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स्वाध्याय
२. स्वाध्याय विधि
र. सा./६१,६५ पवयण सारभास परमप्पाज्झाणकारणं जाणं । कम्म- पखवणणि गित्तं कम्मरखवणेहि मोक्रवसोक्वं हि ।। अज्झयणमेव माणं प चेदियणि हं कसायं पि। तत्ते पंचमकाले पक्यणसारन्भासमेव कुज्जा हो।१५। -प्रवचनके सारका अभ्यास ही परब्रह्म परमात्माके ध्यान का कारण है। विशुद्ध आत्माके स्वरूपका ध्यान हो कर्मोंका नाश व मोक्षसुख की प्राप्तिका प्रधान कारण है ।११। प्रवचनसार (जिनागम) का अभ्यास पठन-पाठन और वस्तुविचार ही ध्यान है। उसीसे इन्द्रियोंका निग्रह, मनका वशीकरण व कषायोंका उपशम होता है। इस पचम काल में जिनागमका अभ्यास करना ही जिनागम
द.पा./म् /१७ जिगबयणमोसहमिणं विसयसुहविरेयणं अमिदभूयं । जरमरणवाहिहरणं खयकरणं सव्य दुक्खाण । -यह जिनवचन रूप औषधि इन्द्रिय विषयसे उत्पन्न सुखको दूर करनेवाला है। तथा जन्म-मरण रूप रोगको दूर करनेके लिए अमृत सदृश है और सर्व दुःखोंके क्षयका कारण है ।११ सू.पा./न./३ सत्तुम्गि जाणमाणो भवस्स भवणासणं च सो कुणदि । सूई जहा समुत्ता णासदि सुत्ते सहा णो वि ।३। -जो पुरुष सूत्रका जानकार है वह भवका नाश करता है, जैसे राई डोरे सहित हो तो नष्ट नहीं होती, यदि डोरेसे रहित हो तो नष्ट हो जाती है। स.सि./६२५/४४३/६ प्रज्ञातिशयः प्रशस्ताध्यवसायः परमसंवेगस्तपो
वृद्धिरतिचारविशुद्धिरित्येवमाद्यर्थः। -प्रज्ञामें अतिशय लानेके लिए, अध्यवसायको प्रशस्त करनेके लिए, परम संवेगके लिए, तप वृद्धि व अतिचार शुद्धिके लिए, (संशयोच्छेद व परवादियोंकी शंकाका अभाव रा.वा.) आदिके लिए स्वाध्याय तप आवश्यक है। ( रा.वा./६/२५/६/६२४/२०) । ति.प./१/५१ कणयधराधरधीरं मूढत्तयविर हिदं हयमलं । जायदि
पवयणपढणे सम्मदसणमणुवसाणं ॥५१॥ - प्रवचन अर्थात् परमागमके पढनेपर सुमेरु पर्वतके समान निश्चल लोय मूढता, देवमूढता. गुरुमूढतासे रहित, शंका आदि आठ दोषोंसे युक्त अनुपम सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। दे. स्वाध्याय/१/- में ध./१ जिनागम जीवोंके मोहरूपी ईधनके जलानेके लिए अग्निके समान, अज्ञानको विनाशके लिए सूर्यके समान, तथा कर्मोके मार्जनके लिए समुद्र के समान है। न.च.व./३६४ पर उद्धृत व ३४८ दध्वसुयादो भाव भावदो होइ सव्वसण्णाणं । संवेयणसं वित्ति केवलणाणं तदो भणियो ।। गहिओ सो सुदणाणे पच्छा संवेगणेण झायव्यो। जो णहू सुदमधलंबई सो मुज्झह अप्पसभावे ।३४८-द्रव्यश्रुतसे भावशूत होता है फिर क्रमसे सम्यग्ज्ञान, संवेदन, आत्म संवित्ति, तथा केबलज्ञान होते हैं, ऐसा कहा गया है। (न.च./२६७) श्रुतज्ञानको ग्रहण करके पश्चात् आत्म-संवेदनले ध्याना चाहिए। जो श्रुतज्ञानका अवलम्बन नहीं लेता वह आत्म सद्भावमे मोह करता है ।३४८। स.सा./आ./२७४ स किल गुणः श्रुताध्ययनस्य द्विविक्तवस्तुभूतज्ञानमयात्मज्ञानम् । -जो भिन्न बस्तु भूत ज्ञानमय आत्माका ज्ञान वह
शाख पठनका गुण है। आ.अनु./१७० अनेकान्तात्मार्थ प्रसवफलभारातिबिनते वचःपर्णाकीर्ण विपुलनयशाखाशतयुते । समुत्तुड्गे सम्यक्प्रततमतिमूले प्रतिदिन श्रुतस्कन्धे धीमान रमयतु मनोमर्कटममुम् ॥१७०। - जो श्रुतस्कन्ध रूप वृक्ष अनेक धर्मात्मक पदार्थ रूप फूल एवं फलोंके भारसे अतिशय झुका हुआ है. वचनों रूपी पत्तोंसे व्याप्त है, विस्तृत नयों रूप सैकड़ों शाखाओंसे युक्त है, उन्नत है, तथा समीचीन एवं विस्तृत मतिज्ञान रूप जड़से स्थिर है, उस श्रुत स्कन्ध रूप वृक्षके ऊपर बुद्धिमान साधुके लिए अपने मनरूपी बन्दरको सदा रमाना चाहिए।
प.प्र./टी./२/१६१ निजशुद्धात्मैवोपादेय इति मत्वा तत्परिज्ञानसाधक
च पठति तदा परम्परया मोक्षसाधकं भवति । - जो निज शुद्धात्माको उपादेय जानकर, ...ज्ञानकी प्राप्तिका उपाय जो शास्त्र, उनको पढ़ता है, तो परम्परा मोक्षका साधक होता है। २. स्वाध्याय विधि १. स्वाध्याय योग्य काल व उसका विभाजन दे कृतिकर्म/४/१ प्रात' का स्वाध्याय सूर्योदयसे दो घड़ी पश्चात प्रारम्भ करके मध्याह्नमें दो घड़ी बाको रहनेपर समाप्त कर देना चाहिए। अपरालका स्वाध्याय मध्याह्नके दो घड़ी पश्चातसे प्रारम्भर सूर्यास्तसे दो घड़ी पूर्व समाप्त कर देना चाहिए। यही क्रम पूर्व रात्रिक ब वैरात्रिक स्वाध्यायमें अपनाना चाहिए। ध.६/४,१,५४/गा. १११-११४/२५८ प्रतिपद्यकः पादो ज्येष्ठा मूलस्य पौर्णमास्यां तु। सा वाचना विमोक्षे छाया पूर्वाह्नवेलायाम् ॥११॥ सैवापराह्नकाले वेला स्याद्वाचनाविधौ विहिता। सप्तपदी पूर्वाद्वापराहयोर्ग्रहण-मोक्षेषु ।११२। ज्येष्ठामूलात्परतोऽप्यापौषादद्वयङगुला हि वृद्धिः स्यात् । मासे मासे विहिता क्रमेण सा वाचनाछाया ।११३॥ एवं क्रमप्रवृद्धचा पादद्वयमत्र होयते पश्चाद। पौषादाज्येष्ठान्ताद द्वचङ्गुलमेवेति विज्ञेयम् ।११४। - ज्येष्ठ मासकी प्रतिपदा एवं पूर्णमासीको पूर्वाह्नकालमें वाचनाकी समाप्तिमें एक पाद अर्थात् एक वितस्ति प्रमाण (जाँघोंकी) वह छाया कही गयी है अर्थात् इस समय पूर्वाह्न काल में बारह अंगुल प्रमाण छायाके रह जानेपर अध्ययन समाप्त कर देना चाहिए।११११ वही समय अपराह्न कालमें वाचना प्रारम्भ करने में कहा गया है। पूर्वाह्न काल में बाचना प्रारम्भ करके अपराह्न कालमें उसे छोड़ने में सात पाद प्रमाण छाया कही गयी है १११२ ज्येष्ठ माससे आगे पौष मास तक प्रत्येक मासमें दो अंगुल प्रमाण वृद्धि होती है, यह कमसे वाचना समाप्त करनेकी छायाका प्रमाण कहा गया है ।११३। इस प्रकार क्रमसे वृद्धि होनेपर पौष मास तक दो पाद हो जाते हैं। पश्चात् पौष माससे ज्येष्ठ मास तक दो अंगुल ही क्रमशः कम होते जाते हैं, ऐसा जानना चाहिए ।११४॥ (और भी दे.काल/१/१०)।
२. स्वाध्याय योग्य काल में कुछ अपवाद भ.आ./म./२०५२/१७८४ वायणपरियट्टणपुच्छणाओ मोसूण तध य
धम्मथुर्दि। सुत्तस्स पोरिसीसि बि सरेदि मुत्तत्थ मेयमणो ।२०५२। - ( सल्लखना गत साधु ) वाचना, पृच्छना, परिवर्तना व धर्मोपदेशको छोड़कर सूत्र और अर्थका एकाग्रतासे स्मरण करते हैं। अथवा दिनका पूर्व, मध्य, अन्त तथा अर्धरात्रि ऐसे चार समयों में तीर्थकरोंको दिव्य ध्वनि विरती है। ये काल स्वाध्यायके नहीं हैं, परन्तु ऐसे समयों में भी वे अनुप्रेक्षात्मक स्वाध्याय करते हैं। ३. स्वाध्यायके अयोग्य द्रव्य क्षेत्र काल ध.६४,१.५४/गा.६६-१९४/२५५-२५७ यमपटहरयश्रवणे रुधिरसावे - ऽङ्गतोऽतिचारे च । दातृष्वशुद्धकायेषु भुक्तवति चापि नाध्येयम् ।६६। तिल पलल-पृथुकलाजापूपादिस्निग्धसुरभिगन्धेषु । भुक्तेषु भोजनेषु च दवाग्निधूमे च नाध्येयम् ।१७। योजनमण्डलमात्रे संन्यासविधौ महोपवासे च । आवश्यकक्रिया केशेषु च लुच्यमानेषु ।। सप्तदिनान्यध्ययन प्रतिषिद्ध' स्वर्गगते श्रमण सूरी। योजनमात्रे दिवसत्रितयं वंतिदूरतो दिवसम् ।। प्राणिनि च तीबदुःखाम्रियमाणे स्फुरति चातिवेदनया । एक निवर्तनमात्रे तिर्यच चरम च न पाठ्यम् (१००। तावन्मात्रे स्थावरकायक्षयकर्मणि प्रवृत्ते च। क्षेत्राशुद्धौ दुर्गन्धे बातिकुण पे वा ।१०१। विगतार्थागमने वा स्व शरीरे शुद्धिवृत्तिविरहे वा। नाध्येयः सिद्धान्तः शिवसुरवफलमिच्छता प्रतिना ।१०२१ । प्रमिति-व्यन्तरभेरीताडन-तत्पूजासकटे कपणे वा / संरक्षण-समाजनसमीपचाण्डाल बालेषु ।१०५॥ अग्निजलरुधिरदीप मांसास्थिप्रजनने तु जीवानाम् । क्षेत्रविशुद्धिर्न स्याद्यथोदितं सर्वभावः ।१०६। युक्त्या
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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