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स्याद्वाद
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४. स्यात् व कथंचित् शब्द प्रयोग विधि
दे. एकांत/३/३ कोई एक धर्म विवक्षित होनेपर अन्य धर्म विवक्षित
नहीं होते। स. भ. त./8/- प्रथमभङ्गादायसत्त्वादीनां गुणभावमात्रं, न तु प्रति. षेधः। प्रथम भङ्ग 'स्यादस्त्येव घटः' आदिसे लेकर कई भंगोंमें जो असत्त्व आदिका भान होता है वह उनकी गौणता है न कि निषेध । ४. स्यात् व कथंचित् शब्द प्रयोग विधि
१. स्यात्कारका सम्यक् प्रयोग ही कार्यकारी है प्र. सा./त. प्र./१९५ सप्तभङ्गिकैवकारविश्रान्तमश्रान्तसमुच्चार्यमाणस्यात्कारामोघमन्त्रपदेन समस्तमपि विप्रतिषेधविषमोहमुदस्यति। - सप्तभंगी सतत सम्यक्तया उच्चारित करनेपर स्यातकाररूपी अमोध मन्त्र पद के द्वारा 'एव' कार में रहनेवाले समस्त विरोध विषके मोहको दूर करती है। २. व्यवहार नयके साथ ही स्यात्कार आवश्यक है निश्चयके साथ नहीं न. च./श्रुत/३१-३६ स्याच्छब्दरहितत्वेऽपि न चास्य निश्चयाभासत्वमुपनयरहितत्वात्। कथमुपनयाभावे स्याच्छब्दस्याभाव इति चेत, स्याच्छब्दप्रधानत्वेनोपनयो हि व्यवहारस्य जनकत्वात् । यदा तु .. निश्चयनयेनोपनयः प्रलये नीयते तदा निश्चय एष प्रकाशते ।... किमर्थ व्यवहारोऽसत्कल्पनानिवृत्त्यर्थ सदरत्नत्रयसिध्यर्थं च ।... निश्चयं गृह्णन्नपि अन्ययोगव्यवछेदनं करोति ।३१। (यथा) भेदेन अन्यत्रोपचारात उपचारेण स्याच्छन्दमपेक्षते तथा व्यवहारेऽपि । सर्वथा भेदे तयोर्द्रव्याभावः। अभेदे तु व्यवहारविलोपः तथोपचारेऽपि सकरादिदोषसंभवात् । अन्यथा कर्तृत्वादिकारकरूपाणामनुस्पत्तितः स्यादेवं व्यवहारविलोपापत्तिः।३६॥ --१, स्यात् पदसे रहित होनेपर भी इसके निश्चयाभासपना नहीं है। क्योंकि यह उपनयसे रहित है। उपनयके अभावसे 'स्याद' पदका अभाव किस तरह हो सकता है ? इस प्रकार कोई पूछे तो उत्तर यह है कि स्य व पदकी प्रधानताके द्वारा उपनय ही व्यवहारका जनक है। किन्तु जब निश्चय नयके द्वारा उपनय प्रलयको प्राप्त करा दिया जाता है तब निश्चय ही प्रकाशित होता है।...प्रश्न-यदि ऐसा है तो अर्थका व्यवहार किस लिए होता है ? उत्तर-असत् कल्पना निवारण करने के लिए और सम्यग् रत्नत्रयकी सिद्धिके लिए अर्थका व्यवहार होता है।...निश्चयको ग्रहण करते हुए भी अन्यके मतका निषेध नहीं करता । २, अन्यत्र भेदके द्वारा उपचार होनेसे उपचारसे स्यात् शब्दकी अपेक्षा करता है। उसी प्रकार व्यवहार करने योग्यमें भी सर्वथा भेद माननेपर उन दोनों के द्रव्यपनेका अभाव होता है। इतना विशेष है कि सर्वथा अभेद मान लेनेपर व्यवहारके माननेपर भी संकर वगैरह दोष सम्भव है। ऐसा न माननेपर कर्ता कारक वगै रहकी उत्पत्ति नहीं होती है इस प्रकार व्यवहार लोपका प्रसंग आता है। ३. स्यास्कारका प्रयोग धर्मों में होता है गुणोंमें नहीं स्या. म./२/२६५ स्यान्निशि नित्यं सदृशं विरूपं वाच्यं न वाच्य सदसत्तदेव । विपश्चिता नाथ निपीततत्त्वसुधोगतोगारपरम्परेयम् ।२५।- हे विद्वद्-शिरोमणि ! आपने अनेकान्त रूपी अमृतको पीकर प्रत्येक वस्तुको कथंचित् अनित्य, कथ चित नित्य, कथंचित सामान्य, कथंचित् विशेष, ' कथंचित वाच्य, कथंचित् अवाच्य, कथं चित सत और कथंचित् असतका प्रतिपादन किया है ।२५। तथा इसी प्रकार सर्वत्र ही 'स्यारकार'का प्रयोग धर्मों के साथ किया है, कहीं भी अनुजोवी गुणों के साथ नहीं किया गया है (दे. सप्तभंगी)।
श्लो. वा. २/भाषा/१/६/५६/४६३/१३ स्याद्वाद प्रक्रिया आपेक्षिक धर्मों में प्रवर्तती है । अनुजीवी गुणों में नहीं।
४. स्यात्कार भावमें आवश्यक है शब्दमें नहीं यु. अनु./४४ तथा प्रतिज्ञाशयतोऽप्रयोग:४४ = स्यात् शब्द के प्रयोगकी प्रतिज्ञाका अभिप्राय रहनेसे 'स्यात्' शब्दका अप्रयोग देखा जाता है। क. पा. १/१,१३-१४/६२७२/३०८/५ दवम्मि अवुत्तासेसधम्माण घडावणठ सियासहो जोजेयव्वो। सुत्ते किमिदि ण पउत्तो। ण; तहापईजासयस्स पओआभावे वि सदरथावगमो अस्थि त्ति दोसाभावादो। उत्तं च-तथाप्रतिज्ञाशयतोऽप्रयोगः ।१२६। द्रव्य में अनुक्त समस्त धोके घटित करनेके लिए 'स्यात्' शब्दका प्रयोग करना चाहिए। प्रश्न-'रसकसाओ' इत्यादि सूत्रमें स्यात् शब्द का प्रयोग क्यों नहीं किया है। उत्तर-नहीं, क्योंकि स्यात् शब्दके प्रयोगका अभिप्राय रखनेवाला वक्ता यदि स्याव शब्द का प्रयोग न भी करे तो भी उसके अर्थका ज्ञान हो जाता है अतएव स्यात् शब्द का प्रयोग नहीं करनेपर भी कोई दोष नहीं है, कहा भी है- स्यात् शब्दके प्रयोगकी प्रतिज्ञाका अभिप्राय रखनेसे 'स्यात' शब्दका अप्रयोग देखा जाता है। ध.१/४,१,४५/१८३/हन चैतेषु सप्तस्वपि वाक्येषु स्याच्छब्दप्रयोगनियमः, तथा पतिज्ञाशयादप्रयोगोपलम्भान् । सातों ही वाक्यों में (सप्तभंगी सम्बन्धी) 'स्यात्' शब्दके प्रयोगका नियम नहीं है, क्योंकि वैसी प्रतिज्ञाका आशय होनेसे अप्रयोग पाया जाता है । दे. स्याद्वाद/४/२ स्याद पदसे रहित होनेपर भी निश्चय नयके
निश्चयाभासपना नहीं है क्योंकि यह उपनयसे रहित है। श्लो. वा. २/१/६/ श्लो. ५६/४५७ सोऽप्रयुक्तोऽपि वा तज्ज्ञैः सर्वत्रार्थात्प्र. तीयते। तथैवकारो योगादिव्यवच्छेदप्रयोजनः ॥५६॥ = स्यात् शब्द प्रत्येक वाक्य या पद में नहीं बोला गया भी सभी स्थलोंपर स्याद्वादको जाननेवाले पुरुषों करके प्रकरण आदिकी सामर्थ्य से प्रतीत कर लिया जाता है। जैसे कि अयोग अन्ययोग और अत्यन्तायोगका व्यवच्छेद करना है प्रयोजन जिसका ऐसा एवकार बिना कहे भी प्रकरणवश समझ लिया जाता है। (स्या. म./२३/२७६/E), (स. भ.त. ३१/२ पर उधृत)। ५. कथंचित् शब्दके प्रयोग स्व. स्तो./मू./४२ तदेव च स्यान्न तदेव च स्यात् तथा प्रतीतेस्तव तत्कथ चित ॥ नात्यन्तमन्यत्वमनन्यता च विधेनिषेधस्य च शून्यदोषात ।४२। आपका वह तत्त्व कथं चित् तद्रूप ( सद्रूप) है और कथाचित तद्रूप नहीं है. क्योंकि वैसी ही सत-असत रूपकी प्रतीति होती है। स्वरूपादि-चतुष्टय रूप विधि और पररूपादि चतुष्टय रूप निषेधके परस्पर में अत्यन्त भिन्नता तथा अभिन्नता नहीं है क्योंकि सर्वथा ऐसा माननेपर शून्य दोष आता है ।४२। रा. वा./२/८/१८/१२२/१५ सर्वस्य वागर्थस्य विधिप्रतिषेधात्मकत्यात, न हि किचिद्वस्तु सर्वनिषेधगम्यमस्ति । अस्ति त्वेतत उभयात्मकम्. यथा कुरकका रक्तश्वेतव्युदासेऽपि नावर्णा भवन्ति नापि रक्ता एव श्वेता एव वा प्रतिषिद्धत्वात। एवं वस्त्वपि परात्मना नास्तीति प्रतिषेधेऽपि स्वात्मना अस्तीति सिद्धः । तथा चोक्तम्-अस्तित्यमुपलब्धिश्च कथं चिदसतः समृतेः । नास्तितानुपलब्धिश्च कथं चित्सत एव ते ।। सर्वथैव सतो नेमौ धौं सर्वात्मदोषतः । सर्वथैवासतो नेमी वाचां गोचरताप्रत्ययात् ।। =जितने भी पदार्थ शब्दगोचर हैं वे सब विधि-निषेधात्मक हैं। कोई भी वस्तु सर्वथा निषेध गम्य नहीं होती। जैसे कुरवक पुष्प लाल और सफेद दोनों रंगोंका होता है। न केवल रक्त ही होता है, न केवल श्वेत ही होता है और न ही वह वर्ण शून्य है। इस तरह परकी अपेक्षासे वस्तुमे नास्तित्व होनेपर भी स्व दृष्टि से उसका अस्तित्व प्रसिद्ध ही है। कहा भी है
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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