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स्थाद्वाद
५. स्यात्कारका कारण व प्रयोजन
कथंचित् असतकी भी उपलब्धि और अस्तित्व है और कथं चित् दे. स्याद्वाद/१/१ नियमका निषेध करना तथा सापेक्षताको सिद्धि करना सत्की भी अनुपलब्धि और नास्तित्व। यदि सर्वथा अस्तित्व स्याद्वादका प्रयोजन है।
और उपलब्धि मानी जाये तो घटकी पटादि रूपसे भी उपलब्धि श्लो. वा. २/१/६/५४/४५४/४ तत्त्वतोऽस्तित्वादीनामेकत्र वस्तुन्येवमभेदहोनेसे सभी पदार्थ सर्वात्मक हो जायेंगे और यदि परकी तरह स्व वृतेरसंभवे कालादिभिभिन्नात्मनामभेदोपचारः क्रियते । तदेवाभ्यामरूपसे भी असत्त्व माना जाये तो पदार्थका ही अभाव हो जायेगा भेदवृत्त्यभेदोपचाराभ्यामेकेन शब्देनै कस्य जीवादिवस्तुनोऽनन्त. और वह शब्दका विषय न हो सकेगा।
धर्मात्मकस्योपात्तस्य स्यात्कारो द्योतक: समवतिष्ठते। प्र.सा./त.प्र./३५,१०६ सर्वऽर्था ज्ञानवर्तिन एव कथंचिद् भवन्ति ।३५॥
श्लो. वा.२/१/६/५५/४५ स्याच्छब्दादप्यनेकान्तसामान्यस्यावबोधने ।... अतएव च सत्ताद्रव्ययोः कथंचिदनन्तरत्वेऽपि सर्वथै करवं न
॥५॥ -१. जब कि वास्तविक रूपसे अस्तित्व, नास्तित्व आदि शङ्कनीयम्। १. समस्त पदार्थ कथाचित ज्ञानवर्ती ही हैं। २. यद्यपि सत्ता द्रव्यके कथंचित अनर्थान्तरत्व है तथा उनके
धर्मोकी एक वस्तुमें इस प्रकार अभेद वृत्तिका होना असम्भव है तो
अत्र काल, आत्मरूप आदि करके भिन्न-भिन्न स्वरूप हो रहे धोका सर्वथा एकत्व होगा ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए।
अभेद रूपसे उपचार किया जाता है। तिस कारण इन अभेद वृत्ति स. सा./आ./३३१/क. २०४ कर्मैव प्रक्तिय॑कत हतकैः क्षिप्त्वात्मनः कर्तृताम् । कत्मैिष कथं चिदित्यचलिता कैश्चिळू तिः कोपिता ।
और अभेदोपचारसे एक शब्द करके ग्रहण किये गये अनन्तधर्मात्मक - कोई आत्म घातक कर्मको ही कर्ता विचार कर आत्माके कर्तृत्व
एक जोव आदि वस्तुका कथन किया गया है। उन अनेक धोका को उड़ाकर, यह आत्मा कथाचित् कर्ता है' ऐसी कहनेवाली
द्योतक स्यात्कार निपात भले प्रकार व्यवस्थित हो रहा है । २. स्याव
शब्दसे भी सामान्य रूपसे अनेक धर्मोंका द्योतन होकर ज्ञान हो अचलित श्रुतिको कोपित करते हैं।
जाता है ।५॥ प्र. सा./ता. वृ./२७/३७/६ यदि पुनरेकान्तेन ज्ञानमात्मेति भण्यते तदा
ध. १२/४,२,६,२/२९४/१० सिया सहा दोणि-एक्को किरियाए वाययो, ज्ञानगुणमात्र एवात्मा प्राप्तः सुखादिधर्माणामवकाशो नास्ति ।... तस्मात्कथंचिज्ज्ञानमात्मा न सर्वथेति ।यदि एकान्तसे ज्ञानको
अबरोणइवादियो।...सब्बहाणियमपरिहारेण सो सम्बत्थ परूवओ,
पमाणाणुसारित्तादो। स्यात् शब्द दो हैं-एक क्रियावाचक व दूसरा हो आत्मा कहते हैं तो तब ज्ञान गुण मात्र ही आत्मा प्राप्त होती है
अनेकान्त वाचक ......उक्त स्यात् शब्द 'सर्वथा' नियमको छोड़कर सुखादि धर्मोको अवकाश नहीं है ।...इसलिए कथं चित ज्ञानमात्र
सर्वत्र अर्थको प्ररूपणा करनेवाला है, क्योंकि वह प्रमाणका अनुसरण आत्मा है सर्वथा नहीं।
करता है। पं.ध./पू./११ द्रव्यं ततः कथं चित्केनचिदुत्पद्यते हि भावेन । व्यति तदन्येन पुनर्नेतद् द्वितयं हि वस्तुतया 11 =निश्चयसे द्रव्य
न. च. वृ./२५१ पर उद्धृत-सिद्धमन्तो यथा लोके एकोऽनेकार्थ दायकः । कथंचित् किसी अवस्था रूपसे उत्पन्न होता है और किसी अन्य
स्याच्छब्दोऽपि तथा ज्ञेय एकोऽनेकार्थसाधकः । जिस प्रकार लोकमें अवस्थासे नष्ट होता है किन्तु परमार्थ से निश्चय करके ये दोनों ही
सिद्ध किया गया मन्त्र एक व अनेक पदार्थों को देनेवाला होता है, उसी प्रकार 'स्यात' शब्दको एक तथा अनेक अर्थोंका साधक जानना
चाहिए।
न. च श्रुत./६५स्याच्छब्देन किं । यथा द्रव्यरूपेण नित्यत्वंतथा पर्याय रूपेण ५. स्यात्कारका कारण व प्रयोजन
नित्यत्व'मा भूदिति स्याच्छब्दः, स्यादस्ति स्यादनित्य इति अनित्यत्व १. स्यात्कार प्रयोगका प्रयोजन एकान्त निषेध
इति पर्यायरूपेणैव कुर्यात् ।...तहि स्याच्छब्देन किं यथा सद्भूत
व्यवहारेण भेदस्तथा द्रव्याथिकेनापि माभूदिति स्याच्छब्दः । आप्त, मी./१०३-१०४ वाक्येष्बनेकान्तद्योती गम्यं प्रति विशेषणम् ।
-प्रश्न-स्यात शब्दसे यहाँ क्या प्रयोजन है ! उत्तर-जिस प्रकार स्थान्निपातोऽर्थयोगित्वात तब केवलिनामपि ।१०३स्याद्वादः सर्व
द्रव्य रूपसे नित्य है, उसी प्रकार पर्याय रूपसे नित्य न हो यह थैकान्तत्यागारिक चिद्विधिः। सप्तभड़ गनयापेक्षो हेयादेयविशेषकः
स्यात् शब्दका प्रयोजन है । स्यात् शब्द स्यादस्ति स्यादनित्य इस ११०४। स्यात् ऐसा शब्द है यह निपात या अव्यय है। वाक्यों में
प्रकारसे होता है। अनित्यता पर्याय रूपसे समझना चाहिए ।... प्रयुक्त यह शब्द अनेकान्त द्योतक वस्तुके स्वरूपका विशेषण है।१०३।
प्रश्न-यहाँ स्यात् शब्दसे क्या प्रयोजन है ? उत्तर-जिस प्रकार स्याद्वाद अर्थात् सर्वथा एकान्तका त्याग होनेसे किंचित् ऐसा अर्थ
सदभूत व्यवहार नयसे भेद है, उसी प्रकार द्रव्याथिक नयसे भेद न बतानेवाला है। सप्त भंगरूप नयको अपेक्षावाला तथा हेय व उपादेय
हो, यह स्थान पदका यहाँ प्रयोजन है। का भेद करनेवाला है ।१०४। रा. वा./8/४२/१/२६०/२६ ननु च सामान्यार्थाविच्छेदेन विशेषण
पं. का./त. प्र./१४ अत्र सर्वथात्वनिषेधकोऽनेकान्तद्योतकः कथं चिदर्थे विशेष्यसंबन्धावद्योतनार्थे एवकारे सति तदवधारणादितरेषा
स्याच्छब्दो निपातः। - यहाँ । सप्तभंगी में ) सर्वथापनेका निषेधक, निवृत्तिः प्राप्नोति। नैष दोषः, अत्राप्यत एव स्याच्छब्दप्रयोगः
अनेकान्तका द्योतक 'स्यात्' शब्द कथंचित ऐसे अर्थमें अव्यय रूपसे कर्तव्यः स्यादस्त्येव जीवः' इत्यादि। कोऽर्थः । एवकारेणेतरनि
प्रयुक्त हुआ है । (स.भ.त./३०/१०)। . वृत्तिप्रसङ्ग स्वात्मलोपात सकलो लोपो मा विज्ञायीति वस्तुनि यथावस्थितं विवक्षितधर्मस्वरूपं तथैव द्योतयति स्याच्छब्दः ।
२. स्यात्कार प्रयोगके अन्य प्रयोजन 'विवक्षितार्थवागम्' इति बचनाव। -प्रश्न-जन आप विशेषण- 'स्व, स्तो./मू.४४ अनेकमेकं च पदस्य वाच्य, वृक्षा इति प्रत्ययव. विशेष्यके नियमनको एवकार देते हो तब अर्थात ही इतरकी त्प्रकृत्या। आकासिणः स्यादिति वै निपातो गुणानपेक्षे नियमेऽपवादः निवृत्ति हो जाती है ! उदासीनता कहाँ रही ? उत्तर-इस लिए शेष १४४ा पद (शब्द) का वाच्य प्रकृतिसे एक और अनेक दोनों धर्मोंके सद्भावको द्योतन करने के लिए 'स्यात्' शब्दका प्रयोग किया रूप है। 'वृक्षाः' इस पद ज्ञानको तरह । अनेकान्तात्मक वस्तुके जाता है। एबकारसे जब इतर निवृत्तिका प्रसंग प्रस्तुत होता है तो अस्तित्वादि किसी एक धर्म का प्रतिपादन करनेपर उस समय गौणसकल लोप न हो जाय इसलिए 'स्यान्' शब्द विवक्षित धर्म के साथ ही भूत नास्तित्वादि दूसरे धर्म के प्रतिपादन में जिसकी आकांक्षा है, ऐसी साथ अन्य धर्मों के सद्भावको सूचना दे देता है।
आकांक्षा (स्याद्वादी) का स्यात यह निपात गौणको अपेक्षा न रखनेदे, स्याव/१ स्यात शब्द अनेकान्तका द्योतक होता है।
वाले नियममें निश्चय रूपसे बाधक होता है।४४॥
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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