Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 536
________________ स्वार्थ ६. अन्य विषयोंके स्वामित्व सम्बन्धी ओघ आदेश प्ररूपणा (ध. १५ / पृष्ठ सं.) विषय सं प्रकृति १ मूलोत्तर प्रकृति- उपशमना संक्रमण २ मूलोसर स्थिति उपममा संक्रमण ३ लोडर अनुभाग उपशमना संक्रमण ४ मूलोत्तर प्रदेश- उपशमना संक्रमण - जघन्योत्कृष्ट " Jain Education International ↑ 11111 भुजगारादि पद २८० २९३-२८४ २८१ २८१-२०४ २८२ २०३-१८४ २८२ २८३-२८४ ज. उ. वृद्धि हानिद ↓ ↓ ↓ ↓ ↓ ↓ स्वामित्व सामान्य २७६ ०. अन्य सम्बन्धित विषय १. पाँचों शरीरको जघन्योत्कृष्ट संघातन परिशातन कृतिके स्वामित्वकी ओषादेश प्ररूपणा - प. खं//सू. ७२/२२१-२४६४ २. पाँच शरीरोंमें बन्धको प्राप्त वर्गणाओंमें व. उ. वित्रसोपव स्वामित्वकी ओघ आदेश प्ररूपणा - (ध. १४ / ५५६-५६२ ) । स्वार्थ स्व. स्तो./मू./३१ स्वास्थ्यं यदात्यन्तिकमेष पंसां स्वार्थी न भोगः परिभङ्गुरात्मा तृशेऽनुषङ्गान्न च तापशान्तिरितीदमाख्यद्भगवान् सुपार्श्वः | ३१। = यह जो आत्यन्तिक स्वास्थ्य है वही पुरुषों का स्वार्थ है. क्षणभंगुर भोग स्थर्य नहीं है, क्योिं विषयसुख सेवनले उत्तरोत्तर की वृद्धि होती है सापकी शान्ति नहीं होती। यह स्वार्थ और अस्वार्थका स्वरूप शोभन पावके धारक भगवान् सुपार्श्वने बताया है |३१| स्या. म. / ३ / १५/२१ तेषां (ज्ञानिनां ) हि परार्थस्यैव स्वार्थत्वेनाभिमतरत्रात् 1 = महात्मा लोग दूसरेके स्वार्थ को अपना स्वार्थ समझते हैं । अन. प. गौममेव सदा कुर्यादार्यः स्वार्थसिद्धये साध्ये विरोधता 1४४| परोपकारको अपेक्षा न करके आत्म कल्याणके लिए निरन्तर मौन धारणा चाहिए। परोपकारका कार्य ऐसा हो जो कि एक अपने द्वारा ही सिद्ध होता हो तो आत्म कवयाण में विरोध न आवे इस तरह बोलना चाहिए |४ | ५२९ २७८ । स्वार्थ प्रमाण दे, प्रमाण/१/२ । स्वार्थानुमान अनुमान /१ - दे. स्वास्तिक- रुचक पर्वतस्थ एक कूट- दे. लोक /७ ॥ स्वास्थ्य - १. स्वास्थ्यका लक्षण स. श. / ३६ यदा मोहात्प्रजायेत रागद्वेषौ तपस्विनः । तदैव भावयेत्स्वस्थमात्मानं शाम्यतः क्षणात् । ३हा - जिस समय तपस्वीके मोहके उदयसे रागद्वेष उत्पन्न हो जावें, उस समय तपस्त्री अपने स्वास्थ्य ( आत्म स्वरूप ) की भावना करे, इससे वे क्षणभर में शान्त हो जाते हैं । भ. ग्रा./बि.१०/१०/१० मन्दरहिता निर्जरा स्वास्थ्यं प्रापयति रा बन्ध सहभाविनीति | =बन्ध रहित निर्जरा ही स्वास्थ्य अर्थात् मोक्ष प्रदान करती है, परन्तु मन्दभाविनो निर्जरा मुक्तिका कारण नहीं । सामायिक पाठ / अमित / २४ न सन्ति बाह्याः मम केचनार्थाः भवामि तेषां न कदाचनाहम् । इत्थं विनिश्चिन्त्य विमुच्य बाह्याः स्वस्थं तदा त्वं भव द्रमुक्तये | २४ | कुछ भी बाह्य पदार्थ मेरे नहीं है, और मैं भी उनका कभी नहीं हूँ। ऐसा सोचकर तथा समस्त बाह्यको छोड़कर, हे भद्र ! तू मुक्ति के लिए स्वस्थ हो जा । = भा० ४-६७ स्वार्थ में संस्तो आरोपयोग ही स्वास्थ्य है। पं. वि. /४/६४ साम्यं स्वास्थ्यं समाधिश्च योगश्चेतो निरोधनम् । शुद्धोपयोग इत्येते भवत्येकार्थ वाचकाः ६४ - साम्य, स्वास्थ्य, समाधि, योग, चित्तनिरोध, और शुद्धोपयोग एकार्थवाची हैं। * अन्य सम्बन्धित विषय १. परम स्वास्थ्यके अपर नाम २. स्वास्थ्यबाधक पदार्थ अभक्ष्य हैं। स्वाहा बा/नि./१०३६/९७६६/२ स्वाहाकारान्ता सहित मन्त्रस्य । जिसके अन्त में स्वाहाकार है, वह विद्या है। मन्त्र स्वाहाकारसे रहित होता है । स्वोदय बंधी प्रकृतियाँ /०/२ स्वोपकार- दे. कार । हरिकान्त [ह] हंस - १. प. प्र./टी./२/१७० अनन्तज्ञानादिनिर्मलगुणयोगेन हंस इव हंस परमात्मा । अनन्तज्ञानादि निर्मल गुण सहित हंसके समान उज्ज्वल परमात्मा हंस हैं । २. परमहंसके अपर नाम-दे. मोक्षमार्ग/२/५ हंसगर्भ-विजयार्थी उत्तर प्रेमीका नगर विद्याधर हड्डी- अस्थि -३ मा २/४६ । भक्ष्याभक्ष्य / १/३ | दे. हत-गणितकी गुणकार विधिमें गुण्य राशिको गुणकार करि हत किया गया कहलाता है । - दे. गणित / II / १/५ । हतसमुपतिक अनुभाग/९/० हत्या - १. दे. हिंसा, २. आत्महत्या दे. मरण / ४ । हनन गणित विधिमें दो राशियों को परस्पर गुणा करना / दे. गणित / II / २ / ५१ हनुमंत चरित्र - शयम (ई. १५०५-१२१२३ भाषा प्रथ हनुमान् -१, मानुषोत्तरपर्वतस्थ वज्रकूटका स्वामी भवनवासी लोक./१०१२. प. पू. / सर्ग / श्लोक पूर्वभव सं. ६ में दमयन्त पाँच में स्वर्ण१०/१४२-१४) चोथेने सिंहबह नामक राजपुत्र ( १७/१५१ ) तीसरे में स्वर्ग में देव ( १७/१५२) दूसरे में सिंहवाहन राजपुत्र ( १७/१५४ ) और पूर्वभव में लान्तव स्वर्ग में देव था ( १७/१६२ ) वर्तमान भवमें पवनंजयका पुत्र था (१७/१६४,३०७) । क्योंकि विमानमें से पाषाण शिलापर गिरनेपर इसने पत्थरको चूर्णचूर्ण कर दिया इसलिए इनका नाम श्रीशैल भी था । ( १७/४०२ ) रामायण युद्धमें रामकी बहुत सहायता की। अन्त में मेरुकी बन्दनाको जाते समय उल्कापातसे विरक्त होकर दीक्षा ले लो ( ११२/७६ ); ( ११३/३२); तथा क्रमसे मोक्ष प्राप्त किया ( १११ / ४४-४५ ) । हरण हनुरुहद्वीप- हनुमानकी माता अंजना के मामा प्रतिसूर्य का राज्य । ( प. पु. / १७/३४६ ) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भरत क्षेत्रकी एक नदी -दे, मनुष्य / ४ । हरिपुरके राजा कार्यका पुत्र था। इसीके नामपर हरिवंशकी उत्पत्ति हुई ( ह. पु. /१५/५७-५८ ) - दे. इतिहास १० / १८ । निषेध पर्वतस्थ एक कूट व उसका स्वामी देव - दे. लोक /५/४ ३. विद्य ुत्प्रभ गजदन्तका एक कूट व उसका रक्षक देव - दे. लोक५ / ४: ४. मान्यवान्पव तस्थ एक कूट व उसकी स्वामिनी देवी ! ६. हरिकांत - १, हरि क्षेत्र में स्थित एक कुण्ड जिसमें से हरिकान्ताद 'निकलती है। -दे, लोक३/१०। २. है मवत पर्वतस्थ एक कूट व उसका स्वामी देवक/५/४ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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