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स्याद्वाद
स्याद्वादवदनविदारण
न. च. श्रुत./६५ यथा स्वरूपेणास्तित्वं तथा पररूपेणाप्यस्तित्व माभू- दिति स्याच्छब्दः ।...यथा द्रव्यरूपेण नित्यत्वं तथा पर्यायरूपेण व नित्यत्वं माभूदिति स्याच्छब्दः । = जिस प्रकार स्वस्वरूपसे है उसी प्रकार परस्वरूपसे भी है, इसी प्रकारकी आपत्तिका निवारण करना स्याव शब्द का प्रयोजन है।...जिस प्रकार द्रव्य रूपसे नित्य है उसी प्रकार पर्याय रूपसे नित्य न हो यह स्यात शब्दका प्रयोजन है । स्या. म./१६/२९४/३ यथावस्थितपदार्थ प्रतिपादनोपयिकं नान्यदिति
ज्ञापनार्थम् । अनन्तधर्मात्मकस्य सर्वस्य वस्तुनः सर्वनयात्मकेन स्याद्वादेन विना यथावद्गृहीतुमशक्यत्वात् । - यथाव स्थित पदार्थका प्रतिपादन करनेका अन्य कोई उपाय नहीं है ।...क्योंकि प्रत्येक बस्तुमें अनन्तस्वभाव हैं, अतएव सम्पूर्ण नय स्वरूपं स्याद्वादके बिना किसी भी वस्तुका ठीक-ठीक प्रतिपादन नहीं किया जा सकता।
३. सप्तमंगीमें 'स्यात्' शब्द प्रयोगका फल क. पा. १/१.१३-१४/६२७३/३०८/८ सिया कसाओ, सियाओ एत्थतणसियासहो [णोकसायं ] कसायं कसायणोकसायविसय अत्थपज्जाए च दवम्मि घडावेइ । सिया अवत्तव्वं 'कसायणोकसायविसयअस्थपज्जाय सरूवेण, एत्थतण-सिया-सद्दो कषायणो कसायविसयवंजण'पज्जाए ढोएइ। सिया कसाओ च णोकसाओ च' एत्थतण-सियासहो कसाय-णोकसायविसयअत्थपज्जाए दवेण सह ढोएइ । 'सिया कसाओ च अवत्तबओ च एत्यतण सियासदो णोकसायत्तं घडावे।' सिया णोकसाओ च अवतचओ च' एत्थतण सियासहो कसायत्तं घडावे । 'सिया कसाओ च णोकसाओ च अवत्तबओ च' एत्थतणसियासदो कषायणोकषाय-अवत्तब्बधम्माणं तिह पि कमेण भण्णमाणाणं दधम्मि अक्कमउत्ति.सूचेदि । १. द्रव्य स्यात कषाय रूप है, (यहाँ कषायका प्रकरण है) २. द्रव्य स्यात् अकषाय रूप है। इन दोनों भंगों में विद्यमान स्यात् शब्द क्रमसे नोकषाय और कषायको तथा कषाय और नोकषाय विषयक अर्थपर्यायौंको द्रव्यमें घटित करता है। ३. कषाय और नोकषाय विषयक अर्थ पर्याय रूपसे द्रव्य स्याद अबक्तव्य है। इस भंगमें विद्यमान स्यात शब्द कषाय और नोकषाय विषयक व्यञ्जन पर्यायोंको द्रव्यमें घटित करता है। ४. द्रव्य स्यात् कषाय रूप और अकषाय रूप है। इस चौथे भंगमें विद्यमान स्यात् शब्द कषाय और नोकषाय विषयक अर्थ पर्यायों में घटित करता है। ५. द्रव्य स्यात कषाय रूप और अबक्तव्य है। इस पाँचवें भंगमें विद्यमान स्पात शन्द द्रव्यमें, नोकषायपनेको घटित करता है। ६.'द्रव्य स्याच अकषाय रूप और अवक्तव्य है। इस छठे भंगमें विद्यमान स्थात् शब्द द्रव्यमें कषायपनेको घटित करता है । ७. द्रव्य स्यात् कषाय रूप, अकषाय रूप, और अवक्तव्य है। इस सातवें भंगमें विद्यमान स्यात् शब्द क्रमसे कहे जानेवाले कषाय, नोकषाय और अवक्तव्य रूप तीनों धर्मोकी द्रव्य में अक्रम वृत्तिको सूचित करता है।
क. पा./१/१,१३-१४/१२७१-२७२/३०६/६ सुत्तण अउत्तो सियासहो कथमेत्थ उच्चदे । णा; सियासद्दपओएण विणा सव्वपओआणं अउत्ततुल्लत्तप्पसंगादो। ते जहा, कसायसद्दो पडिबक्खत्थं सगत्थादो
ओसारिय सगत्थं चेव भणदि पईबो व दुस्सहावत्तादो। अत्रोपयोगिनौ श्लोको-अन्तर्भूतैवकारार्थाः गिरः सर्वाः स्वभावतः । एवकारप्रयोगोऽयमिष्टतो नियमाय सः।१२३। निरस्यन्ती परस्यार्थ स्वार्थ कथयति श्रुतिः । तमो विधुन्वती भास्य यथा भासयति प्रभा ।१२४॥ एवं चेव होदु चे; ण; एक्कम्मि चेत्र माहुलिंगफले तित्त-कडवं बिलमधुर-रसाणं रूव-गंध-फास संठाणाईणमभावप्पसंगादो। एदं पिहोउ चे; ण; दव्बलक्रवणाभावेण दव्वस्स अभावप्पसंगादो। प्रश्न'स्यात' शब्द सूत्र में नहीं कहा है फिर यहाँ क्यों कहा है ? उत्तरक्योंकि यदि 'स्यात् शब्दका प्रयोग न किया जाय तो सभी वचनोंके व्यवहारको अनुक्त तुल्यत्वका प्रसंग प्राप्त होता है । जैसे-यदि कषाय शब्द के साथ स्यात् शब्दका प्रयोग न किया जाय तो यह कषाय शब्द अपने वाच्यभूत अर्थसे प्रतिपक्षी अर्थोंका निराकरण करके अपने अर्थको ही कहेगा, क्योंकि वह दीपक की तरह दो स्वभाववाला है (अर्थात् स्वप्रकाशक व प्रतिपक्षी अन्धकार विनाशक स्वभाववाला) इस विषयमें दो उपयोगी श्लोक दिये जाते हैं। जितने भी शब्द हैं उनमें स्वभावसे हो एवकारका अर्थ छिपा हुआ रहता है, इसलिए जहाँ भी एक्कारका प्रयोग किया जाता है वहाँ वह इष्टके अवधारण के लिए किया जाता है ।१२३। जिस प्रकार प्रभा अन्धकारका नाश करती है उसीप्रकार शब्द दूसरेके अर्थ का निराकरण करता है और अपने अर्थको कहता है ।१२४। (तात्पर्य यह है कि 'स्यात्' शब्दसे रहित केवल कषाय शब्दका प्रयोग करनेपर उसका वाच्य भूत द्रव्य केवल कषाय रसवाला ही फलित होता है ) प्रश्न-ऐसा होता है तो होओ 1 उत्तर-नहीं क्योंकि ऐसा मान लिया जाये तो एक ही बिजौरेके फलमें पाये जानेवाले कषाय रसके प्रतिपक्षी तीते, कड़ए, खट्टे और मीठे रसके अभावका तथा रूप, गन्ध, स्पर्श और आकार आदिके अभावका प्रसंग प्राप्त होता है। प्रश्न होता है तो होओ ! उत्तर-नहीं, क्योंकि वस्तुमें विवक्षित स्वभावको छोड़कर शोष स्वभावोंका अभाव, माननेपर द्रव्यके लक्षणका अभाव हो जाता है। उसके अभाव हो जानेसे द्रव्यके भी अभावका प्रसंग प्राप्त होता है। स्था.म./२३/२७४/५ वाक्येऽवधारणं तावद निष्टार्थ निवृत्तये। कर्तव्यमन्यथानुक्तसमत्वात तस्य कुत्रचित् । प्रति नियतस्वरूपानुपपत्तिः स्यात् । तत्प्रतिपत्तये स्याद् इति शब्दप्रयुज्यते । -किसी वाक्यमें 'एब' का प्रयोग अनिष्ट अभिप्रायके निराकरणके लिए किया जाता है, अन्यथा अविवक्षित अर्थ स्वीकार करना पड़े।...वस्तु स्वचतुष्टयकी अपेक्षा ही कथंचित् अस्ति रूप है, परचतुष्टयकी अपेक्षा नहीं, इसी भावको स्पष्ट करनेके लिए 'स्यात' शब्द का प्रयोग किया गया है। स्याद्वादभूषण-आ, अकलंक (ई. ६२०६८०) कृत लघीय
स्त्रयपर आ. अभयचन्द्र (ई. श. १३) कृत वृत्ति । -दे. अभयचन्द्रा स्याद्वावमंजरी-हेमचन्द्र सुरि ( ई.१०८८-११७३) कृत अयोग व्यवच्छेद नामक ग्रन्थकी टीका रूपमें आ, मसिलपेण सं. ३१ ई.
१२६२) द्वारा रचित एक न्याय विषयक ग्रन्थ ।-दे. हेमचन्द्र। स्थाद्वावमंजूषा-- श्वेताम्बराचार्य यशोविजय (ई. १६३८-१६८८)
द्वारा संस्कृत भाषामें रचित न्याय विषयक ग्रन्थ । -दे. यशोविजय। स्याद्वादरत्नाकर-दे. प्रमाणनय तत्त्वालंकार । स्याद्वादवदनविदारण- आ. शुभचन्द्र (ई. १५१६-१५५६ ) द्वारा रचित न्यायविषयक ग्रन्थ । -दे. शुभचन्द्र ।
१. एवकार व स्यात्कारका समन्वय श्लो.वा. २/१/६/ श्लो.५३-५४/४३१, ४४८ वाक्येऽवधारण तावदनिष्टार्थनिवृत्तये । कर्तव्यमन्यथानुक्तसमत्वात्तस्य कुत्रचित् ॥५३। सर्वथा तत्प्रयोगेऽपि सरवादिप्राप्सिविच्छिदे । स्यात्कारः संप्रयुज्येतानेकान्तद्योतकत्वतः १५४१ - वाक्य में एत्रकार ही ऐसा जो नियम किया जाता है, वह तो अवश्य अनिष्ट अर्थकी निवृत्तिके लिए करना ही चाहिए। अन्यथा कहीं-कहीं वह वाक्य नहीं कहा गया सरीखा समझा जाता है।५३। उस एचकारके प्रयोग करनेपर भी सभी प्रकारसे सत्व आदिकी प्राप्तिका विच्छेद करनेके लिए वाक्यमें स्यात्कार शब्द का प्रयोग करना चाहिए। क्योंकि वह स्याव शब्द अनेकान्तका द्योतक है ।।४।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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