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स्वर्ग
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५. स्वर्गलोक निर्देश
ति. प /८/९६८-२०२ ह. पु/६/६२-६३ त्रि. सा./४८०
और पुनः ६ श्रेणीबद्ध विमानमें क्रमसे सौधर्म, सानत्कुमार, १०.कल्प विमानों व इन्द्र भवनोंके विस्तार आदि ब्रह्म, लांतव, आनत और आरण ये छह इन्द्र स्थित हैं। उन्हीं नोट-सभी प्रमाण योजनों में बताये गये। इन्द्रकोंकी उत्तर दिशावाले श्रेणीबद्धोंमेंसे १८, १६, १०३, ८वें, ठे और पुनः ६ श्रेणीबद्धों में क्रमसे, ईशान, माहेन्द्र, महाशुक्र,
कल्प विमान, इन्द्रोंके भवन सहस्रार, प्राणत और अच्युत ये छह इन्द्र रहते हैं।] (ह. पु/६/
देवियोंके भवन १०१-१०२)
नोट-[ह. पु. में लान्तबके स्थानपर शुक्र और महाशुक्रके स्थानपर लान्तव दिया है। इस प्रकार वहाँ शुक्रको दक्षिणेन्द्र और इन्द्रोंके नाम
ति. प./८/३७२-३७३ ति.प./८/४१४-४१७ लान्तवको उत्तरेन्द्र कहा है। ]
+४५५-४५६ रा. वा/४/११/// पंक्तिका भावार्थ-सौधर्म युगलके अन्तिम इन्द्रककी
ह. पु./4/६४-६६ दक्षिण दिशावाले श्रेणीबद्धोंमेसे १८ में सौधर्मन्द्र (२२५/२१) । उसीके उत्तर दिशावाले १वें श्रेणीबद्ध में ईशानेन्द्र ( २२७/६)। सनत्कुमार युगलके अन्तिम इन्द्रककी दक्षिण दिशावाले १६३ श्रेणी
मोटाई लम्बाई चौड़ाई ऊँचाई लम्बाई मद्धमें सनत्कुमारेन्द्र ( २२७/३२ )। और उसीकी उत्तर दिशावाले १६ वें श्रेणीबद्ध में माहेन्द्र ( २२८/२५) । ब्रह्मयुगल के अन्तिम इन्द्रककी दक्षिण दिशावाले १२वें श्रेणीबद्धमें ब्रह्मन्द्र ( २२६/१७) । और उसी- | सौधर्म यु. ११२१ की उत्तर दिशावाले १२वें श्रेणीबद्धमें ब्रह्मोत्तरेन्द्र (२३०/३) । लान्तव
सनत. यु. १०२२ युगल के अन्तिम इन्द्रककी दक्षिण दिशावाले हवें श्रेणीबद्ध में लान्त
मा यु. । १२३ वेन्द्र ( २३०/१२) और उसीकी उत्तर दिशावाले वें श्रेणीबद्ध में कापिष्ठेन्द्र ( २३०/३४) । शुक्र युगलके एक ही इन्द्रककी दक्षिण
लान्तब यु. दिशावाले १२खें श्रेणीबदमें शुक्रन्द्र (२३१/८ ) और उसीकी उत्तर
महाशुक्रयु. ७२५ दिशावाले १२३ श्रेणीबद्ध में महाशुक्रेन्द्र ( २३१/२६ ) । शतार युगलके
सहस्रार यु. ६२६ एक ही सहस्रार इन्द्रककी दक्षिण दिशावाले हवे श्रेणीबद्ध में शतारेन्द्र आनतादि४५२७ ( २३१/३६ ) और उसीकी उत्तर दिशावाले वे श्रेणीमरमें सह- | अधो ग्रे. ४२८ सारेन्द्र (२३२/१८)। आनतादि चार कम्पोंके आरण इन्द्रककी | मध्य प्रै. | दक्षिण दिशावाले ठे श्रेणीबद्ध में आरणेन्द्र ( २३२/३१) और | उपरि प्रे. अच्युत इन्द्रककी उत्तर दिशाबाले ६ठे श्रेणीबद्ध में अच्युतेन्द्र
हम अच्युतन्द्र अनुदिश (२३३/१४ ) । इस प्रकार ये १४ इन्द्र क्रमसे स्थित हैं।
अनुत्तर
८२४
१२१
९. इन्द्रोंके निवासभूत विमानोंका परिचय
११. इन्द्र नगरोंका विस्तार आदि ति प./८/गा. का भावार्थ-१.इन्द्र क श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक, इन तीनों नोट-सभी प्रमाण योजनों में जानने प्रकारके विमानोंके ऊपर समचतुष्कोण व दीर्घ विविध प्रकारके प्रासाद स्थित हैं।२०। ये सब प्रासाद सात-आठ-नौ-दस भूमियोंसे
नगर
नगरकोट नगर द्वार भूषित हैं। आसनशाला, नाट्यशाला व क्रीड़नशाला आदिकोंसे
त्रि.सा./ त्रि.सा./ शोभायमान है। सिंहासन, गजासन, मकरासन आदिसे परिपूर्ण हैं।
त्रि. सा/४८६ मणिमय शय्याओंसे कमनीय हैं। अनादिनिधन व अकृत्रिम विरा
४६०-४६१ । ४६२-४६३
इन्द्रोंके नाम जमान हैं।२०४-२१३३ २. प्रधान प्रासादके पूर्व दिशाभाग आदिमें चार
मोटाई संख्या चार प्रासाद होते हैं ।३६६। दक्षिण इन्द्रों में वैडूर्य, रजत, अशोक और मृषत्कसार तथा उत्तर इन्द्रों में रुचक, मन्दर, अशोक और सप्तच्छद
लम्बाई चौड़ाई | ऊँचाई व वचौड़ाई
नीवं ऊँचाई ये चार-चार प्रासाद होते हैं ।३६७। (त्रि. सा./४८४-४८५)। ३. सौधर्म व सनत्कुमार युगल के ग्रहों के आगे स्तम्भ होते हैं, जिनपर तीर्थकर मालकों के वस्त्राभरणोंके पिटारे लटके रहते हैं।३६८-४०४। सभी HER९४०४ासभा सौधर्म
८४००० ८४००० इन्द्र मन्दिरोंके सामने चैत्य वृक्ष होते हैं ।४०५-४०६० सौधर्म इन्द्रके
ইহান प्रासादके ईशान दिशामें सुधर्मा सभा, उपपाद सभा और जिनमन्दिर
८०००० ८०००० है।४०७-४१११ (इस प्रकार अनेक प्रासाद व पुष्प वाटिकाओं आदिसे.
सनत्कुमार
७२०००
७२००० युक्त वे इन्द्रोंके नगरोंमें ) एकके पीछे एक ऊँची-ऊँची पाँच वेदियाँ
माहेन्द्र ७०,००० ७०००० होती है। प्रथम वेदीके बाहर चारों दिशाओंमें देवियोंके भवन,
ब्रह्म ब्रह्मोत्तर ६०,००० ६०००० द्वितीयके माहर चारों दिशाओं में पारिषद, तृतीयके बाहर सामानिक लान्तव कापिष्ठ
और चौथी के बाहर अभियोग्य आदि रहते हैं ।४१३-४२८। पाँचवीं बेदी के बाहर वन हैं और उनसे भी आगे दिशाओं में लोकपालोंके
शुक्र महाशुक्र ।४२८-४३३। और विदिशाओं में गणिका महत्तरियोंके नगर है
| शतार सहस्रार | ३०,००० ३०००० ।४३५। इसी प्रकार कल्पातीतोंके भी विविध प्रकारके प्रासाद, | आनतादि ४,
२०,००० उपपाद सभा, जिनभवन आदि होते हैं ।४५१-४५४।
भा०४-६६
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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