Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 533
________________ ५२६ स्वाध्याय - स्वामित्व • समधीयानो वक्षणकक्षाद्यमस्पृशन् स्वाङ्गम् । यत्नेनाधीत्य पुनर्यथाश्रुत वाचनां मुञ्चेत् ।१०८। तपसि द्वादशसंख्ये स्वाध्यायः श्रेष्ठ उच्यते सद्भिः । अस्वाध्यायदिनानि ज्ञेयानि ततोऽत्र विद्वद्भिः ॥१०६। पर्वसु नन्दीश्वरवरमहिमादिवसेषु चोपरागेषु । सूर्याचन्द्रमसोरपि नाध्येयं जानता वतिना १९१०। अष्टम्यामध्ययनं गुरुशिष्यद्वयवियोगमावहति । कलह तु पौर्णमास्यां करोति विघ्नं चतुर्दश्याम् ॥१११॥ कृष्णचतुर्दश्यां यद्यधीयते साधनो ह्यमावस्याम् । विद्योपत्रासविधयो विनाशवृत्ति प्रयान्त्यशेषं सर्वे ॥११२। मध्याह्न जिनरूपं नाशयति करोति संध्योाधिम् । तुष्यन्तोऽप्यप्रियतां मध्यमरात्री समपयान्ति ।११३। अतितीवदुःखितानां रुदतां सदर्शने समीपे च । स्तनयित्नुविद्य दभ्रेष्वतिवृष्ट्या उल्कनिर्घाते ।११४। = द्रव्य-यम पटहका शब्द सुननेपर, अंगसे रक्तस्रावके होनेपर, अतिचारके होनेपर तथा दाताओंके अशुद्धकाय होते हुए भोजन कर लेनेपर स्वाध्याय नहीं करना चाहिए ।६६। तिलमोदक, चिउड़ा, लाई और पुआ आदि चिक्कण एवं सुगन्धित भोजनोंके खानेपर तथा दाबानलका धुंआ होनेपर अध्ययन नहीं करना चाहिए ।१७। एक योजनके घेरे में संन्यास विधि, महोपवास विधि, आवश्यकक्रिया एवं केशों का लोंच होनेपर तथा आचार्यका स्वर्गवास होनेपर सात दिन तक अध्ययन करने का प्रतिषेध है। उक्त घटनाओंके एक योजन मात्रमें होनेपर तीन दिन तक तथा अत्यन्त दूर होने पर एक दिन तक अध्ययन नहीं करना चाहिए।८-६६प्राणीके तीव्र दुःखसे मरणासन्न होनेपर या अत्यन्त वेदनासे तड़फड़ानेपर तथा एक निवर्तन (एक बीघा) मात्रमें तिर्यचौंका संचार होनेपर अध्ययन नहीं करना चाहिए।१००। २. क्षेत्र-उतने मात्र स्थावर काय जीवोंके घात रूप कार्य में प्रवृत्त होनेपर, क्षेत्रकी अशुद्धि होनेपर, दूरसे दुर्गन्ध आनेपर अथवा अत्यन्त सड़ी गन्धके आनेपर, ठीक अर्थ समझमें न आनेपर (1) अथवा अपने शरीरसे शुद्धिसे रहित होनेपर मोक्ष सुखके चाहनेवाले व्रती पुरुषको सिद्धान्तका अध्ययन नहीं करना चाहिए ।१०१-१०२। व्यन्तरोंके द्वारा भेरी ताड़न करनेपर, उनकी पूजाका संकट आनेपर, कर्षणके होनेपर, चाण्डाल बालकों के समीप झाड़ा-बुहारी करनेपर, अग्नि, जल व रुधिरकी तीव्रता होनेपर, तथा जीवोंके मांस व हड्डियों के निकाले जानेपर क्षेत्रकी विशुद्धि नहीं होती ।१०५-१०६। ३. काल--साधु पुरुषोंने बारह प्रकारके तपमें स्वाध्यायको श्रेष्ठ कहा है। इसलिए विद्वानों को स्वाध्याय न करने के दिनों को जानना चाहिए ।१०।। पर्वदिनों, नन्दीश्वरके श्रेष्ठ महिम दिवसों और सूर्य, चन्द्र ग्रहण होनेपर विद्वान् वतीको अध्ययन नहीं करना चाहिए ।११०। अष्टमी में अध्ययन गुरु और शिष्य दोनों का वियोग करनेवाला होता है। पूर्णमासीके दिन किया गया अध्ययन कलह और चतुर्दशीके दिन किया गया अध्ययन विघ्नको करता है ।१०। यदि साधुजन कृष्ण चतुर्दशी और अमावस्याके दिन अध्ययन करते हैं तो विद्या और उपवास विधि सब विनाशवृत्तिको प्राप्त होते हैं ।१०८ मध्याह्न कालमें किया गया अध्ययन जिन रूपको नष्ट करता है, दोनों सन्ध्या कालोंमें किया गया अध्ययन ब्याधिको करता है, तथा मध्यम रात्रिमें किये गये अध्ययनसे अनुरक्त जन भी द्वेषको प्राप्त होते हैं ।११३। अतिशय तीव दु.खसे युक्त और रोते हुए प्राणियोंका देखने या समीपमें होने पर, मेधोंकी गर्जना व बिजली के चमकनेपर और अतिवृष्टि के साथ उल्कापात होनेपर (अध्ययन नहीं करना चाहिए)।११४। (और भी दे. काल/१/१०)। ४: अयोग्य द्रव्यादिमें स्वाध्याय करनेले हानि घ.६/४,१,५४/गा, ११६/२५६ दव्वादिवदिक्कमणं करेदि सुत्तरथसिक्खलोहेण । असमाहिमसज्झायं कलहं वाहि वियोगं च ।११३। = सूत्र और अर्थ की शिक्षा लोभस किया गया द्रव्यादिका अतिक्रमण असमाधि अर्थात् सम्यक्त्वादिको विराघना, अस्वाध्याय अर्थात अलाभ, कलह, व्याधि और वियोगको करता है ।११।। ५. स्वाध्याय प्रतिष्ठापन व निष्ठापन विधि ध १/४,१,५४/गा. १०७-१०८/२५६ क्षेत्रं संशोध्य पुनः स्वहस्तपादौ विशोध्य शुद्धमनाः। प्राशुकदेशावस्थो गृह्णीयाद् वाचन पश्चात ।१०७१ युक्त्या समधीयानो वक्षणकक्षाद्यमस्पृशत् स्वाङ्गम् । यत्नेनाधीत्य पुनर्यथाश्रुतं वाचनां मुञ्चेत् ।१०८। क्षेत्रकी शुद्धि करनेके पश्चात अपने हाथ और पैरोंको शुद्ध करके तदनन्तर विशुद्ध मन युक्त होता हुआ प्रासुक देशमें स्थित होता हुआ वाचनाको ग्रहण करे ।१०७। बाजू और कांख आदि अपने अंगका स्पर्श न करता हुआ उचित रोतिसे अध्ययन करे और यत्नपूर्वक अध्ययनके पश्चात शास्त्र विधिसे वाचनाको छोड़ दे ।१०८१ दे. कृतिकर्म/४/३ [स्वाध्यायका प्रारम्भ दिन और रात्रिके पूर्वाह्न, अपराह्न चारों ही वेलाओं में लधु श्रुत भक्ति, और आचार्य भक्तिका पाठ करके करना चाहिए, नियत समय तक स्वाध्याय करके लघु श्रुतभक्ति पूर्वक निष्ठापना करनी चाहिए। ये .सब पाठ योग्य कृतिकम सहित किये जाते हैं। ६. विशेष शास्त्रोंके प्रारम्भ व समाप्तिपर उपवासादि का निर्देश मू. आ./२८० उद्देस समुद्दे से अणुणापणए अ होति पंचेव। अंगसुदर्खध झेणुवदेसा विय पविभागीय (२८० बारह अंग चौदह पूर्व वस्तु प्राभृत-प्राभृत इनके पाद विभागके प्रारम्भमैं वा समाप्तिमें बा गुरुओं की अवज्ञा होनेपर पाँच-पाँच उपवास अथवा प्रायश्चित्त अथवा कायोत्सर्ग कहे हैं ।२८०। ७. नियमित व अनियमित विधि युक्त पढ़े जाने योग्य कुछ शास्त्र मू. आ./२७७-२७४ सुत्त गणधरकधिदं तहेब पत्त्य बुद्धिकथिदं च। सुदकेवलिणा कधिदं अभिण्णदसपुबकधिदं च ।२७७। तं पढिदुमसज्झाये णो कप्पदि विरद इत्थिवग्गस्स। एत्तो अण्णो गंथो कप्पदि पढिनु' असज्झाए ।२७८। आराहणणिजुत्ती मरणविभत्ती य संगहत्थुदिओ। पच्चक्वाणावासयधम्मकहाओ य एरिसओ ।२७१। - अंग पूर्व वस्तु प्राभृत रूप सूत्र गणधर कथित श्रुतकेवली कथित अभिन्न दशपूर्व कथित होता है ।२७७१ वे चार प्रकारके सूत्र कालशुद्धि आदिके बिना संयमियोंको तथा आर्यिकाओंको नहीं पढ़ने चाहिए। इनसे अन्य ग्रन्थ कालशुद्धि आदिके न होनेपर भी पढ़ने योग्य माने गये हैं ।२७८। सम्यग्दर्शनादि चार आराधनाओंका स्वरूप कहनेवाला ग्रन्थ, सत्रह प्रकारके मरणको वर्णन करनेवाला ग्रन्थ, पच संग्रहग्रन्थ, स्तोत्र ग्रन्थ, आहारादिके त्यागका उपदेश करनेवाला ग्रन्थ, सामायिकादि छह आवश्यकोंको कहनेवाला ग्रन्थ, महापुरुषोंके चारित्रको वर्णन करनेवाला ग्रन्थ कालशुद्धि आदि न होनेपर भी पढ़ना चाहिए। स्वानुभव-दे. अनुभव । स्वानुभव दपण-आ. योगेन्दुदेव (ई. श.६) द्वारा विरचित अध्यात्म विषयक प्राकृत गाथा बद्ध ग्रन्थ है। इसमें १०६ गाथाएँ हैं। स्वामित्व-१. स्वामित्वका लक्षण स. सि./१/७/२२/३ स्वामित्वमाधिपत्यम् । स. सि./१/२५/१३२/४ स्वामी प्रयोक्ता।- स्वामीका अर्थ अधिष्ठाता है (रा. वा./९/0/-/३८/२).(अवधि व मनःपर्यय ज्ञानके अर्थ में ) स्वामीका अर्थ प्रयोक्ता है (रा. वा./१/२५/-1८६/६) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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