Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 518
________________ स्वर्ग ३. वैमानिक इन्द्रोंका निर्देश ति.प./८/४५० इदाणं चिण्हाणि पत्ते के ताव जा सहस्सारं । आणद आरणजुगले चोदसठाणेसु बोचछामि ।४५० सौधर्म से लेकर सहस्रार पर्यन्तके १२ कल्पों में प्रत्येक का एक-एक इन्द्र है। तथा आनत, प्राणत और आरण-अच्युत इन दो युगलोंके एक-एक इन्द्र हैं। इस प्रकार चौदह स्थानों में अर्थात चौदह इन्द्रोंके चिह्नोंको कहते है। रा. वा./४/१६/२३३/२१- त एते लोकानुयोगोपदेशेन चतुर्दशेन्द्रा उक्ताः । इह द्वादशेष्यन्ते पूर्वोक्तेन क्रमेण ब्रह्मोत्तरकापिष्ठमहाशुक्रसहस्रा. रेन्द्राणां दक्षिणेन्द्रानुवृत्तित्वात आनतप्राणतकल्पयोश्च एकैकेन्द्रत्वात् । = ये सब १४ इन्द्र ( दे. स्वर्ग/शह में रा. वा.) लोकानुयोगके उपदेशसे कहे गये हैं। परन्तु यहाँ ( तत्त्वार्थ सूत्रमें) १२ इन्द्र अपेक्षित हैं। क्योंकि १४ इन्द्रोंमें जिनका पृथक् ग्रहण किया गया है ऐसे ब्रह्मोत्तर, कापिष्ठ, शुक्र और सहस्रार ये चार इन्द्र अपने-अपने दक्षिणेन्द्रों के अर्थात् ब्रह्म, लान्तव, महाशुक्र और शतारके अनुवर्ती हैं। तथा १४ इन्द्रोंमें युगलरूप ग्रहण करके जिनके केवल दो.इन्द्र माने गये हैं ऐसे आनतादि चार कल्पोंके पृथक्-पृथक् चार इन्द्र हैं। { इस प्रकार १४ इन्द्र व १२ इन्द्र इन दोनों मान्यताओं का समन्वय हो जाता है। २. वैमानिक इन्द्रोंमें दक्षिण व उत्तर इन्द्रोंका विभाग दे. स्वर्ग// में-(ति. प./८/३३६-३५१), (रा.वा./४/१४/८/पृष्ठ/. पंक्ति), (ह. पु./६/१०१-१०२), (ति. सा./४८३) -- १२ इन्द्रों की अपेक्षा १२इन्द्रोंकी अपेक्षा! १४ इन्द्रोंकी अपेक्षा क्र. ति प.व त्रि. सा. दक्षिण उत्तर | ह.पु. रा.वा. दक्षिण | उत्तर दक्षिण । उत्तर ममिददिगिंदे सोमम्मि जयम्मि भोयणावसरो। सामाणियाण ताणं पत्तेक्क पंचवीसदल दिवसा ५५५। - जो देव जितने सांगरोपम काल तक जीवित रहता है उसके उतने ही हजार वर्षों में आहार होता है। पल्य प्रमाण काल तक जीवित रहनेवाले देवके पाँच दिनमें आहार होता है ।५५२। प्रतीन्द्र, सामानिक और त्रयखिंश देवोंके आहारकालका प्रमाण अपने-अपने इन्द्रोंके सदृश है ।५५३इन्द्र आदि चारकी देवियों के भोजनका जो समय है उसके प्रमाणके निरूपणका उपदेश नष्ट हो गया है।५५४। सौधर्म इन्द्रके दिक्पालोंमेंसे सोम व यमके तथा उनके सामानिकों मेंसे प्रत्येकके भोजनका अवसर १२२ दिन है ।५५३॥ दे. देव/II/२-(सभी देवोंको अमृतमयी दिव्य आहार होता है।) ४. इन्द्रोंके चिह्न व यान विमान ति.प./५/८४-१७ का भावार्थ - ( नन्दीश्वरद्वोपकी वन्दनार्थ सौधर्मादिक इन्द्र निम्न प्रकारके यानोंपर आरूढ़ होकर आते हैं। सौधर्मेन्द्र = हाथो; ईशानेन्द्र-वृषभ ; सनत्कुमार-सिह; माहेन्द्रअश्व; ब्रह्मेन्द्र हंस; ब्रह्मोत्तर-क्रौंच; शुक्रन्द्र-चक्रवाक; महाशुक्रेन्द्र तोता; शतारेन्द्र - कोयल; सहस्रारेन्द्र गरुड़ा आनतेन्द्रगरुड़ प्राणतेन्द्र - पद्म विमान; आरणेन्द्र कुमुद विमान; अच्युतेन्द्र - मयूर ।) ति. प./८/४३८-४४० का भावार्थ-[ इन्द्रोंके यान विमान निम्न प्रकार हैं-सौधर्म-बालुका ईशान-पुष्पक; सनत्कुमार-सौमनस; माहेन्द्र-श्रीवृक्षः ब्रह्म सर्वतोभद्र; लान्तव-प्रीतिकर; शुक्र रम्यक शतार मनोहर; आनत-लक्ष्मी; प्राणत मादिन्ति (1); आरणविमल; अच्युत- विमल ] ति. प./८/४४८-४५० का भावार्थ-[१४ इन्द्रवाती मान्यताको अपेक्षा प्रत्येक इन्द्र के क्रमसे निम्न प्रकार मुकुटों में नौ चिह्न हैं जिनसे कि वे पहिचाने जाते हैं-शूकर, हरिणी, महिष, मत्स्य, भेक (मेंढक); सर्प, छागल, वृषभ व कल्पतरु ।] ति. प./८/४५१ का भावार्थ-[ दूसरो दृष्टिसे उन्हीं १४ इन्द्रों में क्रमसेशूकर, हरिणी, महिष, मत्स्य, कूर्म, भेक ( मेंढक ), हय, हाथी, चन्द्र, सर्प, गत्रय, छगल, वृषभ और कल्पतरु ये १४ चिह्न मुकुटोंमें होते हैं । (त्रि. सा./४८६-४८७) ५. इन्द्रों व देवोंकी शक्ति व विक्रिया ति.प./८/६६७-६६६ एकपलिदोबमाऊ उप्पाडेदं धराए छक्रवंडे । तग्गद णरतिरियजणे मारे, पोसेदु सक्को ६९७ उब हिउवमाणजीवी पल्लट्ट दुच जंबुदीवं हि। तग्गदणरतिरियाणं मारेदु पोसिदु सक्को ६६८ सोहम्मिदो णियमा जंबुदी समुक्खिवदि एवं । केई आइरिया इय सत्तिसहावं परूवंति ६६६) एक पत्योपम प्रमाण आयुवाला देव पृथिवीके छह खण्डोंको उखाड़नेके लिए और उनमें स्थित मनुष्यों व तियंचोंको मारने अथवा पोषनेके लिए समर्थ हैं।६६७। सागरोपम प्रमाण काल तक जीवित रहनेवाला देव जम्बूद्वीपको भी पलटने के लिए और उसमें स्थित तियंचों व मनुष्यों को मारने अथवा पोषने लिए समर्थ है 1६६८। सौधर्म इन्द्र नियमसे जम्बूद्वीपको फेंक सकता है, इस प्रकार कोई आचार्य शक्ति स्वभावका निरूपण करते हैं । । त्रि. सा./५२७ दुसु-दुसु तिचक्के मु य णवचोद्दसगे विगुब्बणा सत्ती। पढमरिखदीदो सत्तमखिदिपेरतो त्ति अवही य ५२७। -दो स्वर्गोमें दूसरी नरक पृथिवी पर्यन्त चार स्वर्गों में तीसरी पर्यन्त, चार स्वर्गो में, चौथी पर्यन्त, चार स्वर्गोमें पाँचवी पर्यन्त, नवग्रे वेयकों में छठी पर्यन्त और अनुदिश अनुत्तर विमानों में सातवीं पर्यन्त, इस प्रकार देवों में क्रमसे विक्रिया शक्ति व अवधि ज्ञानसे जाननेकी शक्ति है (विशेष-दे. अवधिज्ञान/8)। सौधर्म सनत्कु. ब्रह्म लान्तव ईशान । सौधर्म | सौधर्म ইহান। माहेन्द्र | सनरकु. माहेन्द्र सनत्कु. माहेन्द्र ब्रह्म ब्रह्मोत्तर लान्तव कापिष्ठ महाशुक्र महाशुक्र ४ महाशुक्र सहस्रार शतार । सहसार प्राणत आनत प्राणत अच्युत | आरण अच्युत आरण | अच्युत शुक्र आनत आरण ३. वैमानिक इन्द्रों व देवों के आहार व श्वासका अन्तराल मू. आ /११४५ जदि सागरोपमाऊ तदि वाससह स्सियादु आहारो।। पक्खे हि दु उस्सासो सागरसमये हिं चेव भवे ।११४५। जितने सागरकी आयु है उतने ही हजार वर्ष के बाद देवों के आहार है और उतने हो पक्ष बीतने पर श्वासोच्छ्वास है। ये सब सागरके समयोंकर होता है। (त्रि. सा./५४४); (ज. प./११/३५०) ति. प./८/५५२-५५५-जेत्तियजल णिहि उवमा जो जीवदि तस्स तेत्ति एहिं च । बरिससहस्सेहि हवे आहारो पणुदिणाणि पल्लमिदे।५५२। पडिईदाणं सामाणियाण तेत्तीस सुरमरण । भोयणकालपमाणं णियणिय-इंदाण सारिच्छ ।५५३। इंदप्पहुदिचउक्के देवीणं भोयणम्मि जो समओ। तस्स पमाणपरूवणउवएसो संपाहि पणट्ठो।५५४। सोह जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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