Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 521
________________ ५. स्वर्गलोक निर्देश . सनत्कुमार आदि कल्प सम्बन्धी स्त्रियोकी सौधर्म और ऐशान स्वर्गमें उत्पत्ति होती है। सुसेणा। वसुमित वसंधर वरदेवीओ उत्तरदाणं ।।११।- सौधर्मादि स्वर्ग में कामा, कामिनी, पद्मगन्धा, अलंबुसा ऐसी नामवाली चार प्रधान गणिका हैं ।५०६। छह दक्षिणेन्द्रोंकी आठ-आठ ज्येष्ठ देवियों के नाम क्रमसे शची, पद्मा, शिवा, श्यामा, कालिन्दी, सुलसा, अज्जुका और भानु ये हैं ।५१०। छहों उत्तरेन्द्रोंकी आठ-आठ ज्येष्ठ देवियाँके नाम क्रमसे श्रीमती, रामा, सुसीमा, प्रभावती, जयसेना, सुषेणा, वसुमित्रा, और वसुन्धरा ये हैं ।५११। २. देवियों की उत्पत्ति व गमनागमन सम्बन्धी नियम म. आ./११३१-११३२ आईसाणा कप्पा उववादो होइ देवदेवीणं । तत्तो परंतु णियमा उववादो होइ देवाणं ।११३१। जावदु आरण-अच्युद गमणागमणं च होइ देवीणं । तत्तो परंतु णियमा देवीण स्थिसे गमगं ।११३२।-[भवनबासीसे लेकर ] ईशान स्वर्ग पर्यन्त देव व देवी दोनोंको उत्पत्ति होती है। इससे आगे नियमसे देव ही उत्पन्न होते हैं, देवियाँ नहीं।११३१॥ आरण अच्युत स्वर्ग तक देवियोंका गमनागमन है, इससे आगे नियमसे उनका गमनागमन नहीं है।११३२(ति. ५/५६५) । ५. स्वर्ग लोक निर्देश १. स्वर्ग लोक सामान्य निर्देश ति. प./८/६-१० उत्तरकुरुमणुवाणं एक्केणेणं तह य बालेणं । पणवीसुत्तरचउसहकोसयदंडेहि विहीणेणं ।६। इगिसट्ठीअहिएणं लक्खेणं जोयणेण ऊणाओ। रज्जूओ सत गयणे उड़ दडढं णाकपडलाणि । कणयदिचूलिउवरि उत्तरकुरुमणुवएकबालस्स । परिमाणेणंतरिदो चेट ठेदि हुईदओ पढमो।८। लोयसिहरादु हेट्ठा चउसय पणचीसं चाबमाणाणि । इगिवीस जोयणाणि गंदणं इंदओ चरिमोह। सेसा य एकसठ्ठी एदाणं इंदयाण विच्चाले । सम्वे अणादिणिहणा रयणमया इंदया होति ।१०। उत्तरकुरुमें स्थित मनुष्यों के एक माल हीन चार सौ पचीस धनुष और एक लाख इकसठ योजनोंसे रहित सात राजू प्रमाण आकाशमें ऊपर-ऊपर स्वर्ग पटल स्थित है।६-७॥ मेरुकी चूलिकाके ऊपर उत्तरकुरु क्षेत्रवर्ती मनुष्यके एक मालमात्रके अन्तरसे प्रथम इन्द्रक स्थित है ।८। लोक शिखरके नीचे ४२५ धनुष और २१ योजन मात्र जाकर अन्तिम इन्द्रक स्थित है ।। शेष इकसठ इन्द्रक इन दोनों इन्द्रकोंके बीच में हैं। ये सब रत्नमय इन्द्रक विमान अनादिनिधन है ।१०। (स, सि./१/१६/२५१/१), (ह. पु./६/३५), (ध.४/१, ३, १/६/२); (त्रि. सा./४७०) । २. कल्प व कल्पातीत विभाग निर्देश ति, प./८/गा. सोहम्मीसाणेसु उप्पज्जते हु सव्वदेवीओ। उवरिमकप्पे ताणं उप्पत्ती णस्थि कइया बि ।३३१॥ तेसं उप्पणाओ देवीओ भिण्ण ओहिणाणेहि। णादूर्ण णियकप्पे गति हु देवा सरागमणा ॥३३३॥ णवरि विसेसो एसो सोहम्मीसाणजाददेवीणं । वच्चंति मूलदेहा णियणियकप्पामराण पासम्मि ५६41-सब (कल्पवासिनी) देवियाँ सौधर्म और ईशान कल्पों में ही उत्पन्न होती हैं, इससे उपरिम कल्पों में उनको उत्पत्ति नहीं होती ।३१। उन कल्पों में उत्पन्न हुई देवियोंको भिन्न अवधिज्ञानसे जानकर सराग मनवाले देव अपने कल्पों में ले जाते हैं ।३३४. विशेष यह है कि सौधर्म और ईशान कल्पमें उत्पन्न हुई देवियों के मूल शरीर अपने-अपने कल्पोंके देवोंके पास जाते हैं।६६। ह. पु./६/११६-१२१ दक्षिणाशारणान्तानां देव्यः सौधर्ममेव तु । निजागारेषु जायन्ते नीयन्ते च निजास्पदम् ।११६। उत्तराशाच्युतान्तानां देवानां दिव्यमूर्तयः। ऐशानकल्पसंभूता देव्यो यान्ति निजाश्रयम् ।१२०। शुद्धदेवीयुतान्याहुर्विमानानि मुनीश्वराः। षट् लक्षास्तु चतुल क्षाः सौधर्मशानकल्पयोः ॥१२१४-आरण स्वर्ग पर्यन्त दक्षिण * दिशाके देवोंको देवियाँ सौधर्म स्वर्गमें ही अपने-अपने उपपाद स्थानों में उत्पन्न होती हैं और नियोगी देवोंके द्वारा यथा स्थान ले जायी जाती हैं।११। तथा अच्युत स्वर्ग पर्यन्त उत्तर दिशाके देवोंकी सुन्दर देवियाँ ऐशान स्वर्ग में उत्पन्न होती हैं, एवं अपने-अपने नियोगी देवोंके स्थानपर जाती है ।१२० सौधर्म और ऐशान स्वर्गमें शुद्ध देवियोंसे युक्त विमानों की संख्या क्रमसे ६००,००० और ४००,००० बतायी हैं। अर्थात् इतने उनके उपपाद स्थान है ।१२१॥ (त्रि. सा./५२४-५२५); (त. सा./२/८१)। ति.प./८/१९५-१२८ कप्पाकप्पातीदं इदि दुविहं होदि ।११४। पारस कप्पा केह केइ सोलस वदंति आइरिया। तिविहाणि भासिदाणि कप्पातीदाणि पडलाणि ॥११॥ हेट्ठिम मझे उवरि पत्तेवक ताण होति चत्तारि । एवं बारसकप्पा सोलस उड् ढुड्ढमट्ठ जुगलाणि ॥११॥ गेवज्जमणुद्दिसयं अणुत्तरं इय हवं ति तिविहप्पा । कपातीदा पडला गेवज्ज णवविहं तेम १११ सोहम्मीसाणसणक्कुमारमाहिदरम्हलंतवया । महमुक्कसहस्सारा आणदपाणदयआरणच्चुदया । ।१२० एवं भारस कप्पा कप्पातीदेमणव य गेवेज्जा ।।१२११ आइचइंदयस्स य पुवादिसु"चत्तारो वरविमीणाई ११२३६ पण्णयाणि य चत्तारो तस्स गादब्वा ।१२४। बिजयंत...पुवावरदविखणुत्तरदिसाए ।१२। सोहम्मो ईसाणो सणक्कुमारो तहेब माहिंदो। बम्हाबम्हत्तरयं लतवकापिट्ठसुक्कमहसुक्का 1१२७५ सदरसहस्साराणदपाणदारणयअच्चुदा णामा । श्य सोलस कप्पाणि मण्णं ते केइ आइरिया ।१२८१ -१. स्वर्ग में दो प्रकारके पटल हैं- कल्प और कल्पातीत ११४॥ कल्प पटलोंके सम्बन्धमें दृष्टिभेद है। कोई १२ कहता है और कोई सोलह, कापातीत पटल तीन हैं।११ १२ कल्पकी मान्यताके अनुसार अधो, मध्यम व उपरिम भागमें चार-चार कल्प हैं (दे, स्वर्ग/३/१) और १६ कल्पोंकी मान्यताके अनुसार ऊपर-ऊपर आठ युगलों में १६ कल्प हैं।११६। प्रैवेयक, अनुदिश व अनुत्तर ये तीन कल्पातीत पटल हैं।९१७। सौधर्म, ईशान, सामत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, लान्तव, महाशुक्र, सहसार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत ये बारह कल्प हैं। इनसे ऊपर कल्पातीत विमान हैं। जिनमें नव ग्रेवेयक, नव अनुदिश और पाँच अनुत्तर विमान हैं ।१२०-१२। (त. सू./४/१६-१८,२३)+ (स्वर्ग/३/९) । २. सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहसार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत नामक ये १६ कल्प हैं, ऐसा कोई आचार्य मानते हैं । १२७-१२८। (त. सू./४/१६), (ह. पु./६/३६-३७)। (दे. अगले पृष्ठ पर चित्र सं.६) ध १/१,१,६८/३३८/२ सनत्कुमारादुपरि न स्त्रियः समुत्पद्यन्ते सौधर्मा दाविव तदुत्पत्त्यप्रतिपादनात । तत्र स्त्रीणामभावे कथं तेषां देवानामनुपशान्ततत्संतापानां सुख मिति चेन्न, तत्स्त्रीणां सौधर्मकल्पोपपत्तेः । -प्रश्न-सनत्कुमार स्वर्गसे लेकर ऊपर स्त्रियाँ उत्पन्न नहीं होती हैं, क्योंकि सौधर्म और ऐशान स्वर्गमें देवांगनाओंके उत्पन्न होनेका जिस प्रकार कथन किया गया है, उसी प्रकार आगेके स्वोंमें उनकी उत्पत्तिका कथन नहीं किया गया है इसलिए वहाँ खियोंका अभाव होनेपर, जिनका स्त्री सम्बन्धी सन्ताप शान्त नहीं हुआ है, ऐसे देवोंके उनके 'बिना मुख कैसे हो सकता है। उत्तर-नहीं, क्योंकि जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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