Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 538
________________ हानि हिंसा हानि-१. दो गुणहानि, ड्योढ गुणहानि-दे. गणित/11/६ । षट् गुण हानि वृद्धि-दे. षट् । हार-१. शास्त्रार्थ में हार जीत सम्बन्धी-दे. न्याय/२। २. गणित की भागहार विधिमें जिस राशिसे भाग दिया जाता है सो हार है।-दे. गणित/II १/६। हारित-एक क्रियावादी-दे, क्रियावादी। हारिद्र-सौधर्म स्वर्गका २२ वाँ पटल व इन्द्रक-2. स्वर्ग/५/३। हारी-एक विद्या-दे. विद्या। हार्य-गणितको भागाहार विधि में जिस राशिका भाग किया जाये सो हार्य है। -दे. गणित/II/१/६ । हाव-मुख विकार-दे. विभ्रम । हास्तिन-विजयार्धकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे, विद्याधर । हास्तिविजय-विजयाईकी उत्तर श्रेणीका नगर।-दे. विद्याधर । हिंसाके भेद व लक्षण हिसा सामान्यके भेद । पारितापि आदि हिंसा निर्देश । संकल्पी आदि हिसा निर्देश । असत्यादि सर्व अविरति भाव हिसा रूप है। * आखेट । -दे. आखेट । | सावध योग। -दे. सावद्य। कर्मबन्धके प्रत्ययोंके रूपमें हिसा। -दे. प्रत्यय/१२ । एक समयमें छह कायकी हिसा सम्भव है। हिसा अत्यन्त निन्द्य है। . ७ हिंसकके तपादिक सर्व निरर्थक हैं । " rm निश्चय हिंसाकी प्रधानता स्व हिंसा ही हिंसा है। अशुद्धोपयोग व कषाय हो हिसा है। | निश्चय हिंसा ही प्रधान है व्यवहार नहीं । मैं जीवोंको मारता हूँ ऐसा कहने वाला अशानी है। हास्य-१. हास्य प्रकृतिका लक्षण स.सि./-/8/२८९/१२ यस्योदयाद्धास्याविर्भावस्तद्धास्यम् ।-जिसके उदयसे हँसी आती है वह हास्य कर्म है। (रा. वा./८/६/४/५७४/ १७); (गो. क./जो.प्र./३३/२७) । ध.६/१,६-२४/४७/४ हसनं हासः । जस्स कम्मक्खंधस्स उदएण हस्सणिमित्तो जीवस्स रागो उप्पजइ, तस्स कम्मवखं धस्स हास्सो त्ति सण्णा, कारणे कज्जुवयारादो। =हँसनेको हास्य कहते हैं। जिस कर्म-स्कन्ध के उदयसे जीवके हास्य निमित्तक राग उत्पन्न होता है उस कर्म-स्कन्धको कारणमें कार्य के उपचारसे हास्य संज्ञा है। ध. १३/५.५.६६/३६१/८ जस्स कम्मस्स उदएण अणेयविहो हासो समुप्पज्जदि त कम्म हस्सं णाम । =जिस कर्मके उदयसे अनेक प्रकारका परिहास उत्पन्न होता है वह हास्य कर्म है। wom व्यवहार हिंसाकी कथंचित् गौणता व मुख्यता कारणवश या निष्कारण भी जीवोंका घात हिंसा है। वेद प्रणीत हिला भी हिंसा है। खिलौने तोड़ना भी हिंसा है। हिंसक आदि जीवोंकी हिंसा भी योग्य नहीं। धर्मार्थ भी हिंसा करनी योग्य नहीं। छोटे या बड़े किसीकी भी हिंसा योग्य नहीं। सूक्ष्म भी त्रस जीवोंका बध हिंसा है। -दे. मांस/५ । निगोद जीवको तीव्र वेदना नहीं होती। -दे. वेदना समुद्धात/३ । संकल्पी हिंसाका निषेध। विरोधी हिसाकी कथंचित् आशा । बाध हिसा, हिंसा नहीं। * * * अन्य सम्बन्धित विषय १. हास्य राग है। -दे. कषाय/४। २. हास्य प्रकृतिकी बन्ध उदय सत्त्व प्ररूपणा।-दे. वह वह नाम । ३. हास्य प्रकृतिके बन्ध योग्य परिणाम। -दे. मोहनीय/३/६ । ९ बाप हाहांग-कालका प्रमाण विशेष । - दे. गणित/I/१/४ | हाहा-१. गन्धर्व नामा व्यन्तर जातिका भेद -दे. गन्धर्व । २. कालका एक प्रमाण विशेष । -दे. गणित/1/१/४। ० wom» * निश्चय व्यवहार हिंसा समन्वय निश्चय हिंसाको हिंसा कहनेका कारण । निश्चय हिसाको हिंसा कहनेका प्रयोजन। । व्यवहार हिंसाको हिसा कहनेका प्रयोजन । जीवसे प्राण भिन्न है, उनके वियोगसे हिंसा क्यों । व्यवहार हिसाको न माने तो जीवोंको भरमवत् मल दिया जायेगा। -दे. विभाव/५/५ । हिंसा व्यवहार मात्रसे है निश्चयसे तो नहीं। भिन्न प्राणोंके घातसे न दुःख है न हिंसा। निश्चय व्यवहार हिंसा समन्वय। -दे, हिंसा/४/१। हिगुल-मध्य लोकके अन्तका ग्यारहवाँ सागर व द्वीप । -दे. लोक/५/१। * हसा-स्व व परके अन्तरंग व बाह्य प्राणों का हनन करना हिंसा है। जहाँ रागादि तो स्व हिंसा है और षट् काय जीवों को मारना या कष्ट देना पर हिंसा है। पर हिंसा भी स्व हिंसा पूर्वक होने के कारण परमार्थ से स्व हिंसा ही है। पर निचली भूमिकाकी प्रत्येक प्रवृत्ति में पर हिंसा न करनेका विवेक रखना भी अत्यन्त आवश्यक है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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