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हिंसा
५३.५
४. निश्चय व्यवहार हिंसा समन्वय
सुखका कारण होनेसे हिंसक दुखी और सुखी प्राणियों के घातको कभी न करे।३।
५. धर्मार्थ भी हिंसा करनी योग्य नहीं प्र.सा./मू./२५० जदि कुणदि कायखेदं वेज्जावच्चत्यमुज्जदो समणो।
ण हवदि हव दि अगारी धम्मो सो सावयणं । -यदि (श्रमण) वैयावृत्ति के लिए उद्यमी वर्तता हुआ छह कायको पीड़ित करे तो वह श्रमण नहीं है । गृहस्थ है, ( क्योंकि ) वह छह कायको विराधना
सहित वैयावृत्त्य है ।२५०॥ इ.उ./१६ त्यागाय श्रेयसे वित्तमवित्तः संचिनोति यः । स्वशरीर स पकेन स्नास्पामीति विलिम्पति १६ जो निर्धन मनुष्य पात्रदान आदि प्रशस्त कार्यों के लिए पुण्य प्राप्ति तथा पाप विनाशके अनेक सावधों द्वारा धन उपार्जन करता है, वह मनुष्य निर्मल शरीरमें पीछे स्नान करके निर्मल होने की आशासे कीचड़ लपेटता है। पु.सि.उ./८०-८१ धर्मो हि देवताभ्यः प्रभवति ताभ्यः प्रदेयमिति सर्वम् ।
इति दुविवेककलिता धिषणां न प्राप्य देहिनो हिस्याः १८०। पूज्यनिमित्तधाते छागादीनां न कोऽपि दोषोऽस्ति । इति संप्रधार्य कार्य चातिथये सत्त्व संज्ञपनम् ८१-देवताको प्रसन्न करनेसे धर्म होता है इसलिए इस लोकमें उस देवताके सब कुछ देने योग्य है । जीवको उनके लिए बलि कर देना धर्म है। ऐसीअविवेक बुद्धि से प्राणी पात योग्य नहीं।८०। अपने गुरुके वास्ते बकरा आदि मारने में कोई दोष नहीं ऐसा मानकर अतिथि के अर्थ जीव वध करना योग्य नहीं। दे.हिंसा ३/१ देवताकी पूजाके लिए जीवधात करना नर कमें डालता है।
६. छोटे या बड़े किसीकी भी हिंसा योग्य नहीं मू.आ./७४८,८०१ वसुधम्मिवि विहरंता पीडंण करेंति कस्सइ कयाई। जीवेसु दयावण्णा माया जह पुत्तभंडेसु ७६८ तणरुवहरिच्छेदणतयपत्तपत्राल कंदमूलाई । फलपुप्फत्रीयघादं ण करिति मुणी ण कारति ०१-सब जीवों के प्रति दयाको प्राप्त सत्र साधु पृथिवीपर विहार करते हुए भी किसी जीवको कभी भी पीड़ा नहीं करते । जैसे माता पुत्रका हित ही करती है उसी तरह सबका हित चाहते हैं 1७६८। मुनिराज तृण, वृक्ष, हरित इनका छेदन, बकुल, पत्ता, कोंपले, कन्दमूल, इनका छेदन, तथा फल, पुष्प बीज इनका घात न तो आप करते हैं, न दूसरों से कराते हैं ।८०१॥
७. संकल्पी हिंसाका निषेध सा.ध./२/२ आरम्भेऽपि सदा हिंसां, सुधीः सांकलियकीं त्यजेत् । धनतोऽपि कर्ष कादुच्चैः, पापोऽनन्नपि धीवरः। -बुद्धिमान मनुष्य खेती आदि कार्यों में भी संकल्पी हिंसाको सदैव छोड़ देवें, क्योंकि असंकल्प पूर्वक बहुतसे जीवोंका घात करनेवाला किसानसे जीवोंको मारनेका संकल्प करके उनको नहीं मारनेवाला भी धीवर विशेष पापी होता है ।। ८. विरोधी हिंसाकी कथंचित् आज्ञा सा.ध./१५ की टोकामें उद्धृत-दण्डो हि केवलो लोकमिम चामच रक्षति । राज्ञा शत्रौ च पुत्रे च यथा दोषसमं धृतः। -पुत्र व शत्र में समता रूपसे क्षत्रियों द्वारा किया गया दण्ड इस लोक और परलोककी रक्षा करता है, यह शास्त्र वचन है ।
९. बाह्य हिंसा, हिंसा नहीं भ.आ./म./८०६ जदि सुद्धस्स य बंधो होहिदि बाहिरगवत्थुजोगेण । णत्थि दु अहिंसगो णाम होदि वायादिवधहेदु ।०६। == यदि रागद्वेष रहित आत्माको भी मात्र बाह्य वस्तुके सम्बन्धसे नन्ध होगा
तो जगत् में कोई भी अहिंसक नहीं, ऐसा मानना पड़ेगा। क्योंकि मुनि भी वायुकायादि जीवोंके वधका हेतु हैं।०६। प्र.सा./म् /२१७ मरदु वा जियदु जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा । पयदस्स णस्थि बंधो हिंसामेत्तेण समिदस्स १२१७४ =जीव मरे या जीये, अप्रयत आचारवालेके हिंसा निश्चित है, प्रयतके समितिवान् के (बहिरंग) हिंसामात्रसे बन्ध नहीं है ।२१७१ (स.सि./७/१३/३५१ पर उधृत); (ध.१४/५,६,६३/गा.२.१०); (रा.बा./७/१३/१२/५४० पर
उद्धृत। प्र.सा./मू./१७/प्रक्षेपक १-२/२६२ उच्चालियम्हि पाए इरियासमिदस्स णिपगमत्थाए। आबाधेज्ज कुलिंग मरिज्जतं जोगमासेज्ज ॥१॥ण हि तस्स तणि मित्तो बंधो सुमो य देसिदो समये । मुच्छापरिग्गहो च्चिय अज्झप्पपमाणदो दिट्ठो ।२१ = ईर्यासमितिसे युक्त साधुके अपने पैरके उठानेपर चलने के स्थानमें यदि कोई क्षुद्र प्राणी उनके पैरसे दब जाये और उसके सम्बन्धसे मर जाये तो भी उस निमित्तसे थोड़ा भी बन्ध आगममें नहीं कहा है क्योंकि जैरे अध्यात्म दृष्टिसे मूर्छाको हो परिग्रह कहा है वैसे यहाँ भी रागादि परिणामोंको हिंसा कहा है । (स.सि./७/१३/३५१/ पर उधृत); (रा.बा.७/१३/१२/
५४० पर उधृत)। स.सि./9/१३/३५१/४ 'प्रमत्तयोगात' इति विशेधणं केवलं प्राणव्यपरोपणं नाधर्मायेति ज्ञापनार्थम् । = केवल प्रागोंका वियोग करनेसे अधर्म नहीं होता, यह बतलाने के लिए सूत्र में 'प्रमत्तयोगसे यह पद दिया है। घ. १४/५.६,६२/६/१२ हिंसा णाम पाण-पाणि वियोगो। तं करताणं
कथम हिंसालक्रवणपंचमहव्वयसंभवो । ण, बहिरंगहिंसाए आसवत्ताभावादो। प्रश्न-प्राण और प्राणियों के वियोगका नाम हिंसा है। उसे करने वाले जोवों के अहिंसा लक्षण पाँच महावत कैसे हो सकते हैं ? उत्तर- नहीं, क्योंकि बहिरंग हिंसा आसव रूप नहीं होती। पु.सि.उ./४५ युक्ताचरणस्य सतो रागाद्यावेशमन्तरेणापि । न हि भवति जातु हिंसा प्राणव्यपरोपणादेव ।४५। -युक्ताचारी सत्पुरुषके रागादि भावो के प्रवेश बिना केवल पर जीवोंके प्राण पीड़ते हो त कदाचित हिंसा नहीं होती है। नि.सा./ता.व./५६ तेषां मृतिर्भवतु वा न बा, प्रयत्न परिणाममन्तरेण __ सावधपरिहारो न भवति। -उन (जीवोंका) मरण हो अथवा
न हो, प्रयत्न रूप परिणामके बिना सावध का परिहार नहीं होता। अन.ध./४/२३ रागाद्यसङ्गतः प्राणव्यपरोपेऽप्यहिसका। स्यात्तदध्यपरोपेऽपि हिस्रो रागादिसंश्रितः ।२३। जीव यदि राग द्वेष मोह रूप परिणामोंसे आविष्ट नहीं है तो प्राणोंका व्यपरोपण हो जानेपर भी अहिंसक है। और यदि रागादि कषायों से युक्त है तो प्राणोंका वियोग न होने पर भी हिंसक है ।
४. निश्चय व्यवहार हिंसा समन्वय १. निश्चय हिंसाको हिंसा कहनेका कारण रा.वा.७/१३/१२/१४०/३३ ननु च प्राणव्यपरोपणाभावेऽपि प्रमत्तयोगमात्रादेव हिंसेष्यते। उक्तं च -1...(प्राणव्यपरोपण निर्देश अनर्थकम्)। नैष दोषः, तत्रापि प्राणव्यपरोपणमस्ति भावलक्षणम् । तथा चोक्तम्-स्वयमेवात्मनात्मानं हिनस्त्यात्मा प्रमादवान् । पूर्व प्राण्यन्तराणां तु पश्चात्स्याद्वा न वा वधः शिइति । एवं कृत्वा यैरुपालम्भः क्रियते-सोऽत्राव काशं न लभते । भिक्षोनिध्यानपरायणस्य प्रमत्तयोगाभावात्। -प्रश्न-प्राणव्यपरोपण के अभाव में भी केवल प्रमत्त योगसे ही हिंसा स्वीकारो गयी है। कहा भी है कि-[ जीव मरो या जीओ अयत्नाचारीके निश्चित रूपमे हिसा है । बाह्य हिंसा मात्रसे बन्ध नहीं होता (दे.हिसा/३/४) अतः सूत्र में 'प्राणव्यपरोपण शब्द व्यर्थ है ।] ? उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि भावलक्षण
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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