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स्वर्ण
स्वर्ण
१. तोलका प्रमाण विशेष । अपरनाम कंस - दे. गणित / I / १ ) : २. विजयार्धकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर - दे. विद्याधर । स्वर्णकूला १ र क्षेत्रकी एक नहीं दे सक/३/१०:२.
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लोक/३/१०३ स्वर्णा कुण्डकी
हैरण्यवद क्षेत्रस्थ एक कुण्ड स्वामिनी देवी दे. लोक/३/१०
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स्वर्णनाभ - विजयार्ध की दक्षिण श्रेणीका एक नगर - दे. विद्याधर । विजयार्ध पर्वतका एक कूट व उसका रक्षक देव - दे.
स्वर्णभद्रलोक/01
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स्वर्ण मध्य सुमेरु पर्वतका अपर नाम - दे. सुमेरु । स्वर्णरेखा
सौराष्ट्र देशमें गिरनार पर्वतसे निकली है। इसके रेत में सोनेका सूक्ष्म अंश अब भी पाया जाता है। सुवरणा नामसे प्रसिद्ध है । ( नेमिचरित प्रस्तावना/प्रेमीजी) |
स्वर्णवती - भरतक्षेत्र के वरुण पर्वतस्थ एक नदी - दे. मनुष्य ४ । स्ववचन बाधित - दे. बाधित
स्ववचन विरोध - दे. विरोध
स्ववशमि. सा./पू./१४६ परिचत्ता परभावं पाकादि निम्म सहाय अप्पयसो सो होदि हू तस्स टु कम्मं भणति आवासे । १४६॥ * जो परभावको त्यागकर निर्मलस्वभाव वाले आत्माको ध्याता है, वह वास्तव में आत्मवश है और उसे आवश्यक कर्म (जिन) कहते हैं । भ. जा./वि./८४/२१० / सम्यस्थ सर्वस्मिन्देवो आत्ममशता स्वा
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आस्ते गच्छति ऐसे ना इहासनादिकरणे इदं मम विनश्यति दिति तदनुरोधता परतता नास्ति संयतस्य सर्वश्र आयता परिह के स्थानसे संयतके यह गुण भी प्राप्त होता है। मुनिके पास कोई परिग्रह न होनेसे में स्वेच्छा से बैठते हैं. जाते हैं. सोते हैं। बैठने उठने में मेरी अमुक वस्तु नष्ट हुई, अमुक वस्तु मेरेको चाहिए इस प्रकारकी चिन्ता उनके नहीं होती ।
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स्वसंवेदन दे अनुभव ।
स्व समय--१. दे. समय २. स्व-समय और पर समय के स्वाध्यायका क्रम - दे. उपदेश / ३ / ४-५१
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स्वस्तिक- १. विदेह क्षेत्रमें स्थित भद्रशाल वनमें एक दिग्गजेन्द्र पर्यंत लोक/२/३२. विद्य भगवन्तस्थ एक फूट. /५/४१ कुण्ड पर्यंतस्थ मनिप्रभ कूटका स्वामी नागेन्द्र देव -- दे. लोक/५/१२८४. रुचक पर्वतस्थ एक कूट- - दे. लोक / ५ / १३१ स्वस्तिमतितप. पु. /११ / लोक क्षीरकदम्बकी स्त्री पर्वत वसुव नारदको गुरुमाता थी (१४) इसनेटका विपरीत समर्थन करनेके लिए राजाको प्रेरित किया था (२६)।
स्वस्त्र - दे. स्त्री / ५
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स्वस्थान अप्रमत्त. स्वस्थान सरवदे, सत्त्व/१ 1 स्वस्थान सन्निकर्ष - दे. सन्निकर्ष । स्वहस्त क्रियाया/३/२ स्वाति
१. एक नक्षत्र - दे. नक्षत्र २ मानुषोत्तर पर्वतस्थ तपनीय कुटका स्वामी भवनवासी गरुड कुमार देव सोक/५/१०१ स्वाति संस्थान के संस्थान | स्वात्मनि क्रिया विरोध - दे, विरोध ।
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स्वाद्य. आ./६४४ सारंति सादियं भणिर्य 1६४४॥ मुखका स्वाद किया जाये, इलायची आदि स्वाद्य कहा है। अन ध./७/१३ स्वाय' ताम्बूलादि पान गुपारी, इलायची आदि तथा अनार, सन्तरा, ककड़ी आदि भक्ष्य पदार्थ स्वाद्य हैं।
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जिससे
ला. सं/२/१६ स्वयं तु भोगार्थ ताम्बूलादि यथागमाद...१६के लिए आगमानुकूल ताम्बूल आदि पदार्थ स्थाय कहलाते हैं। स्वाध्याय-सत्शास्त्रका वाचना, मनन करना, या उपदेश देना आदि स्वाध्याय कहा जाता है जो सर्वोत्तम तप माना गया है । मोक्ष मार्ग में इसका बहुत ऊँचा स्थान है । यथा विधि यथा काल ही स्वाध्याय करना योग्य है । सूर्यग्रहण आदि काल स्वाध्यायके लिए अयोग्य समझे जाते हैं ।
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स्वाध्यायमें विनयका महत्र । --दे, विनय /२/५१ प्रयोजन व अप्रयोजनभूत विषय । ६. चारों अनुयोगोंकी स्वाध्यायका क्रम । निश्चय व व्यवहार विषयक स्वाध्यायका क्रम ।
- उपदेश/१/४-५। स्वपर समय विषयक स्वाध्यायका क्रम ।
-दे, उपदेश / ३ /४-५ ।
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स्वाध्याय निर्देश
स्वाध्याय सामान्यका लक्षण ।
निश्चय स्वाध्यायके अपर नाम दे मार्ग/२/५
स्वाध्याय के भेद |
स्वाध्याय में सम्यक्त्वकी प्रधानता ।
स्तुति आदि परिवर्तन रूप भी स्वाध्याय है।
स्वाध्याय
स्वाध्याय सर्वोत्तम तप है । स्वाध्यायकी अपेक्षा वैयावृत्यकी प्रधानता ।
--दे
स्वाध्यायका लौकिक व अलौकिक फल । स्वाध्यायका फल गुणश्रेणी निर्जरा व संत्रर । स्वाध्यायमें फलेच्छा का निषेध । --दे, राग /४/५-६ । स्वाध्यायका प्रयोजन व महत्त्व ।
पठित ज्ञान के संस्कार साथ जाते हैं। वे संस्कार /१/२ स्वाध्याय विधि
स्वाध्यायमें द्रम्य क्षेत्रादि शुद्धिका निर्देश सुखि स्वाध्याय योग्य काल व उसका विभाजन । स्वाध्याय योग्य कालमें कुछ अपवाद । स्वाध्यायके अयोग्य द्रव्य क्षेत्र काल । अयोग्य द्रव्यादिमें स्वाध्याय करने से हानि ।
५ स्वाध्याय प्रतिष्ठापन व निष्ठापन विधि।
स्वाध्याय प्रकरण में कायोत्सर्गका काल प्रमाण । -- सर्ग १ । स्वाध्याय से शेष बचे समय में क्या करे ।
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-- दे. कृतिकर्म /४/११ ६ विशेष शास्त्रोंके प्रारम्भ व समाप्ति आदिपर उपवासादिका निर्देश ।
नियमित व अनियमित विधि युक्त पढ़े जाने योग्य कुछ ग्रन्थ ।
शास्त्र अवण व पठनके योग्यायोग्य पात्रता कैसे व्यक्तिको कैसा शास्त्र पढ़ना चाहिए। कैसे जीवको कैसा उपदेश दे।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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श्रोता --दे, उपदेश / ३ ।
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