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साधु
प्रायश्चित /४/२)। वे अज्ञानी हैं, केवल नग्न हैं, वह पति भी नहीं है और न आचार्य है | २२| जो मुनि कुल, गाँव, नगर और राज्यको छोड़कर उनमें पुनः प्रेम करता है अर्थात उनमें मेरेपनेकी बुद्धि करता है, वह केवल नग्न है, संयमसे रहित है | २६३ | ( भ आ / मू. । १११६ - १३२५ )
र. सा/ १०६ ९९४ देहादिसु
अपुरता विश्वासत्ता कसायसंजुत्ता।
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सहावे सुता ते साहू सम्मपरिचता १०६ संघविरोहकुसीला सदा रहियगुरुकुला मृदा माइया ते विधम्मविराहिया साहू [१०] सति वरवति अप्पा अप्पमाह । जिम्म निमिषं कुति ते साहू सम्म उम्मुक्का ॥ ११४॥ जो मुनि शरीर भोग व सांसारिक कार्योंमें अनुरक्त रहते हैं, जो विषयोंके सदा अधीन रहते हैं, कषायों को धारण करते हैं, आत्मस्वभाव में हैं. वे साधु सम्यक्व रहित है । १०६ । (भ. आ // १२१६-१२४०) जो संघसे विरोध करता है, कुशील सेवन करता है, स्वच्छन्द रहता है, गुरुकुल में नहीं रहता, राजा आदिकी सेवा करता है वह अज्ञानी है, जिनधर्म का विराधक है | १०८ | जो दूसरेके ऐश्वर्य व अभिमानको सहन नहीं करता, अपनी महिमा आप प्रगट करता है और वह भी केवल स्वादिष्ट भोजनकी प्राप्ति के लिए वह साधु सम्यक्त्व रहित है ११४
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दे. मंत्र / १/३ [ मंत्र, तंत्र, ज्योतिष, वैद्यक, उच्चाटन, वशीकरण आदि करनेवाला साधु नहीं है । ]
दे. श्रुतवली / १/३ [ विद्यानुवादके समाप्त होनेपर आयी हुई रोहिणी आदि विद्याओंके द्वारा दिखाये गये प्रसोधनमें जो नहीं आते हैं ये अभिन्न दश पूर्वी है और होमको प्राप्त हो जानेवाले भिन्न
हैं।
दे साधु /५/०] [] पार्श्वस्यादि मुनियोंका आचार ]
२. अयथार्थ साधु श्रावकसे भी होन है।
भाषा // ९५४ सेनिय भणामि हे जे सयासी जमगुणेहिं । महुदोसाणावास सुमतिचितो व सावयसमो सो ॥१५३
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और संयम की कहासे पूर्व है उसीको हम मुनि कहते हैं परन्तु जो बहुत दोषों का आवास है तथा मलिन चित्त है वह श्रावकके समान भी नहीं है।
दे. निदा/६ [ मिध्यादृष्टि न स्वच्छन्द पलिंगी साधुओंको, पाच श्रमण, नट श्रमण, पाप जीव, तिर्यंचयोनि, नारद, लौकिक, अभव्य, राजवल्लभ, नौकर आदि निन्दनीय नाम दिये गये हैं । ]
३. अवधार्थ साधु दुःखका पात्र
भा. पा // १०० पार्वति आवमा पर पराई सोमलाई दुखाई दवसवणार तिरियकुदेवजोणीए । १००१ - भावश्रमण तो कल्याणकी परम्परा रूप सुखको पाता है और द्रव्य श्रमण तिथंच मनुष्य व कुदेव योनियों में दुख पाता है । ९०००
४. अयथार्थं साधु से यथार्थ श्रावक श्रेष्ठ है
भ. / / ३५४/५५६ वासरथसदसहस्यादो विसीलो वरं तु एक्को वि । जं संसिदस्स सीलं दंसणणाणचरणाणि वद्वंति | ३५४ | [पासस्य सदसहस्सादों व पार्श्वस्थ ग्रह चारित्रद्रोपलक्षणार्थं । (वि. टोका) ] यहाँ पार्थस्य शब्दले चारिथहीन मुनियाँका ग्रहण समझना चाहिए अर्थात् चारित्रहीन मुनि संज्ञामधि हो तो भी एक सुशीख मुनि उनसे समझना चाहिए। कारण कि सुशील मुनीश्वर के आश्रयसे शील, दर्शन, ज्ञान और चारित्र बढ़ते हैं।" र. क. श्रा / २३ - गृहस्थी मोक्षमार्गस्थ निर्मोही नै मोहबाद अनगारों गृही याच निर्मोही मोहिनी मुनेः ३३| दर्शनमोहरहित गृहस्थ भी मोक्षमार्ग में स्थित है किन्तु मोहबाद मुनि भी मोक्षमार्ग में स्थित नहीं है। इस कारण मोही मुनिसे निर्मोही सम्प]ि गृहस्थ श्रेष्ठ है।
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५. पुलाक व पार्श्वस्थ आदि साधु
दे. विनय / ५ / ३ [ इस निकृष्ट कालके श्रावकोंमें तो किसी प्रकार श्रावकपना बन भी जाता है पर अयथार्थ मुनियोंमें किसी प्रकार भी मुनिपना सम्भव नहीं । ]
५. पुलाक व पार्श्वस्थ आदि साधु
१. पुलाकादिमें संयम श्रुतादिकी प्ररूपणा
प्रमाण - (स.सि./१/४०/४६२/- ) ( रा. बा./२/४०/४/६३० / ३२); (चा, सा / १०३ /२) ।
संकेत - ← = इसके समान : सा. सामायिक संयमः छेद छेदोपस्थाप] संयम परि परिहार विशुद्धि संयमः सूक्ष्मसूक्ष्म साम्प्राय संयम ।
अनुयोग
संयम
gat
उत्कृष्ट
जघन्थ
तीर्थ
लिए
भाव
द्रव्य
सेश्या
उपपाद
उत्कृष्ट
जघन्य
पुलाक
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
सामायिक व छेदो
१० पूर्व
आचार
अष्ट प्रवचन माता
वस्तु प्रति सेवना बलात्कार उपकरणों- उत्तर वश महा की आकांक्षा गुणों में (विराधना ) व्रतों तथा व शरीर- कदारात्रिभुक्ति संस्कार
चिय
में कदाचित
सब तीर्थ
बाँके
तीर्थ में
वकुश
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कुशीत
यहाँ
सहस्रार अच्युत
सौधर्म
प्रति
सेवना
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सा., छेद यथाख्यात
परि, सूक्ष्म.
← १४ पूर्व
←
कषाय
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↓
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←
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निर्ग्रन्थ
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सर्वार्थ सिद्धि
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भावलिंग
परस्पर भेद है - कोई आहार करे, कोई तप करे, कोई उपदेश करे, कोई अध्ययन करे, कोई तीर्थ विहार करे, कोई अनेक आसन करे, किसीको दोष लगे, कोई प्रायश्चित से, किसीको दोष नहीं लगे, कोई आचार्य है. कोई उपाय है, कोई है, कोई निर्यापक है, कोई वैयावृत्त्य करे, कोई ध्यानकर श्रेणी मांडे, कोई केवलज्ञान जाने किसी को बड़ी विकृति व महिमा होय इत्यादि माहा प्रवृत्तिकी अपेक्षा लिंग भेद हैं
( रा. वा. / हि.) । तीन शुभ
← अन्तिम शुक्ल
४- (सूक्ष्म - सांप के
केवल
(शुक्र)
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स्नातक
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• केवलज्ञान
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मोक्ष
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