Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 550
________________ [परिशिष्ट] शतक-इस नाम के दो ग्रन्थ प्राप्त हैं। १. 'कर्म प्रकृति' नामक द्वितीय पूर्व के 'महाकर्मप्रकृति' नामक चौथे प्राभूत का विवेचन श्वेताम्बर ग्रन्थ के बड़े भाई के रूप में प्रसिद्ध इस ग्रन्थ के रचयिता इसमें निबद्ध है (जै./१/६१) । इसका असली नाम क्या था यह आज भी 'कर्म प्रकृति के कर्ता आ. शिवशर्म सूरि (वि.५००) ही बताये ज्ञात नहीं है। जीवस्थान आदि छः खण्डों में विभक्त होने के कारण जाते हैं । गाथा संख्या १०७ होने से इसका 'शतक' नाम सार्थक है, इसका 'षट् खण्डागम' नाम प्रसिद्ध हो गया है । (जै./१/११)। इसके और कर्मों के बन्ध उदय आदि का प्ररूपक होने से 'बन्ध शतक' प्रत्येक खण्ड मे अनेक अनेक अधिकार है । जैसे कि जीवस्थान नामक कहलाता है। ३१३ । दृष्टिवाद अग के अष्टम पूर्व 'कर्म प्रवाद' की प्रथम खण्डमे सत्प्ररूपणा, द्रव्य प्रमाणानुगम आदि आठ अधिकार है। बन्ध विषयक गाथाओं का संग्रह होने से इसे 'बन्ध समास' भी कहा इसके रचयिता के विषय मे धवलाकार श्री वीरसेन स्वामी ने यह जा सकता है । ३१४ गाथा संख्या १०५ में इसे 'कर्म प्रवाद' अग लिखा है कि "आ. पुष्पदन्त ने 'बीसदि' नामक सूत्रो की रचना की, का संक्षिप्त स्यन्द या सार कहा गया है। ३१२ । चूर्णिकार चन्द्रर्षि और उन सूत्रों को देखकर आ. भूतबलि ने द्रव्य प्रमाणानुगम आदि महत्तर ने इसकी उत्पत्ति दृष्टिवाद अंग के 'अग्रणी' नामक द्वि. पूर्व विशिष्ट ग्रन्थ की रचना की"। (ध. १/पृष्ठ ७१) । इस 'अवशिष्ट के अन्तर्गत 'महाकर्म प्रकृति प्राभृत' के 'बन्धन' नामक अष्टम अनु- शब्द पर मे यह अनुमान होता है कि आ. पुष्पदन्त (ई.६६-१०६) योग द्वार से बताई है। ३५८ । इसके पूर्वार्ध भाग में जीव समास, द्वारा रचित 'बीसदि' सूत्र ही जीवस्थान नामक प्रथम खण्ड का गणस्थान, मार्गणा स्थान आदि से समवेत जीवकाण्डका, और अप सत्तरूपणा नामक प्रथम अधिकार है जिसमें बीस प्ररूपणाओ का रार्ध भाग में कर्मों के बन्ध उदय सत्त्व की व्युच्छित्ति विषयक विवेचन निबद्ध है । इस खण्ड के शेष सात अधिकार तथा उनके आगे कर्मकाण्ड का विवेचन निबद्ध है । ३१२ । रचयिता ने अपने कर्म शेष पाँच खण्ड आ. भूतबलि की रचना है। यदि इन दोनों ने आ. प्रकृति' नामक ग्रन्थ में सर्वत्र 'शतक' के स्थान पर 'बन्ध शतक' का धरसेन (बी. नि. ६३०) के पास इस सिद्धान्त का अध्ययन किया है नामोल्लेख किया है ।३१३ । समय-वि. १००। (जै./१/पृष्ठ)। तो इस ग्रन्थ के आदा तीन खण्डों की रचना वी, नि. ६५०(ई. १२३) इसपर अनेकों चूर्णियां लिखी जा चुकी है। (दे. कोष ।। में परिशिष्ट के आसपास स्थापित की जा सकती है (जै./२/१२३) और ये तीन १/चूणि)। खण्ड टीका लिखने के लिये आ. कुन्द कन्द (ई. १२७) को प्राप्त हो २. उपयुक्त ग्रन्थको ही कुछ अन्तरके साथ श्री देवेन्द्र सूरिने सकते हैं। भी लिखा है जिसपर उन्हीं को एक स्वोपज्ञ टीका भी है। समय इन छ' खण्डों में से 'महाबन्ध' नामक अन्तिम खण्ड को छोडवि. श. १३ का अन्त । (ज./१/४३५) । कर शेष ५ खण्डों पर अनेकों टीकायें लिखी गयी हैं। यथा--१. आद्य तीन खण्डों पर आ. कुन्दकुन्द (ई. १२७) कृत 'परिम' टीका। शिवशर्म सूरि-एक प्राचीन श्वेताम्बराचार्य। नन्दीसूत्र आदि के २. आद्य ५ खण्डों पर आ. समन्त भन्द्र (ई. श. २) टीका । कुछ पाठ का अवलोकन करने से अनुमान होता है कि आप सम्भवतः विद्वानों को यह बात स्वीकार नहीं है)। ३. आद्य पांच खंडों पर देवगिणी क्षमाश्रमण से भी पूर्ववर्ती हैं और दशपूर्वधारी भी हैं। आ. शामकुण्ड (ई. श. ३) कृत 'पद्धति' नामक टीका। ४. तम्बूला३०३ । दृष्टिवाद अंग के अशभूत 'महाकर्म प्रकृति प्राभृत' का ज्ञान चार्य (ई. श. ३-४) कृत 'चूड़ामणि' टीका। ५. आ. बप्पदेव इन्हें आचार्य परम्परा से प्राप्त था। उच्छिन्न हो जाने की आशंका से (ई. श ६-७) कृत 'व्याख्या प्रज्ञप्ति टीका। (जै./१/२६३ पर उद्धृत अपने उस ज्ञान को 'कर्म प्रकृति' नामक ग्रन्थ मे निबद्ध कर दिया इन्द्रनन्दि श्रुतावतार)। था। (पीछे 'मन्ध शतक' के नाम से उसी का कुछ विस्तार किया)। सत्कर्म-इन्द्रनन्दि कृत तावतार के अनुसार यह ग्रन्थ षट्वंडागम श्वेताम्बराम्नाय में क्योंकि दृष्टिवाद अग वी. नि. १००० तक के छः खंडों के अतिरिक्त वह अधिक खंड है. जिसे कि आ. जीवित रहा माना जाता है, इसलिये आपको वि. ५०० के आसपास बप्पदेव (ई, श.६-७) कृत उपयुक्त व्यारख्या प्रज्ञप्टि' की टीका के स्थापित किया जा सकता है । ३०४ । (जै./१/पृष्ठ)। रूप में आ. बीरसेन स्वामी (ई.७७०-८२७) ने रचा है। (दे. व्याख्या शभनन्दि रविनन्दि-इन्द्रनन्दी कृत श्रृतावतार श्लोक १७१-१७३ प्रज्ञप्ति)। षट् खंडागम के वर्गणा' नामक पंचम खंड के अन्तिम सूत्र के अनुसार आपको आचार्य परम्परा से षट्खण्डागम विषयक को देशामर्शक मानकर उन्होंने निबन्धनादि अठारह अधिकारों में सिद्धान्तों का ज्ञान प्राप्त था। इनके समीप में श्रवण करके ही आ. विभक्त इसका धवला के परिशिष्ट रूपेण ग्रहण किया है। मुद्रित बप्पदेव ने षटूखण्डागम तथा कषायपाहूड़ पर व्याख्या लिखी थी। षट्वं डागम की १५ वीं पुस्तक में प्रकाशित है। (ती./१/६६): (और प्राचीन श्रुतधरों की श्रेणी में बैठाकर यद्यपि डा. नेमिचन्द ने इन्हें भी दे. आगे 'सत्कर्म पञ्जिका')। बी. नि हाद(ई. श. १) में स्थापित करने का प्रयत्न किया है, सत्कर्म पञ्जिका-धवला के परिशिष्ट रूप से गृहीत 'सत्कम' परन्तु उनकी यह कल्पना इसलिये कुछ संगत प्रतीत नही होती' प्ररूपणा के निबन्धन आदि अठारह योगद्वारों या अधिकारों में से क्योंकि षटवण्डागम के रचयिता आ. भूतनलि के काल की पूर्वावधि प्रथम चार पर रचित यह एक ऐसी टीका है जिसे लेखक'ने स्वयं. वी, नि. ५६३ से ऊपर किसी प्रकार भी ले जायी जानी सम्भव नहीं तथा आचार्यों ने भो 'सु-महार्थ' अथवा 'महार्थ' कहा है। उन-उन है। (दे. कोष //परिशिष्ट २)। अधिकारों की पूरी टीका न होकर यह केवल उन विषयों का पखण्डागम-भगवान महावीर से आचार्य परम्परा द्वारा आगत खुलासा करती है जो कि उन अधिकारों में अतिदूर अत्रगाहित ऋतज्ञान का अश होने से कषायपाहर के पश्चात षट कण्डागम ही प्रतीत होते है। षट्रा डागमके महाबन्ध' नामक षष्टम ख ड की हाड़दिगम्बर आम्नाय का द्वितीय महनीय ग्रन्थ है । अग्रायणी नामक पत्रीय प्रति के आद्य २७ पत्रों पर यह अंकित है । (जै./१/२८४-२६५)। जैनेन्द्र सिमान्तकोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |

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