव्यावृत्तः सपनरहितो हेतुः केवलव्यतिरेकी । के द्वारा ग्रहण किया गया साधन अन्यथा हो नहीं सकता, इस प्रकार यथा-'जीवच्छरीरं सात्मकं भवितुमर्ह ति प्राणादिमत्वात् यद्य ऊहापोह रूप ही हेतु का लक्षण है।२३। प्रश्न-विपक्षमें हेतु के सात्मक न भवति तत्तत्प्राणादिमन्न भवति यथा लोष्ठम्' इति । सद्भाव के बाधक प्रमाणकी व्यावृत्ति हो जानेपर हेतु की अपनी कौन सी अत्र जीवच्छरीरं पक्षः, सात्मकत्वं साध्यम, प्राणादिमत्वं हेतुः. शक्ति है जिससे कि साध्यकी सिद्धि हो सके। उत्तर-यह साधन लोष्ठादिव्यतिरेकदृष्टान्तः॥४४॥ १. जो पाँच रूपोंसे सहित है वह अन्यथा हो नहीं सकता, इस प्रकारको अन्यथानुपपत्तिकी ही अन्वयव्यतिरेकी है। जैसे-शब्द अनित्य है, क्योंकि कृतक है, सामर्थ्य है। जो-जो किया जाता है वह-वह अनित्य है जैसे घड़ा, जो-जो अनित्य न्या. वि./मू./२/१५४/१७७ अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । नहीं होता वह-वह किया नहीं जाता जैसे--आकाश। शब्द नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ।।१५४/- अन्यथा अनुपपन्नत्व के किया जाता है, इसलिए अनित्य ही है। यह शब्द का पक्ष घटित हो जानेपर हेतु के अन्य तीन लक्षण से क्या प्रयोजन और करके उसमें अनित्यता सिद्ध की जा रही है, उस अनित्यताके सिद्ध अन्यथानुपपन्नत्वके घटित न होने पर भी उन तीन लक्षणोंसे क्या करने में किया जाना' हेतु है वह पक्षभूत शब्दका धर्म है। अतः प्रयोजन है ।१७१ उसके पक्षधर्मत्व है। सपक्ष घटादिमें रहने और विपक्ष आकाशादिकमें प. मु/३/६४.६७ व्युहानप्रयोगस्तु तथोपपत्त्यान्यथानुपपत्त्यैव वा ४) न रहनेसे सपक्षसत्त्व और विपक्ष यावृत्ति भी है, हेतुका विषय तारता च साध्यसिद्धिः ।। - व्युत्पन्न पुरुषके लिए तो अन्यथा 'अनित्यत्त रूप साध्य' किसी प्रमाणसे बाधित न होनेसे अबाधित अनुपपत्ति रूप हेनुका प्रयोग ही पर्याप्त है।६४। वे लोग तो उदाहरण विषयत्व ओर प्रतिपक्ष साधन न होनेसे असत्म तिपक्ष भी विद्यमान आदिके प्रयोगके बिना ही हेतुके प्रयोगसे ही व्याप्तिका निश्चय कर है। इस तरह किया जाना हेतु पाँच रूपोंसे विशिष्ट होने के कारण लेते हैं । अन्वयव्यतिरेकी है।४२। २. जो पक्ष और सपक्षमें रहता है तथा बिगलसे रहित है वह केवलान्वयो है। जैसे-अदृष्ट ( पुण्य-पाप ) २. अन्यथानुपपत्तिसे रहित सब हेत्वाभास है आदिक किसी के प्रत्यक्ष हैं, क्योंकि वे अनुमानसे जाने जाते हैं। न्या. वि./मू./२/२०२/२३२ अन्यथानुपपन्नत्वरहिता ये विलक्षणाः । जो-जो अनुमानसे जाने जाते हैं वह यह किसी के प्रत्यक्ष हैं अकिंचित्करान् सर्वान् तात् वयं सं गिरामहे ॥२०२। अन्यथा जैसे अग्नि आदि । यहाँ 'अदृष्ट आदिक' पक्ष है, 'किसीके अनुपपन्नत्वसे शून्य जो हेतुके तीन लक्षण किये गये हैं वे सब प्रत्यक्ष साध्य है परन्तु अनुमानसे जाना जाना हेतु है और अग्नि अकिचित्कर हैं। उन सबको हम हेत्वाभास कहते हैं ।२०२९ (न्या, आदि अन्वय दृष्टान्त है ।४३। ३. जो पक्ष में रहता है, विपक्ष में नहीं वि/म./२/१०४/२१०) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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