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सासादन
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सूचीपत्र
(फुल्लारोवण-धूबदहणादिवावारेहि जोवबहाविणाभावी हि विणा पूजकरणाणुववत्तीदो । कथं सोलरक्खणं सावज्जं । ण; सदारपीडाए विणा सीलपरिवालणाणुववत्तीदो। कधमुबवासो सावजो। ण; सपोट्टत्थपाणिपीडाए विणा उववासाणुववत्तीदो। = दान, पूजा, शील और उपवास ये चार श्रावकोंके धर्म हैं। ये चारों ही प्रकारका श्रावक धर्म छह कायके जीवोंकी विराधनाका कारण है। क्योंकि भोजन का पकाना, दूसरेसे पकवाना, अग्निका सुलगाना, अग्निका जलाना, अग्निका खूतना और खुतबाना आदि व्यापारोंसे होनेवाली जीव विराधनाके बिना दान नहीं बन सकता है। उसी प्रकार वृक्षका काटना और कटवाना, इंटका गिराना और गिरवाना, तथा उनको पकाना और पकवाना आदि छह कायके जीवोंकी विराधनाके कारणभूत व्यापारके बिना जिनभवनका निर्माण करना अथवा करवाना नहीं बन सकता है। तथा अभिषेक करना, अबलेप करना, सम्मान करना, चन्दन लगाना, फूल चढ़ाना और धूपका जलाना आदि जीववध के अविनाभावी व्यापारी के बिना पूजा करना नहीं बन सकता है। अपनी स्त्रीको पीड़ा दिये बिना शीलका परिपालन नहीं हो सकता है, इसलिए शीलकी रक्षा भी साबध है । अपने पेटमें स्थित प्राणियोंको पीड़ा दिये बिना उपवास बन नहीं सकता है, इस लिए उपवास भी सावध है। * सावध होते हुए भी पूजा करना इष्ट है-दे. धर्म/१२।
८. साधुओंको सावध योगका निषेध व समन्वय मू. आ./७६८-८०१ वसुधम्मिवि विहरता पीडं ण करेंति कस्सइ
कयाई । जीवेसु दयाववण्णा माया जह पुत्तभंडेसु १७६८। तणरुक्खहरिच्छेदणतयपत्तपवालकंदमूलाई। फलपुप्फत्रीयघाद ण करिति मुणी ण कारिति ।०१-सब जीवों में दयाको प्राप्त सब साधु पृथिवीपर बिहार करते हुए भी किसी जीवको कभी भी पीड़ा नहीं करते हैं। जैसे माता पुत्र के ऊपर हित ही करती है उसी तरह सब का हित ही चाहते हैं ।७६८। मुनिराज तृण वृक्ष हरित इनका छेदन, वल्कल पत्ता कोंपल कन्द मूल इनका छेदन तथा फल, पुष्प, बीज इनका घात न तो आप करते हैं और न दूसरे से कराते हैं।८०१॥ प्र. सा./मू./२५० जदि कुणदि कायखेदं वेजावच्चत्थमुज्जदो समणो ।
ण हव दि हवदि अगारी धम्मो सो सावयाणं से ।२५०। प्र. सा./ता. वृ./२५०/३४४/१३ इदमत्र तात्पर्यम् - योऽसौ स्वपोषणार्थ शिष्यादिमोहेन वा सावद्य' नेच्छति तस्येदं व्याख्यान शोभते यदि पुनरन्यत्र साबद्यमिच्छति वैयावृत्त्यादिस्वकीयाबस्थायोग्ये धर्म कार्ये नेच्छति तदा तस्य सम्यक्त्वमेव नास्ति । - यदि (श्रमण ) वैयावृत्तिके लिए उद्यमी वर्तता हूआ छह कायको पीडित करता है तो वह श्रमण नहीं है, गृहस्थ है; क्योंकि, वह श्रावकोंका धर्म है ।२५०। इसका यह तात्पर्य है कि--जो अपने पोषणके लिए या शिष्यादिके मोहसे सावधकी इच्छा नहीं करता उसको तो यह उपरोक्त व्याख्यान शोभा देता है, परन्तु यदि अन्य कार्यों में तो सावद्यकी इच्छा करे और अपनी-अपनी भूमिकानुसार वैयावृत्ति आदि धर्मकार्योकी इच्छा न करे तो उसके सम्यक्त्य ही नहीं है।
* श्रावकको सावध योगका निषेध-दे. सावध/२/२। सासादन-प्रथमोपशम सम्यक्त्वके काल में छह आवली शेष रहनेपर जीव सम्यक्त्वसे गिर कर उतने मात्र कालके लिए जिस गुण. स्थानको प्राप्त होता है उसे सासादन कहते हैं, अगले ही क्षण वह अवश्य मिथ्यात्वको प्राप्त हो जाता है। मिथ्यात्वका उदय न होनेसे उसे सम्यग्दृष्टि कह देते हैं। मिथ्यात्वका उदय उपशम व क्षय तीनों ही नहीं हैं,इसलिए इसे पारिणामिक भाव कहा जाता है।
|| सासादन सामान्य निर्देश
सासादन सम्यग्दृष्टिका लक्षण । मिथ्यादृष्टि आदिसे पृथक सासादनदृष्टि क्या। सासादनको सम्यग्दृष्टि व्यपदेश क्यों। सासादन में तीनों ज्ञान अज्ञान क्यों । सासादन अनन्तानुबन्धीके उदयसे होता है। सासादन पारिणामिक भाव कैसे। अनन्तानुबन्धीके उदयसे औदायिक क्यों नहीं ।
इसे कथचित् औदयिक भी कहा जा सकता है। ९ सासादन गुणस्थानका स्वामित्व । एके. विक. व असंशियोंमें सासादन गुणस्थानकी उत्पत्ति अनुत्पत्ति सम्बन्धी चर्चा ।
-दे. जन्म/४। सासादन गुणस्थानमें मारणान्तिक समुद्घात
सम्बन्धी कुछ नियम । | सासादनके रवामियों में जीवसमास मार्गणास्थान आदि बीस प्ररूपणाएँ।
- स. सासादन जीवों सम्बन्धी सत् संख्या क्षेत्र स्पर्शन
काल अन्तर भाव अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ।
-दे. वह वह नाम । मार्गणाओंमें सासादनके अस्तित्व सम्बन्धी शंकासमाधान।
-दे. वह वह नाम । सभी गुणस्थानोंमें आयके अनुसार व्यय होनेका नियम ।
-दे. मार्गणा। इस गुणस्थानमें कर्म प्रकृतियोंका बन्ध उदय सत्त।
-दे. वह वह नाम। सासादनके आरोहण व अवरोहण सम्बन्धी उपशम सम्यक्त्वपूर्वक ही होता है। प्रथमोपशमके कालमें कुछ अवशेष रहनेपर
होता है। उपशममें शेष बचा काल ही सासादनका
काल है। उक्त कालसे हीन या अधिक शेष रहने पर
सासादनको प्राप्त नहीं होता। सासादन गुणस्थानमें मरण सम्बन्धी।
-दे. मरण/३। द्वितीयोपशमसे साप्तादनकी प्राप्ति अप्राप्ति
सम्बन्धी दो मत । द्वितीयोपशम पूर्वक होनेमें काल आदिके सर्व
नियम पूर्ववत् हैं। -दे. सासादन/२/५। द्वितीयोपशमसे दो बार सासादनकी प्राप्ति सम्भव ___ नहीं।
-दे. अन्तर/२/४ | ६ सासादनसे अवश्य मिथ्यात्वकी प्राप्ति ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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