Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 515
________________ स्वयंभू ५०८ स्वरूप विपर्यय वहाँ मुनियोंसे राजाको दसवें भवमें मुक्ति जानकर हर्षित हुआ (५/१६८-२००) । आयुका अन्त जानकर राजाका समाधि पूर्वक मरण कराया। (४२२३) अन्तम राजाके वियोगसे दीक्षा ग्रहण कर ली। तथा समाधिपूर्वक स्वर्गमें रत्नचूल देव हुआ (४/१०६)। स्वयंभू-१. म. पु./११/श्लोक पूर्व भव सं. २ में पश्चिम विदेहमें मित्रनन्दी राजा था (६३) पूर्व भवमें अनुत्तर विमानमें अहमिन्द्र था (७०)। वर्तमान भवमें तृतीय नारायण हुए हैं। विशेष परिचय ---दे. शलाकापुरुष/४। २. भाविकालीन उन्नीसवें तीर्थकर हैं। --दे. तीर्थकर/५। ३. योगदर्शनके आद्य प्रवर्तक हिरण्यगर्भका अपर नाम--दे, योगदर्शन । ४. अपभ्रंशके प्रथम कवि हैं। इनके पिताका नाम मारुत देव, और माताका नाम पद्मिनी था। आपका निवास स्थान कर्णाटक अथवा कन्नौज। सेठ धनब्जय अथवा धवलश्या द्वारा रक्षित। कृतिय-पउम चरिउ, रिट्ठणेमि चरिउ स्वयम्भूछन्द, स्वयम्भू व्याकरण, चमि चरिउ, हरिवंश पुराण। समय-ई. ७३८-८४० । (ती./४/६५) । स्वयंभू-१. स्वयंभूका लक्षण निक्षेप/// आचार्यों की अपेक्षा न करके संयमसे उत्पन्न हुए श्रुत ज्ञानावरणके क्षयोपशमसे स्वयंबुद्ध होते हैं। पं. का./ता. बृ./१५२/२२०/१२ तथा चोक्तम्-श्रीपूज्यपादस्वामिभिनिश्चयध्येयव्याख्यानम् । आत्मानमात्मा आत्मन्येवात्मनासौ क्षणमुपजनयन्सन स्वयंभूः प्रवृत्तः। = श्रीपूज्यपाद स्वामीने भी निश्चय ध्येयका व्याख्यान किया है कि-आत्मा आत्माको आत्मामें आत्माके द्वारा उस आत्माको एक क्षण धारण करता हुआ स्वयं हो जाता है। प्र. सा./त.प्र./१६ स्वयमेव षट् कारकीरूपेणोपजायमानः, उत्पत्तिउग्रपेक्षया द्रव्यभावभेदभिन्नधातिकर्माण्यपास्य स्वमेवाविर्भूतत्वाद्वा स्वयंभूरिति निर्दिश्यते। -स्वयं ही षट्कारक रूप होता है, इसलिए वह स्वयंभू कहलाता है। अथवा अनादि कालसे अतिदृढ बँधे हुए द्रव्य तथा भाव घाति कमाँको नष्ट करके स्वयमेव आविर्भत हुआ है, अर्थात किसीकी सहायताके बिना अपने आप ही स्वयं प्रगट हुआ इसलिए स्वयंभू कहलाता है। स्या. म./१/९/३ स्वयम्-आत्मनैव, परोपदेशनिरपेक्षतयावगततत्त्वो भवतितीति स्वयंभूः-स्वयंसंबुद्धः। -जिसने दूसरेके उपदेशके विना स्वयं ही तत्त्वोंको जान लिया है. वह स्वयभू कहलाता है। स्व. स्तो./टी./१ स्वयं परोपदेशमन्तरेण मोक्षमार्गमबबुद्धय अनुष्ठाय वा अनन्तं भवतीति स्वयंभूः । स्वयं ही बिना किसी दूसरेके उपदेशके मोक्षमार्गको जानकर तथा उसका अनुष्ठान करके आत्मविकासको प्राप्त हुए थे, इसलिए स्वयम्भू थे। *जीवको स्वयम्भू कहनेकी विवक्षा-दे, जीव/१/३। स्वयंभू छन्द-कवि स्वयम्भू (ई ७३४-८४०)कृत ८ अध्यायों वाला अपभ्रंश छन्द शास्त्र । (ती./४/१०१)। स्वयंभूरमण--१. मध्यलोकका अन्तिम सागर व द्वीप-दे, लोक /४/८। २. स्वयम्भूरमण द्वीप व समुदका लोकमें अरस्थान व विस्तार-दे. लोक/२/११। ३. इस द्वीप व समुद्रमें काल वर्तन आदि सम्बन्धी विशेषताएं-दे. काल/४/१५ । स्वयंभूस्तोत्र-आ, समन्तभद्र (ई. श.२) कृत यह ग्रन्थ संस्कृत छन्दोंमें रचा गया है। इसमें २४ तीर्थंकरोंका स्तवन किया है, और बह भी न्यायपूर्वक अनेकान्तकी स्थापना करते हुए । २, ३ के अतिरिक्त सभी तीर्थंकरों के स्तवनमें ५,५ श्लोक हैं । कुल श्लोक १४३ हैं। स्वयंशोधातिचार-दे, अतिचार/३ । स्वर-१. स्वरनामकर्म निर्देश स. सि./८/११/३११/१२ यन्निमित्तं मनोज्ञस्वरनिर्वर्तनं तत्सुस्वरनाम । तद्विपरीत दुःस्वरनाम। -जिसके निमित्तसे मनोज्ञ स्वरकी रचना होती है वह सुस्वर नामकर्म है। इससे विपरीत दुःस्वर नामकर्म है। (रा.वा./८/१२२५-२६/५७६/१); (ध ६/१.६-१,२८/६५/३); (गो क./जी.प्र/३३/३०/६)। घ. १३/५ ५.१०१/३६६/१ जस्स कम्मस्मुदएण कण्णसुहो सरो होदित सुस्सरणामं । जस्स कम्मस्सुदएण खरोट्टाणं व कण्णमूहो सरोण होदि तं दुस्सरणामं ।-जिस कर्म के उदयसे कानों को प्यारा लगनेवाला स्वर होता है वह सुस्वर नामकर्म है। जिस कर्मके उदयसे गधा एवं ऊँटके समान कोंको प्रिय लगनेवाला स्वर नहीं होता है वह दुःस्वर नामकर्म है। २. षड्ज आदि स्वर निर्देश का. अ./टी./१८६/१२३/१ निषादर्ष भगान्धारषड्जमध्यमधैवताः । पञ्चमश्चै ति सप्तैते तन्त्रीकण्ठोत्थिताः स्वराः ।। कण्ठदेशे स्थितः षड्जः शिरःस्थ ऋषभस्तथा। नासिकायां च गान्धारो हृदये मध्यमो भवेत् ।। पञ्चमश्च मुखे ज्ञेयस्तालुदेशे तु धैवतः। निषादः सर्वगात्रे च ज्ञयाः सप्तस्वरा इति ।। निषादं कुब्जरो वक्ति ते गौ ऋषभं तथा। अजा वदति गान्धारं षड्ज व ते भुजङ्गभुक् ।४। ब्रवीति मध्यमं क्रौठचो धैवतं च तुरंगमः। पुष्पसंधारणे काले पिकः कूजति पञ्चमम् ॥ -निषाद, ऋषभ, गान्धार, षड्ज, मध्यम, धैवत और पंचम ये सात स्वर तन्त्री रूप कण्ठसे उत्पन्न होते हैं ।१। जो स्वर कण्ठ देशमें स्थित होता है, उसे षड्ज कहते हैं । जो स्वर शिरोदेशमें स्थित होता है उसे ऋषभ कहते हैं । जो स्वर नासिका देशमें स्थित होता है उसे गान्धार कहते हैं। जो स्वर हृदय देशमें स्थित होता है उसे मध्यम कहते हैं ।२। मुख देशमें स्थित स्वरको पंचम कहते हैं। तालु देश में स्थित स्वरको धैवत कहते हैं और सर्व शरीरमें स्थित स्वरको निषाद कहते हैं। इस तरह ये सात स्वर जानने चाहिए।३। हाथीका स्वर निषाद है। गौका स्वर वृषभ है। बकरीका स्वर गान्धार है और गरुड़का स्वर षड्ज है । क्रौंच पक्षीका शब्द मध्यम है। अश्वका स्वर धैवत है और वसन्त ऋतुमें कोयल पंचम स्वरसे कूजती हैं। * अन्य सम्बन्धित विषय १. स्वरोंकी अपेक्षा अक्षरके भेद-प्रभेद । -दे. अक्षर। २. सुस्त्रर दु:स्वर नामकर्मकी प्रकृतियोंकी बन्ध उदय सत्व प्ररूपणाएँ व तत्सम्बन्धी नियम व शंकासमाधानादि। -दे. वह वह नाम । ३. विकलेन्द्रियमें दुःस्वर ही होता है तथा तत्सम्बन्धी शंका-समाधान। -दे. उदय/५/४। स्वर निमित्त ज्ञान-दे. निमित्त/२ । स्वरूप-भूत जातिके व्यन्तर देवोंकाइन्द्र । दे. भूत व्यन्तर/२/१ । स्वरूप यक्ष-यक्ष जातिके व्यन्तर देवौंका एक भेद-दे, यक्ष । स्वरूप विपर्यय विपर्यय। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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