Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 546
________________ १. भेद व लक्षण . ३. नैयायिक मान्य भेद' न्या. दी./३/९४२/८८/१२ ते मन्यन्ते त्रिविधो हेतुः-अन्वय-व्यतिरेकी, केवलान्वयी, केबलव्यतिरेकी चेति । यायिकोंने हेतुके तीन भेद माने हैं-अन्वयव्यतिरेकी, केवलान्वयी और केवलव्यतिरेकी। ३. असाधारण हेतुका लक्षण श्लो. वा./३/९/१०/३३/५५/२३ यदारमा तत्र व्याप्रियते तदैव तत्कारण नान्यदा इत्यसाधारण हेतुः । नित्य भी आत्मा जिस समय उस प्रमितिको उत्पन्न करने में व्यापार कर रहा है तब ही उस प्रमाका कारण है । इस प्रकार आरमा असाधारण हेतु है। ४. उपलब्धि रूप हेतु सामान्य व विशेषके लक्षण प मु./३/६५-७७ परिणामी शब्दः कृतकरवात, य एवं, स एवं दृष्टो, यथा घटः, कृतकश्चार्य, तस्मात्परिणामी, यस्तु न परिणामी स न कृतको दृष्टो यथा बन्ध्यास्तनं धयः, कृतकश्चार्य तस्मात्परिणामी।६॥ अस्त्यत्र देहिनि बुद्धिाहारादेः ६६। अस्त्यत्र छाया छत्राव ।६७। उदेष्यति कटं कृतिकोदयात् ।६८ उदगाद्भरणिः प्राक्तत एव ।६। अस्त्यत्र मातुलिङ्ग रूपं रसात् ।७०। नास्त्यत्र शीलस्पर्श औष्ण्याद १७२। नास्त्यत्र शीतस्पर्टी धूमात ७३। नास्मिन् शरीरिणि सुखमस्ति हृदयशव्यात् ।७४। नोदेष्यति मुहूर्तान्ते शकटं रेवत्युदयात 1७॥ नोदगाद्भरणिर्मुहूर्तात्पूर्व पुष्योदयात् ७६। नास्त्यत्र भित्तौ परभागाभावोऽग्भिागदर्शनात् १७७।- विधिरूप--१. शब्द परिणामी है क्योंकि वह किया हुआ है, जो-जो पदार्थ किया हुआ होता है वह-वह परिणामी होता है जैसे-घट । शब्द किया हुआ है इसलिए परिणामी है, जो परिणामी नहीं होता वह-वह किया हुआ भी नहीं होता जैसे-बाँझका पुत्र । यह शब्द किया हुआ है, इसलिए वह परिणामी है।६।। २. इस प्राणीमें बुद्धि है, क्योंकि यह चलता आदि है।६६। ३. यहाँ छाया है क्योंकि छायाका कारण छत्र मौजूद है।६७।४, मुहूर्त के पश्चात शकट (रोहिणी) का उदय होगा क्योंकि इस समय कृत्तिकाका उदय है ।६८।५. भरणीका उदय हो चुका क्योंकि इस समय कृत्तिकाका उदय है।६६६. इस मातुलिंग (पपीता) में रूप है क्योंकि इसमें रस पाया जाता है ।७०। प्रतिषेध रूप--१. इस स्थानपर शीतस्पर्श नहीं है क्योंकि उष्णता मौजूद है ।७२। २. यहाँ शीतस्पर्श नहीं है क्योंकि शीतस्पर्श रूप साध्यसे विरुद्ध अग्निका कार्य यहाँ धुंआ मौजूद है ।७३। (प. मु./३/६३).३. इस प्राणीमें सुख नहीं, क्योंकि सुखसे विरुद्ध दुःखका कारण इसके मानसिक व्यथा मालूम होती है ।७४६ ४. एक मुहूर्त के बाद रोहिणीका उदय न होगा, क्योंकि इस समय रोहिणीसे विरुद्ध अश्विनी नक्षत्रसे पहले उदय होनेवाले रेवती नक्षत्रका उदय है ।७५। ५. मुहूर्त के पहले भरणीका उदय नहीं हुआ क्योंकि इस समय भरणीसे विरुद्ध पुनर्वसुके पीछे होनेवाले पुष्यका उदय है ७६। ६. इस भित्तिमें उस ओरके भागका अभाव नहीं है क्योंकि उस ओरके भागके साथ इस ओरका भाग साफ दीख रहा है। , न्या. दी./३/१५२-५६/५५-५६/8 यथा-पर्वतोऽयमग्निमान् धूमवत्त्वान्यानुपपत्तः इत्यत्र धूमः। धूमो ह्यग्नेः कार्यभूतस्तदभावेऽनुपपद्यमा- . नोऽग्नि गमयति । कश्चित्कारणरूपः, यथा-वृष्टिभविष्यति विशिष्टमेघान्यथानुपपत्तेः' इत्यत्र मेघविशेषः । मेघविशेषो हि वर्षस्य कारण स्वकार्यभूतं वर्ष गमयति ।५२। कश्चिद्विशेषरूपः, यथा--वृक्षोऽयं शिंशपात्वान्यथानुपपत्ते रित्यत्र [ शिशपा ) शिशपा हि वृक्षविशेषः । सामान्यभूत वृक्षं गमयति । न हि वृक्षाभावे वृक्षविशेषो घटत इति । कश्चित्पूर्वचरः, यथा--उदेष्यति शकटं कृत्तिकोदयान्यथानुपपत्ते रित्यत्र कृत्तिकोदयः। कृत्तिकोदयानन्तरं मुहूर्तान्ते नियमेन शकटोदयो जायत इति कृतिकोदयः पूर्व चरो हेतुः शकटोदयं गमयति । कश्चि दुत्तरचरः, यथा--उद्गद्भरणिः प्राक् कृत्तिकोदयादित्यत्र कृत्तिकोदयः । कृत्तिकोदयो हि भरण्युदयोत्तरचरस्तं गमयति। कश्चित्सहचर:, यथा मातुलिङ्गरूपवद्भवितुमर्हति रसवत्त्वान्यथानुपपत्ते रित्यत्र रसः। रसो हि नियमेन रूपसहचरितस्तदभावेऽनुपपद्यमानस्तद्गमयति 1५४। स यथा--नास्य मिथ्यात्वम, आस्तिक्यान्यथोपपत्ते रित्यत्रास्तिक्यम् । आस्तिक्यं हि सर्व ज्ञवीतरागप्रणीतजीबादितत्त्वार्थ रुचिलक्षणम् । तन्मिथ्यात्ववतो न संभवतोति मिथ्यात्वाभावं साधयति ५६अस्त्यत्र प्राणिनि सम्यक्त्वं विपरीताभिनिवेशाभावात् । अत्र विपरीताभिनिवेशाभावः प्रतिषेधरूपः सम्यक्त्वसद्भावं साधयतीति प्रतिषेधरूपो विधिसाधको हेतुः ॥५८। नास्त्यत्र घूमोऽग्न्यनुपलब्धेरित्यत्राग्न्यभावः प्रतिषेध रूपो घूमाभाव प्रतिषेधरूपमेव साधयतोति प्रतिषेधरूपः प्रतिषेधसाधको हेतुः। -विधिसाधक-१. कोई कार्यरूप है जैसे यह पर्वत अग्निवाला है, क्योंकि धूमवाला अन्यथा नहीं हो सकता 'यहाँ धूम' कार्यरूप हेतु है। कारण धूम अग्निका कार्य है, और उसके बिना न होता हुआ अग्निका ज्ञान कराता है ।। २. कोई कारण रूप है जैसे-वर्षा होगी, क्योंकि विशेष बादल अन्यथा नहीं हो सकते, यहाँ "विशेष बादल' कारण हेतु है। क्योंकि विशेष बादल वर्षाके कारण हैं और वे अपने कार्यभूत वर्षाका बोध कराते हैं ।५२१ ३. कोई विशेष रूप हैं। जैसे--'यह वृक्ष है', क्योंकि शिशपा अन्यथा नहीं हो सकती; यहाँ 'शिशपा' विशेष रूप हेतु है । क्यों कि शिशपा वृक्षविशेष है, वह अपने सामान्य भूत वृक्षका ज्ञापन कराती है। कारण, वृक्ष विशेष वृक्ष सामान्यके बिना नहीं हो सकता है। ४. कोई पूर्वचर है, जैसे-'एक मुहूर्त के बाद शकट का उदय होगा; क्योंकि कृत्तिकाका उदय अन्यथा नहीं हो सकता। यहाँ कृत्तिकाका उदय' पूर्वचर हेतु है; क्योंकि कृत्तिकाके उदयके बाद मुहूर्तके अन्तमें नियमसे शकटका उदय होता है। और इसलिए कृत्तिकाका उदय पूर्वचर हेतु होता हुआ शकटके उदयको जनाताहै। ५. कोई उत्तरचर है, जैसे- एक मुहूर्त के पहले भरणीका उदय हो चुका है। क्योंकि इस समय कृत्तिकाका उदय अन्यथा नहीं हो सकता' यहाँ कृत्तिकाका उदय उत्तरचर हेतु है । कारण, कृत्तिकाका उदय भरणीके उदयके बाद होता है और इसलिए वह उसका उत्तरचर होता हुआ उसको जानता है। ६. कोई सहचर है, जैसे-'मातुलिंग (पपीता) रूपवान् होना चाहिए, क्योंकि रसवात् अन्यथा नहीं हो सकता', यहाँ 'रस' सहचर हेतु है। कारण रस, नियमसे रूपका सहचारी है और इसलिए वह उसके अभावमें नहीं होता हुआ उसका ज्ञापन कराता है।५४ निषेध साधक-१. सामान्य-इस जीवके मिथ्यात्व नहीं है, क्योंकि आस्तिकता अन्यथा नहीं हो सकती । यहाँ आस्तिकता निषेध साधक है, क्योंकि आस्तिकता सर्वज्ञ वीतरागके द्वारा प्रतिपादित तत्त्वार्थोंका श्रद्धान रूप है, वह श्रद्धान मिथ्यात्यवाले जीवके नहीं हो सकता, इसलिए वह विवक्षित जीवमें मिथ्यात्वके अभावको सिद्ध करता है ।१६। २. विधिसाधक-इस जीवमें सम्यक्त्व है, क्योंकि मिथ्या अभिनिवेश नहीं है। यहाँ मिथ्या अभिनिवेश नहीं है' यह प्रतिषेध रूप है और वह सम्यग्दर्शनके सद्भावको साधता है, इसलिए वह प्रतिषेध रूप विधि साधक हेतु है। ३. प्रतिषेध साधक-'यहाँ धुंआ नहीं है, क्योंकि अग्निका अभाव है 'यहाँ अग्निका अभाव' स्वयं प्रतिषेध रूप है और यह प्रतिषेधरूप हो धूमके अभावको सिद्ध करता है, इसलिए 'अग्निका अभाव' प्रतिषेध रूप प्रतिषेध साधक हेतु है। ५. अनुपलब्धि रूप हेतु सामान्य व विशेषके लक्षण प मु./३/७४- नास्त्यत्र भूतले घटोऽनुपलब्धेः 198। नास्यत्यत्र शिशपावृक्षानुपलब्धेः 1001 नास्त्यत्र प्रतिबद्धसामोऽग्नि मानुपलब्धेः ८१। नास्त्यत्र धूमोऽनग्नेः । ८२१ न भविष्यति मुहूर्तान्ते शकट कृत्तिकोदयानुपलब्धेः ।३। नोदगाद्भरणिमहृतरित्रात्तत एव १८४॥ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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