________________
हिंसा
करिज्ज रुट्ठो ण य करिज्जा | १३६३ | आत्मा हिंसा है और आत्मा ही अहिंसा है ऐसा जिनागममें निश्चय किया है। आमतको अहिसक कहते हैं और प्रमको हिंसक लोके समान क्रोधी मनुष्य प्रथम स्वयं सन्तप्त होता है, तदनन्तर वह अन्य पुरुषको सन्तप्त कर सकेगा अथवा नहीं भी नियमपूर्वक दुखी करना इसके हाथमें नहीं ॥१३६॥ स.सि./ ०/१३/३४२ पर मेरामनामानं हिनस्यात्मा प्रमादवान् । पूत्रं प्राण्यन्तराणां तु पश्चात्स्याद्वा न वा वधः । प्रमादसे युक्त आत्मा पहिले स्वयं अपने द्वारा ही अपना घात करता है इसके बाद दूसरे प्राणियों का वध होवे या मरा हो ( रा. वा. ७/१२/१२/२४१ पर उत
घ. १४/५.६.२३/गा, ६/३० वियोजयति चासुभियुज्यते शिवं च न परोपमर्द परुषस्मृतेर्विद्यते । वधोपनयमभ्युपैति च पराननिघ्नन्नपि स्वायमतिदुर्गमः प्रशम हेतुरुचो तितः ॥ ६॥ कोई प्राणी दूसरों को प्राणोंसे वियुक्त करता है फिर भी वह बन्धसे संयुक्त नहीं होता तथा परोपपासे जिसकी स्मृति कठोर हो गयी है. अर्थात् जो परोपघातका विचार करता है उसका कल्याण नहीं होता । तथा कोई दूसरे जीवों को नहीं मारता भी हिंसकपनेको प्राप्त होता है। इस प्रकार हे जिन ! तुमने यह अति गहन प्रशमका हेतु प्रकाशित किया है।
पु. सि. उ/४६-४७ व्युत्थानावस्थायां रागादीनां वशप्रवृत्तायाम् । farat जीवो मा वा धावश्य ध्रुवं हिंसा ॥४६॥ यस्मात्कषायः सन् हन्त्यात्मा प्रथममात्मनात्मानम् । पश्चाज्जायेत न वा हिंसा प्राण्यन्तराणां तु । ४७॥ - रागादि प्रमाद भावोंके वशसे उठने-बैठने आदि क्रियाओं में, जीव मरो अथवा न मरो निश्चयसे हिंसा है ही ४६ | क्योंकि कषाय युक्त आत्मा पहिले अपने द्वारा अपनेको ही घातता है पीछे अन्य जीवोंका घात हो अथवा न हो । ४७ ॥
-
·
-
Jain Education International
५३३
प्र. सा./त. प्र. / १४६ कदाचित्परस्य द्रव्यप्राणानाबाध्य कदाचिदनाबाध्य स्वस्व भावाणानुपरक्तत्वेन बाधमानो ज्ञानावरणादीनि कर्माणि बताति । = कदाचित् पर द्रव्यके प्राणोंको बाधा करके और कदाचित बाधा नहीं करके अपने भाव प्राणोंको तो उपरक्तपनेके द्वारा बाधा करता हुआ ज्ञानावरणादि कमको ( राग-द्वेषादिके कारण घा ही है।
प्र. सा./ता.वृ./१४६/२११ / १० यथा कोऽपि तप्तलोहपिण्डेन परं हन्तुकामः सन् पूर्व तावदात्मानमेव हन्ति पश्चादन्यधाते नियमो नास्ति, तथायमज्ञानी जीवोऽपि ... मोहादिपरिणामेन परिणतः पूर्व... सन् सरकायशुप्राण हन्ति पचारकाले पर नियमो नास्ति । = जिस प्रकार कोई व्यक्ति तप्त लोहे के गोले द्वारा किसीको मारनेकी कामना रखता हुआ पहले तो अपनेको ही मारता (हाथ जलाता ) है, पीछे अन्यका घात होवे भी अथवा न भी होवे, कोई नियम नहीं । उसी प्रकार यह अज्ञानो जोब भी मोहादि परिणामों से परिणत होकर पहले तो स्वकीय शुद्ध प्राशोंका बात करता है. पश्चात् उत्तर काल में अन्यके प्राण घातका नियम नहीं । अन. घ. /४/२४ प्रमत्तो हि हिनस्ति स्वं प्रागात्मातङ्गतायनात् । परो नुम्रियतां मावा रागाद्या ह्यरयोऽङ्गिनः | २४| = दुष्कर्मोका संचय तथा व्याकुलता रूप दुःखको उत्पन्न करनेके कारण प्रमत्त जीव पहले तो अपना घात ही कर लेता है, दूसरा जीव मरो वा मत मरो । क्योंकि जीयोंके वास्तविक मेरो तो कपाल ही है न कि दूसरोंका
प्राणवध ।
२. अशुद्धोपयोग व कषाय ही हिंसा है
स.सा.वा./२६२ की उत्थानका हिसाध्यवसाय एवं हिंसा अध्यवसाय ही बन्धका कारण है अतः यह हिंसाका अध्यवसाय ही हिंसा है।
२. निश्चय हिंसाकी प्रधानता
प्र. सा./त.प्र./२१६ अशुद्धोपयोगो हि छेदः शुद्धोपयोगरूपस्य श्रामण्यस्य छेदनात् तस्य हिंसनात् स एव च हिंसा । = शुद्धोपयोग रूप श्रामण्यका छेद करनेके कारण अशुद्धोपयोग ही छेद है और उस श्रामण्यका नाश करनेके कारण वह ही हिंसा है। (प्र. सा./त.प्र./ ३१८ ); ( यो. सा. अ./८/२८ ); ( पु. सि. उ. / ४४ ) । पु. सि. उ. / ६४
•
हिंसायाः
अभिमानभयजुगुप्साहास्यरतिशोककानकोपाद्याः । सर्वेऽपि अभिमान, भय, जुगुप्सा, हास्य, रति, शोक, काम, क्रोध आदि हिंसा की है।
1 फ
प्र. सा./ता.वृ./२९०/प्र/२/२१२ / २१ सूक्ष्मरुपातेऽपि यावतशिन स्वस्वभावचलन रागादिपरिणतिभा हिसा सामाशिन अन्धो भवति न च पादसंघट्टनमात्रेण वीतरागी मुनियों को ईर्यासमिति पूर्वक पसते हुए, सूक्ष्म जगतुओंका घात होनेपर भी जितने अंश में स्वस्वभावसे चलन रूप अर्थात् अशुद्धोपयोग रूप रागादि परिणति लक्षणवाली भाव हिंसा है, उतने अंशमें ही बन्ध होता है, केवल पाकीरगढ़ मासे नहीं-न आपारसार/ २ / १० स्वयं हिंसा स्वयमेव हिरानं न तत्पराधीनमिह द्वयं भवेत् । प्रमादहीनोऽत्र भवत्यहिंसकः प्रमादयुक्तस्तु तदैव हिंसकः ||१०| जो स्वयं हिंसा है और स्वयं ही हिंसन है। यह दोनों हिसाव हिंसन व घात पराधीन नहीं है । प्रमाद रहित जीव अहिंसक होता है और प्रमाद युक्त सदैव हिंसक
५.प्र./टी./ २ / १२५ रागावलस्तु निश्चयहिंसा तदपि कस्माद। निश्चयशुप्राणस्य हिंसाकारणा-रागादिककी उत्पत्ति ही निश्चय हिंसा है क्योंकि यह निश्चय शुद्ध चैतन्य प्राणी हिंसाका कारण होनेसे...
1
पं. ध. /उ. / ७५७ सत्तु रागादिभावेषु बन्धः स्यात्कर्मणां बलात् । तत्पा'कादात्मनो दुःखं तत्सिद्धः स्वात्मनो वधः ७५७ रागादि भावों के होनेपर पूर्वक कमौका होता है और उन कमोंके उदयसे आत्माको दुःख होता है इसलिए रागादि भावों के द्वारा अपनी आत्माका वध या हिंसा सिद्ध होती है । ७५७१
।
३. निश्चय हिंसा ही प्रधान है व्यवहार नहीं भ.आ./मू./८०६ जदि सुद्वस्स य बंधो होहिदि बाहिरंगवत्थुजोगेण । गत्थिदु अहिंसगो णाम होदि बायादिवधहेदु । ८०६। यदि रागद्वेष रहित आत्माको भी बाह्य वस्तुके सम्बन्धसे मग्ध होगा तो जगत् में कोई भी अहिंसक नहीं है, ऐसा मानना पड़ेगा, क्योंकि शुद्ध मुनि भी वायुकायादि जीवोंके बधका हेतु है ।
=
घ. १४ / ५, ६,६३/१०/२ जेग विणा जंण होदि चेत्र तं तस्स कारणं । तन्हा अंतरंगाचे एक हिंसा व बहिरंगा ति सिद्धम् । • जिसके बिना जो नहीं होता वह उसका कारण है, इसलिए शुद्ध नयसे अन्तरंग हिंसा ही हिंसा है महिरंग नहीं प्र. सा. प्र. / २१० अशुद्धोपयोगोऽन्तरगच्छेदः बहिरङ्ग: ।... अन्तरङ्ग एव छेदो बलीयान् न पुन पयोग तो अन्तरङ्ग छेद है और परप्राणोंका घात यहाँ अंतरंग छेद ही बलवाद है महिर नहीं अन. ध. /४/२३ रागाद्यसंगतः प्राणव्यपरोपेऽप्यहिंसकः । स्यात्तदव्यपरोपेऽपि हिंस्रो रागादिसंश्रितः। यदि लोक रागादिसे आगिए नहीं है तो प्राणोंका व्यपरोपण हो जानेपर भी यह अहिसक है और यदि रागद्वेषादि कषायों से युक्त है तो प्राणोका वियोग न होनेपर भी हिंसक है।
४. मैं जीवोंको मारता हूँ ऐसा कहनेवाला अज्ञानी है .सा./मू./२४७ जो मणदि हिंसामि य हिंसियामि य परेहिं ससेहिं । सो मूढो अण्णाणी गाणी एत्तो दु विवरीदो | २४७| जो पुरुष ऐसा मानता है कि मैं पर जीवको मारता हूँ और पर जीवों द्वारा मैं मारा
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
परप्राव्य परोपो हिरङ्गः । = = अशुद्धोबहिरंगछेद है ।...
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org