________________ परिशिष्ट 544 सिद्ध सेन(गणी) इसके रचयिता के काल तथा नाम का स्पष्ट उल्लेख कहीं उपलब्ध पुराण तथा हरिवंशपुराण में इनकी मुक्त कण्ठ से प्रशसा की है। नहीं है, परन्तु 'महाबन्ध' को ताडपत्रीय प्रति पर लिखा होने से तथा 206 / आ. समन्त भद्र की भांति इनके विषय में भी यह कथा प्रसिद्ध इसके कतिपय उल्लेखो का अवलोकन करने से ऐसा प्रतीत होता है है कि कल्याण मन्दिर स्तोत्र के प्रभाव से इन्होने रुद्र लिग को फाड़कि इसकी रचना सम्भवतः धवलाकार श्री वीरसेन स्वामी के सामने कर राजा विक्रमादित्य (चन्द्रगुप्त द्वि.) को सम्बोधित किया था (ई.७७०-८२७) में अथवा उनके पश्चात् तत्काल ही हो गयी थी। / 207-206 / इसलिये बहुत सम्भव है कि उनके शिष्य श्री जिनसेन स्वामी ने गुरु-आप उज्जैनी मे देवर्षि ब्राह्मण के पुत्र और वृद्धवादि के श्रीपाल. पद्मसेन तथा देवसेन नाम वाले जिन तीन विद्वानों का शिष्य थे। 206 / धर्माचार्य को भी इनका गुरु बताया जाता है नामोल्लेख किया है और इस हेतु से जो उनके गुरु भाई प्रतीत होते / 2071 कृतियें-सन्मति सूत्र, कल्याण मन्दिर स्तोत्र, तथा द्वात्रिं हैं, उनमें से ही किसी ने इसकी रचना की हो / (जै./१/२६२)। शिकाओं में से कुछ इन की हैं / 210 / समय-इनके समय के विषय सप्ततिका-कर्मों के बन्ध उदय सत्त्व विषयक चर्चा करने वाला, में भी मतभेद पाया जाता है / कट्टरपंथी श्वेताम्बर आचार्य इन्हें कुन्दकुन्द से भी पहले वि. श. 1 में स्थापित करते हैं, परन्तु श्वेताश्वेताम्बर आम्नाय का यह ग्रन्थ 70 गाथा युक्त होने के कारण प्राकत म्भर के प्रसिद्ध विद्वान पं. सुखलाल जी मालवणिया आ. पूज्यपाद भाषा में 'सत्तरि' नाम से प्रसिद्ध है। संस्कृत में इसे 'सप्ततिका' भी कहा जा सकता है / 318 / यद्यपि गाथा 1 में इसके रचयिता ने इसे (वि. श. 6 पूर्वार्ध) कृत सर्वार्थ सिद्धि में तथा जैनेन्द्र व्याकरण में इनके कतिपय सूत्र तथा बाक्य उद्धत देखकर इनका काल वि. श.. शिवशर्म सूरि कृत 'शतक' की भांति दृष्टिवाद अग का संक्षिप्त स्यन्द या सार कहा है, तदपि यह उससे भिन्न है, क्योंकि शिस्त्र शम का प्रथम पाद और वि. श. 4 का अन्तिम पाद कल्पित करते हैं सूरि को ही दूसरी कृति 'कर्म प्रकृति के साथ कई स्थलों पर मतभेद / 204 / दिगम्बर विद्वानों में मुख्तारसाहब इन्हें पूज्यपाद (वि. श.६) और अकलंक भट्ट (वि श. 7) के मध्य वि. 625 के आसपास पाया जाता है। 321 / इस पर रचित एक चूणि (दे. कोष / परिशिष्ट) के अतिरिक्त आ. अभय देव सूरि (वि. 1080-1934) तथा स्थापित करते हैं / इस विषय में इनका हेतु यह है कि एक ओर तो आ, मलयगिरि (वि. श. 12) कृत टीकायें भी उपलब्ध हैं। आ. इनके द्वारा रचित सन्मति सूत्र के वाक्य 'विशेषावश्यक भाष्य (वि. जिनभद्र गणी के विशेषावश्यक भाष्य (वि. 650) में क्यों कि 'कर्म 650) में तथा धवला जय धवला (वि.७१३-७६३) में उद्धृत पाये प्रकृति' तथा 'शतक' की भाँति इसकी गाथायें भी उद्धृत हुई मिलती जाते हैं और दूसरी ओर सन्मति सूत्र में कथित ज्ञान तथा दर्शन हैं, इसलिये इसे हम वि. श, 7 के पश्चात् का नहीं कह सकते। उपयोग के अभेदबाद की चर्चा जिस प्रकार अकलंक (वि. श.७) कत जि./१/पृष्ठ)। राजवार्तिक में पाई जाती है उस प्रकार पूज्यपाद (वि.श.६) कृत सर्वार्थ सिद्धि में नहीं पायी जाती/२११ / (ती./२/पृष्ठ)।। सिहरि-तत्वार्थाधिगम भाष्य के वृत्ति कार सिद्धसेन गणी के दादा सिद्धसेन (गणी)-श्वेताम्बर आचार्य थे। मूल आगम ग्रन्थों को गुरु (दे. आगे सिद्धसेन गणी)। ये श्वेताम्बराचार्य मल्लवादी कृत प्राकृत से संस्कृत में रूपान्तरित करने के विचार मात्र से इन्हें एक 'नय चक्र' के वृतिकार माने जाते हैं / 330 / इनकी इस वृत्ति में एक बार श्वेताम्बर संघ से 12 वर्ष के लिये निष्कासित कर दिया गया ओर तो विशेषावश्यक भाष्य (वि. 650) के कुछ वाक्य उद्धृत पाये था। इस काल में ये दिगम्बर साधुओं के सम्पर्क में आये और इन्हीं जाते हैं और दूसरी ओर बौद्धाचार्य धर्म कीति (वि. 622-707) का दिनों उनसे प्रभावित होकर इन्होंने भक्तिपरक द्वात्रिशिकाओं की यहां कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता, जबकि इनके प्रशिष्य सिद्धसेन रचना की। दिगम्बर संघ में इनका प्रभाव बढ़ता देख शोताम्बर संघ गणी ने अपनी 'तत्त्वार्थभाष्य वृत्ति' में उनका पर्याप्त आश्रय लिया ने इनके प्रायश्चित की अवधि घटा दो और ये पुनः श्वेताम्बर संघ है। इसलिये इन्हें हम वि श. 7 के मध्य में स्थापित कर सकते हैं। में आ गए। (ती./२/२१०)। आ. शीलांक (वि. श.९-१०) ने अपनी (जै /2/330-365); (जै./२/३०१) / 'आचारांग सूत्रवृत्ति' में इनका गन्धहस्ती' के नाम से उल्लेख किया सिषि-उपमिति भव प्रपञ्च कथा' के रचयिता एक श्वेताम्बरा- है (दे, गन्ध हस्ती)। यद्यपि श्वेताम्बर लोग इन्हें ही मति सूत्र चार्य / उक्त ग्रन्थ के अनुसार सूर्याचार्य के शिष्य छल महत्तर और का कर्ता मानते हैं, परन्तु मुख्तार साहब की अपेक्षा ये उनसे भिन्न उनके स्वामी दुर्गा स्वामी हुए। इन दुर्गा स्वामी ने ही इनको तथा हैं (दे. सिद्धसेन दिवाकर)। इनके शिक्षा गुरु गर्ग स्वामी को दीक्षित किया था। समय-ग्रन्थ गुरु-तत्त्वार्थाधिगम भाष्य पर लिखित अपनी वृत्ति में आपने अपने को दिन्न गणी के शिष्य सिह सूरि (वि.श.७ का अन्त) सिद्धसेन दिवाकर -दिगम्बर आचार्य-आप दिगम्बर तथा का प्रशिष्य और भास्वामी का शिष्य घोषित किया है (जै./२/३२६) श्वेताम्बर दोनों आम्नायों में प्रसिद्ध है। दिवाकर की उपाधि इन्हें कृतिय-तत्त्वार्थाधिगम भाष्य पर बृहद वृत्ति, न्यायावतार तथा भक्तिपरक कुछ द्वात्रिशि कायें। (ती./२/२६२) समय- एक ओर तो श्वेताम्बराचार्य अभयदेव, सूरि (वि. श. 12) ने सन्मति मूत्र की अपनीटीकामें प्रदान की हैं जो दिगम्बर आम्नाय मे प्राप्त नही है। अन्त) का और अक्लंक. भट्ट (वि.श.७) कृत 'सिद्धि विनिश्चय का दिगम्बर आम्नाय में इन्हें सन्मति सूत्र के साथ-साथ कल्याण मन्दिर उल्लेख उपलब्ध होता है,और दूसरी ओर प्रभावक चारित्र(वि श.८) स्तोत्र जैसे कुछ भक्तिपरक ग्रन्थों के भी रचयिता माना गया है, में आपका नामोल्लेख पाया जाता है, इसलिये आपको वि. श. के जबकि श्वेताम्बर आम्नाय में इन्हें न्यायावतार तथा द्वात्रिशिकाओं पूर्वार्ध में स्थापित किया जा सकता है (जै./२/३३१) / आपके दादाआदि के कर्ता कहा जाता है / 212 / पं.जुगल किशोर जी मुख्तार गुरु सिंहसूरि का काल क्योंकि वि. श. 7 निर्धारित किया जा चुका के अनुसार ये दोनों व्यक्ति भिन्न हैं। द्वात्रिशिकाओं आदि के कर्ता है (दे. इससे पहले सिहसूरि') इसलिये उनके साथ भी इसकी संगति सिद्धसेन गणी हैं जो श्वेताम्बर थे। उनकी चर्चा आगे की जायेगी। बैठ जाती है। पं. सुखलाल जी मालवणिया ने इनके काल की अपरासन्मति सूत्र के कर्ता सिद्धसेन दिगम्बर हैं। आ, जिनसेन ने आदि- बधि वि. श. निर्धारित की है / (जै./१/३६५) / . समाप्त जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org