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स्थिति
२. स्थितिबन्ध निर्देश
.. अग्रव उपरितन स्थितिके लक्षण
८. विचार स्थानका लक्षण
१. अग्र स्थिति
ध. १४/५.६.३२०/३६७/४ जहण्णणिबत्तीए चरिमणिसे ओ अग्गं णाम । तस्स द्विदी जहणिया अग्गद्विदि त्ति घेत्तव्वा । जहण्णणिव्वत्ति त्ति भणिदं होदि। -जघन्य निवृतिके अन्तिम निषेककी अग्रसंज्ञा है। उसकी स्थिति जघन्य अपस्थिति है ।...जघन्य निवृत्ति (जघन्य आयुषन्ध) यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
ध,६/१६-4,६/९५० पर उदाहरण वीचारस्थान-(उत्कृष्ट स्थिति-जघन्य स्थिति) या अबाधाके
भेद-१ तहाँ अवाधाके भेद-( उत्कृष्ट स्थति-जधन्यस्थिति+१)
आबाधा काण्डक अबाधा काण्डक- उत्कृष्ट स्थिति
उत्कृष्ट आबाधा जैसे यदि उत्कृष्ट स्थिति-१४; जघन्य स्थिति-४५. उत्कृष्ट आधाधा १६: आबाधा काण्डक-३४-४ तो ६४-६१ तक ४ स्थिति भेदों का एक आबाधा काण्डक (ii) ६०-५७ , " " " " " . (iii)५६-५३, , . , . . " " (iv) १२-४६.. " " " " " "
२. उपरितन स्थिति मो. जी./भाषा,/६७/१७६/१० वर्तमान समय तै लगाइ उदयावलीका काल, ताकै पीछे गुण श्रेणी आयाम काल, ताके पीछे अवशेष सर्व स्थिति काल, अन्त विषै अतिस्थापनावली मिना सो उपरितन स्थितिका काल, तिनिके निषेक पूर्व थे तिनि विष मिलाइए है। सो यह मिलाया हुआ द्रव्यपूर्व निषेकनिके साथ उदय होइ निर्जर है, ऐसा भाव जानना । (ल. सा./भाषा./६६/१०४ )। गो. जो./अर्थ संदृष्टि/पृ. २४ ताके ( उदयावली तथा गुण श्रेणीके ) ऊपर (बहुत काल तक उदय आने योग्य ) के जे निषेक तिनिका समूह सो तो उपरितन स्थिति है।
यहाँ आमाधा काण्डक-१: आवाधा काण्डक आयाम-४ आमाधाके भेद =x४-२० वीचार स्थान-२०-१-१६ या ६४-४५-१६
५. सान्तर निरन्तर स्थितिके लक्षण
गो. क./भाषा./६४५.६४६/२०५४-२०५५ सान्तरस्थिति उत्कृष्ट स्थिति तै लगाय-जघन्य स्थिप्ति पर्यन्त एक-एक समय धाटिका अनक्रम लिये जो निरन्तर स्थितिके भेद...(१४५/२०१४)। सान्तर स्थितिमान्तर कहिए एक समय घाटिके नियम करि रहित ऐसे स्थिति
२. स्थितिबन्ध निर्देश
१. स्थितिबन्धमें चार अनुयोग द्वार परख११/४,२,६/सू. ३६/१४० एत्तो मूलपयडिदिदिबंधे पुव्वं गमणिज्जे तत्थ इमाणि चत्तारि अणियोगद्दाराणि द्विदिबंधाणप्ररूवणा णिसेयपरूवणा आवाधाकंडयपरूवणा अप्पाबहए ति।३६-आगे मूल प्रकृति स्थितिमन्ध पूर्वमें ज्ञातव्य है। उसमें ये चार अनुयोगद्वार हैं-स्थिति बन्धस्थान प्ररूपणा, निषेक-प्ररूपणा, आबाधा काण्डक प्ररूपणा, और अस्प बहुत्व।
क्ष. सा./भाषा/५८३/६६/१६ गुण श्रेणि आयामके ऊपरवर्ती जिनि प्रदेशनिका पूर्व अभाव किया था तिनिका प्रमाण रूप अन्तरस्थिति है।
२. भवस्थिति व कायस्थितिमें अन्तर रा. वा./३/३६/६/२१०/३ एकभव विषया भवस्थितिः। कायस्थितिरेककायापरित्यागेन नानाभवग्रहणविषया ।-एक भवकी स्थिति भवस्थिति कहलाती है और एक कायका परित्याग किये बिना अनेक भवविषयक कायस्थिति होती है।
१. प्रथम व द्वितीय स्थितिके लक्षण क्ष. सा./भाषा./५८३/६६/१७ ताके उपरिवर्ती । अन्तर स्थितिके
उपरिवर्ती ) अवशेष सर्व स्थिति ताका नाम द्वितीय स्थिति है। दे. अन्तरकरण/१/२ अन्तरकरणसे नीचेकी अन्तर्मुहर्तमित स्थितिको प्रथम स्थिति कहते हैं और अन्तरकरणसे ऊपरकी स्थितिको द्वितीयस्थिति कहते हैं।
३. एकसमयिक बन्धको बन्ध नहीं कहते
ध. १३/५,४.२४/५४/५ ठिदि-अणुभागबंधाभावेण मुक्ककुडू परिवत्तवा.
लुबमुठ्ठि व्व जीवसंबंधविदियसमए चेव णिवदंतस्स बंधववएसविरोहादो। स्थिति और अनुभाग बन्धके बिना शुष्क भीतपर फैकी गयी मुट्ठीभर बालुकाके समान जीवसे सम्बन्ध होनेके दूसरे समयमें ही पतित हुए सातावेदनीय कर्मको बन्ध संज्ञा देनेमें विरोध आता है।
७. सादि अनादि स्थितिके लक्षण
पं.स./प्रा./टी./४/३६०/२४३/१६ सादिस्थितिबन्धः यः अबन्ध स्थितिमन्ध बध्नाति स सादिबन्धः। अनादिस्थितिबन्धः, जीवकर्मणोरनादिबन्धः स्यात् ।-विवक्षित कर्मकी स्थितिके बन्धका अभाव होकर पुनः उसके बंधनेको सादि स्थितिमन्ध कहते हैं। गुणस्थानों में बन्ध व्युच्छित्तिके पूर्वतक अनादि कालसे होनेवाले स्थितिबन्ध को अनादिस्थितिबन्ध कहते हैं।
१. स्थिति व अनुभाग बन्धकी प्रधानता रा. वा./4/३/७/५०७/३१ अनुभागबन्धो हि प्रधानभूतः तन्निमित्तत्वाव सुखदुःखविपाकस्य । - अनुभागबन्ध प्रधान है, वही सुख-दुःख रूप फलका निमित्त होता है।
भा०४-५८
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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