Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 531
________________ स्वाध्याय ५२४ १. स्वाध्याय निर्देश ध, ६/४.१,१/३१ उस हसेणादिगणहरदेवे हि विरइयसहरयणादो दव्वसुत्तादो तप्पढण-गुणणकिरियावावदाणं सध्यजीवाणं पडिसमयमसंखेवेज्जगुणसेढोए पुव्वसचिदकम्मणिज्जरा होदि त्ति। वृषभसेनादि गणधर देवों द्वारा जिनकी शब्द रचना की गयी है, ऐसे द्रव्य सूत्रोंसे उनके पदने और मनन करने रूप क्रियामें प्रवृत्त हुए सब जीवोंके प्रति समय असंख्यात गुणित श्रेणीसे पूर्व संचित कमौकी निर्जरा होती है। ध,६/५.६.१०/२८२/३ किमर्थं सर्वकाल व्याख्यायते । श्रोताख्यातुश्च असंख्यातगुणश्रेण्या कर्म निर्जरणहेतुत्वात् । प्रश्न- इसका सर्वकाल किस लिए व्याख्यान करते हैं -उत्तर-क्योंकि वह व्यारव्याता और श्रोताके असंख्यात गुणी श्रेणी रूपसे होनेवाली कर्म निर्जराका कारण है। सादादिविविहन्तु रसत्यकम्मतिवाणुभागउदएहिं ।३। इंदपडि ददिगिदय तेत्तीसामररसमाणपदिसुहं । राजाहिराजमहराजद्धमंडलिमंडलयाण ४० महमंडलियाणं अद्धचक्किचक्कहरितित्ययरसोक्वं । अट्ठारसमेत्ताणं सामी सेसाणं भत्तिजुताणं ।४। वररयण मउडधारी सेवयमाणाण वत्ति तह अहूँ। देता हवेति राजा जितसत्तू समरसंघठे।४। -त्रिलोक प्रज्ञप्तिग्रन्थके अध्ययनमें, जिनेन्द्रदेवके वचनोंसे उपदिष्ट हेतु, प्रत्यक्ष और परोक्षके भेदसे दो प्रकारका है ॥३५॥ १. प्रत्यक्ष हेतु साक्षात् और परम्पराके भेदसे दो प्रकारका है। अज्ञानका विनाश, ज्ञानरूपी दिवाकरको उत्पत्ति, देव और मनुष्यादिकोंके द्वारा निरन्तर की जानेवाली विविध प्रकारकी अभ्यर्थना, और प्रत्येक समयमें होनेवाली असंख्यात गुणी रूपसे कर्मोंकी निर्जरा, इसे साक्षात् प्रत्यक्ष हेतु समझना चाहिए। और शिष्य-प्रशिष्य आदिके द्वारा निरन्तर अनेक प्रकारसे की जानेवाली पूजाको परम्परा परोक्ष हेतु समझना चाहिए।३६-३८। २. परोक्ष हेतु भी दो प्रकारका है--एक अभ्युदय और दूसरा मोक्ष सुख । सातावेदनीय आदि सुप्रशस्त कमों के तीव्र अनुभागके उदयसे प्राप्त हुआ इन्द्र, प्रतीन्द्र, दिगिन्द्र, त्रायस्त्रिश, व सामानिक आदि देवोंका सुख तथा राजा, अधिराज, महाराज, मण्डलीक, अर्धमण्ड. लोक, महामण्डलीक, अर्धचक्री, चक्रवर्ती और तीर्थकर इनका सुख अभ्युदय सुख है। जो भक्तियुक्त अठारह प्रकारकी सेनाओंका स्वामी है, उत्कृष्ट रत्नोंके मुकुटको धारण करनेवाला है, सेवकजनोंको वृत्ति अर्थात भूमि तथा अर्थ (धन) प्रदान करनेवाला है, और समरके संघर्ष में शत्रुओंको जीत चुका है, वह राजा है।३६-४२। (ध. १/१, १,१/५६/१)। घ. १/१,१,१/गा ४७-५१/१६ भविय-सिद्धांताणं दिणयर कर-णिम्मलं हवइ णाणं । सिसिर-यर कर सिच्छ हवइ चरित्तं स-वस चित्तं ॥४७॥ मेरु व णिक्कंप णठ्ठठ्ठ मलं तिमुढ उम्मुक्कं । सम्मदसणमणुवमसमुप्पज्जइ पवयणभासा ।४८। तत्तो चेव सुहाई सबलाई देवमणुयखयराणं । उम्मूलियछ कम्म फुड सिद्ध-सुहं पि पवयणदो। ४६ जियमोहिंधण-जलणो अण्णाण तमंधयार-दिणयरओ। कम्ममलकलुसपुसओ जिणवयण मित्रोवही सुहओ ।। अण्णाण-तिमिरहरणं सुभविय-हिययारविंद-जोहणयं । उज्जोइय-सयल बद्ध सिद्धतदिवायरं भजह ॥५१॥ -जिन्होंने सिद्धान्तका उत्तम प्रकारसे अभ्यास किया है ऐसे पुरुषों का ज्ञान सूर्य की किरणों के समान निर्मल होता है और जिसने अपने चित्तको स्वाधीन कर लिया है ऐसा चन्द्रमाकी किरणोंके,समान निर्मल चरित्र होता है ।४७ प्रवचनके अभ्याससे मेरुके समान निष्कम्प, आठ मल रहित, तीन मूढता रहित सम्यग्दर्शन होता है।४८। देव, मनुष्य और विद्याधरों के सुख प्राप्त होते हैं और आठ कर्मोके उन्मूलित होनेपर प्रवचनके अभ्याससे विशद सिद्ध सुख भी प्राप्त होता है ।४। जिनागम जीवों के मोहरूपी इंधनको अग्निके समान, अज्ञानरूप अन्धकारके विनाशके लिए सूर्य के समान और द्रव्य व भाव कम के मार्जनके लिए समुद्र के समान है ।५० अज्ञानरूपी अन्धकारके विनाशक भव्यजीवोंके हृदयको विकसित करनेवाले, मोक्षपथको प्रकाशित करनेवाले सिद्धान्तको भजो ॥११॥ १०. स्वाध्यायका प्रयोजन व महत्त्व भ. आ./मू./१०४-१०६ सज्झायं कुबंतो पंचिदियसंवुडो तिगुत्तोय। हवदि य एयग्गमणो विणएण समाहिदो भिक्खू ।१०४॥ जह जह सुदमोग्गाहदि अदिसयरसपसरमसुदपुव्वं तु। तह तह पाहादिज्जदि नवनवसंवेगसड्ढाए ।१०। आयापायविदण्ह दसणणाणतवसंजमें ठिच्चा। विहरदि विसुज्झमाणो जावज्जीव दुणिवकपो ।१०६। -जो साधु स्वाध्याय करता है वह पाँचों इन्द्रियों का संवर करता है, मन आदि गुप्तियों को भी पालनेवाला होता है और एकाग्रचित हुआ विनयकर संयुक्त होता है ।१०४। (मू. आ./४१०) जिसमें अतिशय रसका प्रसार है और जो अश्रुतपूर्व है ऐसे श्रुतका वह जैसे-जैसे अवगाहन करता है वैसे ही वैसे अतिशय नवीन धर्म श्रद्धासे संयुक्त होता हुआ परम आनन्दका अनुभव करता है। (ध, १३/५४५५५०/गा.२१.२२/ २८१) स्वाध्यायसे प्राप्त आत्म विशुद्धिके द्वारा निष्कम्प तथा हेयोपादेयमें विचक्षण बुद्धि होकर यावज्जीवन रत्नत्रयमार्ग में प्रवर्तता है ।१०६। प्र.सा. मू./६, २३२-२३७ जिणसरथादो अढे पञ्चवरवादीहिं बुज्झदो णियमा। खीयदि मोहोवचयो तम्हा सत्यं समधिदब्वं ।८६ एयग्गगदो समणो एयग्गं णिच्छिदस्स अत्थेसु । णिच्छित्ती आगमदो आगमचेट्ठा तदो जेट्ठा ।२३। आगमहीणो समणो णेवप्पाणं पर वियाणादि । अविजाणं तो अछे खवेदि कम्माणि किध भिक्खू ।२३३. आगमचक्रवू साह इंदियचक्खूणि सबभूदाणि । देवा य ओहिचकरबू सिद्धा पुण सबंदो चक्खु ।२३४। सव्वे आगमसिद्धा अत्या गुणपज्जए हिं चित्तेहिं । जाणति आगमेण हि पेच्छित्ता ते वि ते समणा ॥२३॥ आगमपुवा दिट्ठी ण भवदि जस्सेह संजमो तस्स। णस्थीदि भणदि सुत्तं असंजदोहोदि किध समणो ।२३६। ण हि आगमेण सिझदि सहहणं जदि विणस्थि अत्येसु ।२३७। =जिन शास्त्र द्वारा प्रत्यक्षादि प्रमाणों से पदार्थों को जानने वालेके नियमसे मोह समूह क्षय हो जाता है इसलिए शास्त्रका सम्यकप्रकारसे अध्ययन करना चाहिए।८६। (न.च. वृ./३१७ पर उद्धृत)। श्रमण एकाग्रताको प्राप्त होता है, एकाग्रता पदार्थोंके निश्चयवान् के होती है, निश्चय आगम द्वारा होता है, इसलिए आगमके व्यापार मुख्य हैं ।२३२। आगमहीन श्रमण आत्माको और परको नहीं जानता, पदार्थों को नहीं जानता हुआ भिक्षु कर्मोको किस प्रकार क्षय करे ।।२३३। साधु आगम चक्षु हैं, सर्वप्राणी इन्द्रिय चक्षुवाले हैं, देव अवधि चक्षु वाले हैं और सिद्ध सर्वतः चक्षु हैं ।२३४। समस्त पदार्थ विचित्र गुण पर्यायों सहित आगम सिद्ध हैं उन्हें भी वे श्रमण आगम द्वारा बास्तबमें देखकर जानते हैं ।२३५॥ (यो.सा.अ./६/१६-१७) । इस लोक में जिसकी आगम पूर्वक दृष्टि नहीं है उसके संयम नहीं है इस प्रकार सूत्र कहता है, और असं यत वह श्रमण कैसे हो सकता है ।२३६। आगमसे यदि पदार्थोंका श्रद्धान न हो तो सिद्धि नहीं होती।२३७॥ ९. स्वाध्यायका फल गुणश्रेणी निर्जरा व संवर ध. १/१,१,१/१६/३ कर्मणामसंख्यातगुण श्रेणिनिर्जरा केषां प्रत्यक्षेति चेन्न, अवधिमनःपर्ययज्ञानिनां सूत्रमधीयानानां तत्प्रत्यक्षतायाः समुप- । लम्भात् । - प्रश्न-कौंकी असंख्यातगुणित-श्रेणी रूपसे निजरा होती है, यह किनको प्रत्यक्ष है। उत्तर-ऐसी शंका ठीक नहीं है, क्योंकि, सूत्रका अध्ययन करनेवालोंकी असंख्यात गुणित श्रेणी रूपसे प्रतिसमय कर्म निर्जरा होती है, यह बात अवधिज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानियों को प्रत्यक्ष रूपसे उपलब्ध होती है । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551