Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 459
________________ स्त्रीकथा २ स्थान है तथापि जो स्त्रियाँ निर्मल हैं और पवित्र यम, नियम, स्वाध्याय, तिरछी नजरों से देखना, हँसना, मदभरी धीमी चालसे चलना और चारित्रादिमे विभूषित हैं और वैराग्य-उपशमादि पवित्राचरणोंसे । कामबाण मारना आदिको विफल कर दिया है उसके स्त्री बाधा परीषह पवित्र हैं वे निन्दा करने योग्य नहीं हैं। क्योंकि निन्दा दोषोंकी जय समझनी चाहिए। (रा. वा./६//१३/६१०/७); (चा, सा./ की जाती है, किन्तु गुणोंकी निन्दा नहीं की जाती ॥१॥ ११६/१)। गो. जो./जी.प्र./२७४/५६६/४ यद्यपि तीर्थ करजनन्यादीना कासाचित् स्त्रीवेद-दे. स्त्री। सम्यग्दृष्टीना एतदुक्तदोषाभावः, तथापि तासां दुर्लभत्वेन सर्वत्र सुलभ स्त्री संगति-दे. सगति । प्राचुर्यव्यवहारापेक्षया स्त्रोलक्षणं निरुक्तिपूर्वकमुक्तम् । यद्यपि तोर्थ ङ्करकी माता आदि सम्यग्दृष्टिणी स्त्रियों में दोष नहीं है तथापि स्थपति-चक्रवर्तीके चौदह रत्नों में से एक-दे. शलाकापुरुष/२। वे स्त्रो थोड़ी हैं और पूर्वोक्त दोषों से युक्त स्त्री घनी है, इसलिए प्रचुर । स्थलगता चूलिका-अंगश्रुतज्ञानका एक भेद-दे. श्रुतज्ञान/III. व्यवहारकी अपेक्षा स्त्रीका ऐसा लक्षण कहा। स्थविर कल्प-गो, जी./जी. प्र./५४७/७१४/६ पञ्चमकालस्थविर* मोक्षमार्गमें स्त्रीत्वका स्थान-दे. वेद/६,७। करपालपसंहननसंयमिषु त्रयोदशधोक्तं। पंचमकाल में स्थविरकल्पी १०. स्त्रियोंके कर्तव्य होन संहननके धारी साधुको तेरह प्रकारका चारित्र कहा है। स्थविरवादी मत-दे.बौद्धदर्शन। कुरल./६/१,६,७ यस्यामस्ति सुपत्नीत्वं सैवास्ति गृहिणी सती। गृहस्यायमनालोच्य व्ययते न पतिवता आहता पतिसेवाया रक्षणे स्थान-१. स्थान सामान्यका लक्षण कीर्तिधर्मयोः। अद्वितीया सतां मान्या पत्नी सा पतिदेवता । १. अनुभागके अर्थमें गुप्तस्थाननिवासेन स्त्रीणां नैव सुरक्षणम् । अक्षाणां निग्रहस्तासा केवलो धर्मरक्षकः 11वही उत्तम सहसमिणी है, जिसमें सुपत्नीत्वके ध.५१,७,१/१८६/१ किं ठाणं 1 उत्पत्ति हेऊ द्वाणं । - भावकी उत्पत्तिके सब गुण वर्तमान हो और जो अपने पतिकी सामर्थ्य से अधिक व्यय कारणको स्थान कहते हैं। नहीं करती।१। वही उत्तम सहधर्मिणी है जो अपने धर्म और यशकी ध.६/१,६-२.१/७६/३ तिष्ठत्यस्यां संख्यायामस्मिन् वा अवस्थाविशेषे रक्षा करती है, तथा प्रेमपूर्वक अपने पतिदेव की आराधना करती है प्रकृत्तयः इति स्थानम् । ठाणं ठिदी अवट्ठाणमिदि एयट्ठो। -जिसमें ६। चार दिवारीके अन्दर पर्देके साथ रहनेसे क्या लाभ ? स्त्रोके धर्म संख्या, अथवा जिस अवस्था विशेषमें प्रकृतियाँ ठहरती हैं, उसे स्थान का सर्वोत्तम रक्षक उसका इन्द्रिय निग्रह है। कहते हैं। स्थान, स्थिति और अवस्थान तीनों एकार्थक हैं। घ. १२/४,२,७,२००/१११/१२ एगजीवम्मि एक्कम्हि समए जो दीसदि ११. स्त्री पुरुषकी अपेक्षा कनिष्ठ मानी गयी है कम्माणुभागो तं ठाणं णाम । = एक जीवमें एक समयमें जो कर्मानभ, आ./वि/४२१/६१५/६ पर उद्धृत-जेणिच्छी लघुसिगा परप्पसज्झा भाग दिखता है उसे स्थान कहते हैं। य पच्छणिज्जा य। भीरु पररक्खणज्जेत्ति तेण पुरिसो भवदि __ गो.क./जी. प्र./२२६/२७२/१० अविभागप्रतिच्छेदसमूहो वर्गः, वर्गसमूहो जेट्ठो। -स्त्रियाँ पुरुषसे कनिष्ठ मानी गयी हैं, वे अपनी रक्षा स्वयं वर्गणा। वर्गणासमूहः स्पर्धकं । स्पर्धकसमूहो गुणहानिः । गुणहानिनहीं कर सकतीं, दूसरोंसे इच्छो जाती हैं। उनमें स्वभावतः भय समूहः स्थान मिति ज्ञातव्यम् । = अविभाग प्रतिच्छेदोंका समूह वर्ग, रहता है, कमजोरी रहती है, ऐसा पुरुष नहीं है अतः वह ज्येष्ठ है। वर्गका समूह वर्गणा, वर्गणाका समूह स्पर्धक, स्पर्धकका समूह गुण __ हानि और गुणहानिका समूह स्थान है। १२. धर्मपत्नीके अतिरिक्त अन्य स्त्रियोंका निषेध ल. सा./भाषा./२८५/२३६/१२ एक जीक एक कालविरे (प्रकृति बन्ध, अनुभाग बन्ध आदि) संभ ताका नाम स्थान है। ला सं./२ श्लोक नं. भोगपत्नी निषिद्धा स्यात सर्वतो धर्मवेदिनाम् । २. जगह विशेषके अर्थमें ग्रहणस्याविशेषेऽपि दोषो भेदस्य संभवात् ।१८७। एतत्सर्व परिज्ञाय स्वानुभूतिसमक्षता। पराङ्गनासु नादेया बुद्धि(धनशालिभिः१२०७४ ध. १३/५,५,६४/३३६/३ समुद्रावरुद्धः व्रजः स्थानं नाम निम्नगावरुद्धं =भागपत्नीके सेवन से अनेक प्रकारके दोष होते हैं, जिनको भगवान् वा। समुद्रसे अवरुद्ध अथवा नदीसे अवरुद्ध ब्रजका नाम स्थान है। सर्वज्ञ ही जानते हैं। भोगपत्नीको दासीके समान बताया है। अतः अन, ध./3/८४ स्थीयते येन तत्स्थानं वन्दनायां द्विधा मतम् । उद्भीदासीके सेवन करने के समान भोगात्तीके भोग करनेसे भी वज्रके लेप भावो निषद्या च तत्प्रयोज्यं यथाबलम् ।८४। -(वन्दना प्रकरणमें) समान पापोंका संचय होता है ।१८७१ अपने अनुभव और प्रत्यक्षसे इन वन्दना करनेवाला शरीरकी जिस आकृति अथवा क्रिया द्वारा एक ही. सब परस्त्रियोंके भेदों को समझकर बुद्धिमानोंको परस्त्री में अपनी बुद्धि जगहपर स्थित रहे उसको स्थान कहते हैं...।८।। कभी नहीं लगानी चाहिए ।२०७। २. स्थानके भेद-१. अध्यात्म स्थानादि *स्त्री सेवन निषेध-दे. ब्रह्मचर्य ३। स. सा /मू./५२-५५ ....णो अज्झप्पट्ठाणा व य अणुभायठाणाणि ॥५२॥ स्त्रीकथा-दे. कथा । जीवस्स णस्थि केई जोयट्ठाणा ण बंधठाणा-वा। णेव य उदयट्ठाणा ण मग्गणठाणया केई।५३ णो ठिदिबंधाणा जीवस्स ण संकिलेसठाणा स्त्री परिषह-स. सि./६/६/४२२/११ एकान्तेष्वारामभवनादिप्रदे- वा। णेव विसोहिट्ठाणा णो संजमल द्धिठाणा वा ५४। णेव य शेषु नवयौवनमदविभ्रममदिरापानप्रमत्तासु प्रमदासु बाधमानासु कूर्म- जीवट्ठाणा ण गुणट्ठाणा य अस्थि जीवस्स। जेण. दु एदे सव्वे वत्संवृतेन्द्रियहृदयविकारस्य ललितस्मितमृदुकथितसविलासवीक्षण- पुग्गल दव्वस्स परिणामा।। -जीवके अध्यात्म स्थान भी नहीं हैं प्रहसनमदमन्थरगमनमन्मथशरव्यापारविफलीकरणस्य स्त्रीबाधापरि- और अनुभाग स्थान भी नहीं है ।१२। जीवके योगस्थान भी नहीं, बहसहनमवगन्तव्यम् । =एकान्त ऐसे बगीचा तथा भवनादि स्थानों बंधस्थान भी नहीं, उदयस्थान भी नहीं, कोई मार्गणास्थान भी पर नवयौवन, मदविभ्रम और मदिरापानसे प्रमत्त हुई स्त्रियों के द्वारा नहीं है ।५३। स्थितिबन्धस्थान भी नहीं, अथवा संवलेश स्थान भी बाधा पहुँचाने पर करके समान जिसने इन्द्रिय और हृदयके विकार- नहीं, विशुद्धि स्थान भी नहीं, अथवा संयम लब्धि स्थान भी नहीं है को रोक लिया है तथा जिसने मन्द मुसकान, कोमल सम्भाषण, ११४। और जीवके जीव स्थान भी नहीं अथवा गुणस्थान भी नहीं है, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551