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स्वर्ग
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५. स्वर्गलोक निर्देश
५. स्वर्गों में विमानोंकी संख्या
१.१२ इन्द्रोंकी अपेक्षा (ति. प/८/१४६-१७७+ १८६): (रा. वा/४/१६/८/-२२/२६+२३३/२४);
(त्रि. सा/४५६-४६२+ ४७३-४७६)।
६.विमानोंके वर्ण व उनका अवस्थान (ति.प./८/२०३-२०७); (रा. वा/४/१/१२३४/३), (ह. पु/६/85
१००); (त्रि. सा./४८१-४८२)।
कल्पका नाम
| इन्द्र क श्रेणीबद्ध प्रकीर्णक कुल योग,
सं. व असं "योजन युक्त
नाम
ईशान
.
"
१ सौधर्म २. ईशान ३/ सनत्कुमार ४ माहेन्द्र
३१ | ४३७१ ३१६५५६८ ३२ लाख
१४५७, २७६८५४३ २८ लाख ५८८ | ११६६४०५ ९२ लाख
७६६८०४ ८लाख ३६६६३६ | ४ लाख ४६८४२ ५०,००० ३६१२७ १४०,००० १६३१ ६,०००
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कल्पका वर्ण । आधार कपका वर्ण । आधार सौधर्म , पंच वर्ण, महाशुक्र, श्वेत व जल व घन वात सहसार, हरितवायु
। दोनों सनत्कु., कृष्ण ) केबल- आनतादि) ). शुद्ध माहेन्द्र रहित ४ । पवन । चार श्वेत आकाश
जलवा कृ. नील वायु ग्रैवेयक लान्तव, रहित ३ | दोनों | आदि " " ,
६ लान्तव ७महाशुक्र ८ सहस्रार ६ आनतादि चार १० अधो गै. ११ मध्य प्रै. १२ ऊर्ध्व प्रै. १३ अनुदिश १४ अनुत्तर
सर्व राशिके पाँचवें भाग प्रमाण संख्यात योजन विस्तार । युक्त है और शेष असंख्यात योजन विस्तार युक्त।
३७०
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ह. पु/६/६९ सर्वश्रेणीविमानानामर्धमुर्ध्व मितोऽपरम् । अन्येषां स्वविमानाचं स्वयंभूरमणोदधेः ।११। -समस्त श्रेणीबद्ध विमानोंकी जो संख्या है, उसका आधा भाग तो स्वयम्भू रमण समुद्र के. ऊपर है और आधा अन्य समस्त द्वीप समुद्रोंके ऊपर फैला हुआ है। त्रि. सा/४७४ उडुसेढीबद्धदलं सयंभुरमणुदहिपणिधिभागम्हि । आइल्लतिण्णि दीवे तिणि समुद्दे य सेसा हु ।४७४i -सौधर्म के प्रथम ऋतु इन्द्रक सम्बन्धी श्रेणीबद्धोंका एक दिशा सम्बन्धी प्रमाण ६२ है, उसके आधे अर्थात ३१ श्रेणीबद्ध तो स्वयम्भूरमण समुद्रके उपरिमभागमें स्थित हैं और अवशेष विमानोंमेंसे १५ स्वयम्भूरमण द्वीपके ऊपर आठ अपनेसे लगते समुद्रके ऊपर, ४ अपनेसे लगते वोपके ऊपर, २ अपनेसे लगते समुद्र के ऊपर, १ अपनेसे लगते द्वीपके ऊपर तथा अन्तिम १ अपनेसे लगते अनेक द्वीपसमुद्रोंके ऊपर है। ७. दक्षिण व उत्तर कल्पोंमें विमानोंका विभाग
२.१४ इन्द्रोंकी अपेक्षा १. (ति. पं./८/१७८-१८५); (ह. पु./६/४४-६२+६६-८८) ।
कल्पका नाम
| इन्द्रक श्रेणीबद्ध प्रकीर्णका कुल योग
संख्यात. यो. युक्त
३२ लाख
१. सौधर्म
ईशान ३ सनत्कुमार ४ माहेन्द्र
२८ ... !
६४०,००० ५०८,००० २४०,००० १६०,०००
२६६००० १०४०००
१८०,०००
ति, प/८/१३७-१४८ का भावार्थ-जिनके पृथक्-पृथक् इन्द्र है ऐसे पहिले व पिछले चार-चार कल्पों में सौधर्म, सनत्कुमार, आनत व आरण ये चार दक्षिण कल्प हैं। ईशान, माहेन्द्र, प्राणत व अच्युत ये चार उत्तर विमान है, क्योंकि, जैसा कि निम्न प्ररूपणासे विदित है इनमें क्रमसे दक्षिण व उत्तर दिशाके श्रेणीबद्ध सम्मिलित हैं। तहाँ सभी दक्षिण कल्पों में उस-उस युगल सम्बन्धी सर्व इन्द्रक, पूर्व, पश्चिम व दक्षिण दिशाके श्रेणीबद्ध और नैऋत्य व अग्नि दिशाके प्रकीर्णक सम्मिलित हैं। सभी उत्तर कल्पों में उत्तर दिशाके श्रेणीबद्ध तथा वायु व ईशान दिशाके प्रकीर्णक सम्मिलित हैं। बीचके ब्रह्म आदि चार युगल जिनका एक-एक हो इन्द्र माना गया है, उनमें दक्षिण व उत्तरका विभाग न करके सभी इन्द्रक, सभी श्रेणीबद व सभी प्रकीर्णक सम्मिलित हैं। (त्रि. सा/४७६ ); (ज. प/११/२/३-२१८)।
२५०४२
२४६५८ २००२० १६६८० ३०१६
४००० __३०००
कुल राशिमसे इन्द्रक व श्रेणीबद्धकी संख्या घटा कर जो शेष बचे
१२००
२६८१
है १२००
६ ब्रह्मोत्तर ७ लान्तब ८ कापिष्ठ,
शुक्र १० महाशुक्र ११ शतार १२ सहस्रार १३ आनत-प्राणत १४ आरण
1 अन्युत १५ अधो ग्रे. १६ मध्य }. १७ उपरि है. १८ अनुदिश १६ अनुत्तर
२६०
८. दक्षिण व उत्तर इन्द्रोंका निश्चित निवास स्थान ति. प/८/३५१ छज्जुगलसे सरस अट्ठारसमम्मि से ढिबधेसु । दोहीण
कम दक्विण उत्तरभागम्मि होति देविंदा ।३५१॥ -- छह युगलों और शेष कल्पों में यथाक्रमसे प्रथम युगल में अपने अन्तिम इन्द्रकसे सम्बद्ध अठारहवें श्रेणीबद्ध में, तथा इससे आगे दो हीन क्रमसे अर्थात् १६वें, १४वे, १२, १०३, वें और ठे श्रेणीबद्ध में, दक्षिण भागमें दक्षिण इन्द्र और उत्तर भागमें उत्तर इन्द्र स्थित है ।३५११, (त्रि. सा/४८३)। ति.प//३३६-३५० का भावार्थ-[अपने-अपने पटल के अन्तिम इन्द्रक__ को दक्षिण दिशाबाले श्रेणीबद्धों में से १८३, १६३, १४३, १२वें, ईठे,
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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