Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 511
________________ स्वप्न स्वप्न ५०४ १. भेद व लक्षण म.पु. / ४९/५६- ६१ तेच स्वप्ना द्विधाम्नाताः स्वस्थास्वस्थात्मगोचराः । समैस्तु धातुभिः स्वस्था विषमैरितरे मताः | ५ | तथ्याः स्युः स्वस्य दृष्टा मिथ्या स्वप्ना विपर्ययात् । जगत्प्रतीतमेतद्धि विद्धि स्वप्न|| स्वप्नानां द्वैमस्त्यन्यदोषदेवदोषप्रकोपजा मिथ्या तथ्याः स्युर्देवसंभवाः । ६१ । स्वप्न दो प्रकारके हैं - स्वस्थ अवस्थावाले, अस्वस्थ अवस्थावाले। जो धातुओं की समानता रहते दीखते हैं वे स्वस्थ अवस्थावाले हैं, और जो धातुओंकी असमानता से दीखते हैं वे अस्वस्थ अवस्थावाले हैं |५|| स्वस्थ अवस्थामें दीखनेवाले स्वप्न सत्य और अस्वस्थ अवस्था में दीखनेवाले स्वप्न असत्य होते हैं । ६० स्वप्नोंके और भी दो भेद हैं--एक दैव से उत्पन्न होने वाले, दूसरे दोषसे उत्पन्न होने वाले । दैवसे उत्पन्न होनेवाले स्वप्न सत्य तथा दोषसे उत्पन्न होने वाले असत्य हुआ करते है । ६१॥ दे. निमित/२/२ (बात पित्तादिके प्रकोपसे रहित व्यक्ति सूर्य चन्द्रमा आदिको देखता है व शुभस्वप्न तथा गर्दभ, ऊँट आदि पर चढ़ना, व प्रदेश गमनादि देखता है वह अशुभ स्वप्न है। इसके फलरूप सुख-दुःखादिको बताना स्वनिमित्त है। स्थाने हाथी आदिका दर्शन मात्र चिह्न स्वप्न हैं । और पूर्वापर सम्बन्ध रखने वाको माला स्वप्न कहते है । २. स्वप्न के निमित्त स्या. म./९६/२१५-२१६/३० स्वप्नज्ञानमप्यनुभूतार्थविषयान निरालम्बनम् तथाच महाभाष्यकारः-बहुविचितिय सुपयनियारदेवारा सुगिणस्स निमित्ताई पुष्पा पा भावो । = स्वप्न में भी जाग्रत् दशा में अनुभूत पदार्थों का ही ज्ञान होता है, इसलिए स्वप्न ज्ञान भी सर्वथा निर्विषय नहीं है। जिनभगणिमाने कहा है- "अनुभव किये हुए देखे हुए, विचारे क्षमाश्रमणने हुए सुने हुए पदार्थ, वात, पित्त आदि प्रकृतिके विकार, दैनिक और जल प्रधान प्रदेश स्वप्न में कारण होते हैं । सुख निद्रा आनेसे पुण्य रूप और सुख निद्रा न आने से पाप रूप स्वप्न दिखाई देते हैं। वास्तवमें स्वप्न सर्वथा अवरतु नहीं हैं । ३. तीर्थंकरकी माताके १६ स्वप्न म.पू./१२/१५६-१६९ देखि महाद पुत्रो भाग समस्तभुवनज्यैष्ठी महादर्शनात् १२३४ सिहेनानवमीयset दाम्ना सद्धर्मतो वृद्ध भासी मेरो ॥१५६॥ पूर्णेन्दुना जनादी भास्वता भारतरणतिः । कुम्भाभ्यां निधिभागी स्यात् सुखी मत्स्ययुगेक्षणात् । १५७१ सरसा लक्षणोद्भासी सोऽन्धिना केवली भवेद । सिंहासनेन साम्राज्यम् अवाप्स्यति जगदगुरु १९६१ मानवलोकेन स्वतरिष्यति। फशीभवतालोकात् सोऽधिज्ञानलोचनः । १५६ गुणानामाकर प्रोद्यइनराशिनियामनाथ । कर्मे धनधनदेव निघूमने वृषभाकारमादाय भवत्यास्य प्रवेशनात् । त्वद्गर्भे वृषभो देव' स्वमाधोति निर्मले । १६१६ ( नाभिराम मरदेवी से कहते है ) हे देवी! सुन, १. हाथो के देखनेसे उत्तम पुत्र होगा, २. उत्तम बैल के देखने से Jain Education International समस्त लोक में ज्येष्ठ, ३, सिंह के देखनेसे अनन्त बल से युक्त, ४. मालाओंके देखने से समीचीन धर्मका प्रवर्तक देखनेसे सुमेरु पर्वत मस्तक पर देवोंके द्वारा अभिषेकको प्राप्त, ६. पूर्ण चन्द्रमाको देखने से लोगों को आनन्द देनेवाला, ७. सूर्यको देखनेसे देदीप्यमान प्रभाका धारक; ८. दो कलश युगल देखनेसे अनेक निधिको प्राप्त, और ६. मछलियों का युगल देखनेसे सुखी होगा । १५३-१५७ १०, सरोवरको देखनेसे अनेक लक्षणोंसे शोभित ११ समुद्रको देखने से केवली और, १२. सिहासन देखने से जगद्गुरु होकर साम्राज्य प्राप्त करेगा । १६८ । १३. देवोंका विमान देखने से स्वर्ग मे अवतीर्ण, १४ नागेन्द्रका भवन देखनेसे अज्ञान युक्त, १५. चमकते रत्नोंकी राशि देखने से खान, १६. निम अग्नि देखनेसे कर्मरूपी ईंधनको जलाने वाला होगा ।१११-१६०॥ सुम्हारे मुखमें वृषभने प्रवेश किया है इसलिए तुम्हारे गर्भ में वृषभदेव प्रवेश करेंगे । ६६१३ स्वप्न ४. चक्रवर्तीकी माता के ६ स्वप्नोंका फल म.पू./१५/१२३-१२६ देवि पुत्रमास गिरीन्द्राय चक्रवर्तिनम्। तस्य प्रतापितामर्क शास्तीः कान्तिसंपदम् १२३॥ सरोजा असौ पङ्कजवासिनीम् । वोढा व्यूढोरसा पुण्यलक्षणाङ्कितविग्रहः ॥ १२४॥ महीनतः कृत्स्नां महीं सागरवास प्रतिपालयता देखि विश्वरा तव पुत्रकः | १२३ | सागराचरमाशोऽसी तरिता जन्मसागरम्। ज्यायान्पुत्रशतस्यायम् इक्ष्वाकुकुलनन्दनः । १२६ । = ( भगवान् ऋषभ देव यशस्वती के स्वप्नोंका फल कहते है ) हे देवी! सुमेरु पर्वत देखने से तेरे चक्रवर्ती पुत्र होगा। सूर्य उसके प्रतापको और चन्द्रमा उसकी कान्तिको सूचित कर रहा है । १२३ । सरोबरके देखनेसे पवित्र लक्षणों से युक्त शरीर वाला होकर अपने विस्तृत वक्षस्थल पर लक्ष्मीको धारण करेगा | १२४ । पृथ्वीका ग्रसा जाना देखनेसे चक्रवर्ती होकर समस्त पृथ्वीका पालन करेगा । १२५ । और समुद्र देखनेसे चरमवारीरी होवर संसार समुद्रको पार करेगा। इसके अतिरिक्तवंशको आनन्द देनेवाला वह पुत्र तेरे १०० पुत्रो मे ज्येष्ठ होगा । १२६ । ५. नारायणकी माताके सात स्वप्न ह. ३५/१२-१२वालामुच्चे सुरध्वर्ज रममरीचि चक्रम् । मृगाधिपं चाननमादिशन्तं निशाम्य सौम्या बुबुधे कम्पा १३ अपूर्व विलोकनासा सविस्मया दृष्टतनूरुहाता। जगौ प्रभाते कृतमङ्गलाङ्गा समेत्य पत्येऽभिदधे स विद्वान् | १४ | प्रतापविध्वस्तरिपुः शुतस्ते प्रियोऽतिसौभाग्यसुतोऽभिषेक दिनो तोर्यातिरुषिः स्थिरोऽभविष्यति क्षिप्रमिनो जगत्याः ॥ १३३ (सुदेव अपनी रानी देवकीसे कृष्णा के गर्भ से पूर्व ले गये स्वा फल कहते हैं ) - हे प्रिये। जो समस्त पृथ्वीका स्वामी होगा ऐसा तेरे पुत्र होगा। १ सूर्य देखनेसे शत्रु विध्वसक प्रतापसे युक्त होगा, २. चन्द्रमाको देखने से सबका प्रिय होगा, ३. दिग्गजों द्वारा लक्ष्मीका अभिषेक देखने सीमावासी एवं राज्याभिषेकसे युक्त होगा, ४. आकाशसे नीचे आता विमान देखने से होगा, ५. देदीप्यमान अग्नि देखनेसे अत्यन्त कान्ति से युक्त होगा, ६. रत्नराशिकी किरण प्रकृतिका होगा ७ मुखमें प्रवेश करता सिंह देखने से निर्भय होगा । १२-१६॥ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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