Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 479
________________ स्नेहा विचार उत्पन्न होती है उससे पुद्गल स्निग्ध कहलाता है। ... स्निग्ध पुद्गलका धर्म स्निग्धस्व है । स्नेहातिचार - दे. अतिचार / ३ | स्पर्धक — कर्म स्कन्धमें उसके, अनुभाग में, जीवके कषाय व योग में तथा इसी प्रकार अन्यत्र भी स्पर्धक संज्ञाका ग्रहण किया जाता है । किसी भी यके प्रदेशों में अथमा उसको शक्तिके अंशोंमें जघन्यसे उत्कृष्ट पर्यन्त जो क्रमिक वृद्धि या हानि होती है उसीसे यह स्पर्धक उत्पन्न होते हैं । जघन्यसे उत्कृष्ट पर्यन्त समान अविभाग प्रतिच्छेदों के समूहसे एक वर्ग बनता है। ( दे. वर्ग ) समान अविभाग प्रतिच्छेद बा वर्गीक समूहले एक वर्गणा बनती है (दे. वर्गणा) इस प्रकार जघन्यसे लेकर उत्कृष्ट पर्यन्त एक-एक अविभाग प्रतिच्छेद के अन्तरसे वर्गणाएँ प्राप्त होती है, इनके समूहको स्पर्धक कहते हैं। वहाँ भी विशेषता यह है कि जहाँ तक एक एक अविभाग प्रतिच्छेद के अन्तर से प्राप्त होतो ती जायें तहाँ तक प्रथम स्पर्धक है। प्रथम स्पर्धकसे दुगुने अविभाग प्रतिच्छेद प्राप्त होनेपर द्वितीय स्पर्धक और तृतीय आदि प्राप्त होनेगर तृतीय आदि स्पर्धक बनते हैं इसीका विशेष रूपसे स्पष्टीकरण यहाँ किया गया है। 1 ४७२ 1 १. स्पर्धक सामान्यका लक्षण रा.वा./२/२/४/१००/११ः कृता यावदेका विभागप्रतिच्छेदाि कलाभ सरला अन्तरं भवति । एवमेतारा पद्धतीनां विशेष हीनानां क्रमवृद्धिमानानां समुदयः स्पर्धकमित्युच्यते उपरि द्वित्रिचतुःसंख्येयासंख्येयगुणरसा न लभ्यन्ते अनन्तगुणरसा एव । तत्रैकप्रदेशो जघन्यगुणः परिगृहीतः, तस्य चानुभागाविभागप्रतिच्छेदः पूर्वकृत एवं समगुणा वर्गाः समुदिता वा भवति। एकाविभाति दाक्षिकाः पूर्व वर्गा वर्गणाश्च भवन्ति यावदन्तरं भवति तावदेकं स्पर्धकं भवति । एवमनेन क्रमेण विभागे क्रियमाणेऽभव्यानामनन्तगुणानि सिद्धानामनन्तभागमानि स्पर्धकानि भवन्ति। पहले देवर्ग व वर्गणा) इस तरह एक-एक अविभाग प्रतिच्छेद बढ़ा कर वर्ग और वर्गणा समूह रूप वर्गणाएँ राम वनानी चाहिए जब तक अधिक अभिभा मिलता जाये। इन क्रम हानि और क्रम वृद्धि वाली वर्गणाओं के समुदायको स्पर्धक कहते हैं। इसके बाद दो तीन चार संख्यात और असंख्यात गुण अधिक अविभागप्रतिच्छेद नहीं मिलते किन्तु अनन्तगुण अधिक माहीते हैं। फिर उनमें से पुक कमसे समगुण वाले वर्गोंके समुदाय रूप वर्गणा बनाना चाहिए। इस तरह जहाँ तक १९- अधिक अविभाग प्रतिच्छेद कालाभ हो वहाँ तक की वर्ग गाओं के समूहका दूसरा स्पर्धक बनता है। इसके आगे दो, तीन, चार संख्यात असंख्यात गुण अधिक अविभाग प्रतिच्छेद नहीं मिलते हैं। इस तरह सम गुणवाले वर्गों के समुदाय रूप वर्ग णाओंके समूह रूप स्पधक एक उदय स्थान में अभव्यों से अनन्तगुणे तथा सिद्धोंके अनन्त भाग प्रमाण होते है । ( ध. १२ / ४.२,७,२०४ / १४५ / ६ ); ( ध. १४/५, ६.५०६/४३३/६); (गो. जी. / भाषा /५१ / ९५५/६ ): (गो. क. / भाषा/२२६/३१२) क. पा. ३/४-२२/२०१३-४०२/३४४-३४५/१२ एवं दोअविभागपच्छेिइतर चार पंच सत्तादि अविभाग सिमेण अतिपरमाणू स्तूप रादशुभागस्स पण काउग अभवसिद्धिएहिं अनंतागुणं सिद्धाणमणंतभागमे त्तवग्गणाओं उप्पाइय उबरि उवरि रचेदब्बाओ । एवमेत्तियाहि वग्गणाहि एवं फद्दयं होदि विभाग हि कममडीए एगेगपंति पट्ट अहि सादो उपरिमाणू अविभागपच्छेिदसंखं पे महागीए अभावेण विरुद्धाभिगच्छेदसंखादी मा ३७३ पु म फचरिगणा भाहिती एगविभागपहिलो गभागपडिवेवेत्तर परमाणू गरिथ, किंतु सम Jain Education International स्पर्धक जीवेहि अगुवा विभाग अहिवरपरमाणू तत्थ चिरंतणपुज्जे अस्थि । ते घेसूण पढमफद्दयउप्पादकमेण विदियफद्दयनए एवं तदियादिकमेण अभवसिद्धिएहि अनंतगुणं सिद्धागमणं भागमेताणि फट्याणि उप्पादव्याणि एवमेतियकयसण मणिगोजणाशुभाष्ट्ठा होदि पहले देखो द = ( वर्ग वर्गणा) इस प्रकार दो अविभाग प्रतिच्छेद अधिक तीन, चार, पाँच, छह और सात आदि अविभाग प्रतिच्छे अधिक के क्रमसे अवस्थित अनन्त परमाणुओं को लेकर उनके अनुभागका बुद्धिके द्वारा छेदन करके अभय राशिसे अनन्तगुणी और सिद्ध राशिके अनन्त भाग प्रमाण वर्गणाओंको उत्पन्न करके उन्हें ऊपर ऊपर स्थापित करो । इस प्रकार इतनी वर्गणाओंका एक स्पर्धक होता है, क्योंकि वहाँ अविभाग प्रतिच्छेदोंकी अपेक्षा एक एक पंक्तिके प्रति क्रमवृद्धि अवस्थित रूपसे पायी जाती है, अथवा ऊपरके परमाणुओं में अनिभाग प्रतिच्छेदों की संख्याको देखते हुए वहाँ क्रम हानिका अभाव होनेसे इसके विरुद्ध अविभाग प्रतिपेदों की संख्या पायी जाती है। पुनः प्रथम स्पधर्क अन्तिम वर्गणाके एक वर्ग के अविभाग प्रतिच्छेदोंसे एक अभिभाग प्रसव अधिक वाला परमाणु आगे नहीं है, किन्तु सब जीवों से अनन्तगुणे अविभागप्रतिच्छेद अधिक वाले परमाणु उस चिरंतन परमाणु में मौजूद हैं। उन्हें लेकर जिस क्रमसे प्रथम स्पर्धकको रचना की थी उसी क्रमसे दूसरा स्पर्धक उत्पन्न करना चाहिए। इसी प्रकार तीसरे आदि स्पर्धा कोंके क्रमसे अभव्य राशि से अनन्तगुणे और सिद्धराशिके अनन्तवें भागमात्र स्पर्धक उत्पन्न करने चाहिए । इस प्रकार इतने स्पर्धकसमूहसे सूक्ष्म निगोदिया जीवका जघन्य अनुभाग स्थान बनता है। क.पा./५/२-२२/१५०४/२४५ पर विशेषार्थ एक परमाणुमे रहनेवाले उन विभाग प्रतिको वर्ग कहते हैं अर्थात प्रत्येक परमाणु एक एक वर्ग है । उसमें पाये जाने वाले अविभाग प्रतिच्छेदों का प्रमाण संदृष्टिके लिए कल्पना करना चाहिए। पुनः पुनः उन परमाणुओं में से प्रथम परमाणु के समान अविभाग प्रतिच्छेद वाले दूसरे परमाणुको लो और पूर्वोक्त वर्ग के दक्षिण भागमें उसकी स्थापना कर देनी चाहिए 1 ऐसा तब तक करना चाहिए जब तक जघन्य गुणवाले सब परमाणु समाप्त न हों। ऐसा करने पर भी अभव्य राशिसे अनन्तगुणे और सिद्ध राशिके अनन्त भाग प्रमाण वर्ग प्राप्त होते हैं। उनका प्रमाण संदृष्टि रूपमें इस प्रकार है- द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा इन सभी वर्गों की वर्मा संज्ञा है, क्योंकि वोंक समूहको वर्गमा कहते हैं। तत्पश्चात् फिर एक परमाणु लो जिसमें एक अधिक अविभाग प्रतिच्छेद पाया जाता है उसका प्रमाण संदृष्टिमें है । इस क्रम से उस ह परमाणु के समान अविभाग प्रतिच्छेदवाले जितने परमाणु पाये जायें, उनका प्रमाण इस प्रकार है - ६६६ | यह दूसरी वर्गणा है। इसको प्रथम वर्गणा के आगे स्थापित करना चाहिए। इसी प्रकार तीसरी, चौथी, पाँचवी आदि वर्गणाएँ, जो कि एक एक अधिक अविभाग प्रतिच्छेदको लिये हुए है उस करनी चाहिए। इन वर्गाका प्रमाण अभय शक्षिसे अनन्तगुणा और सिद्ध राशिके अनन्दले भाग प्रमाण है। इन सब वर्गणाओंका एक जघन्य स्पर्धक होता है, क्योंकि परमाणुओं के समूहको स्पर्धक कहते हैं। इस प्रथम स्पर्धकको पृथ स्थापित करके परमाणु से एक परमाणुको लेकर बुद्धिके द्वारा उसका छेदन करनेपर द्वितीय स्पर्धककी प्रथम वर्गणाके प्रथम वर्ग उत्पन्न होता है। इस वर्ग में पाये जाने वाले अविभाग प्रतिच्छेदोंका प्रमाण संदृष्टि रूप से १६ है । इस क्रमसे अभव्य राशिसे अनन्त गुणे और सिद्धराशिके अनन्तवें भागमात्र समान अविभाग प्रतिच्छेद वाले परमाणुओं को लेकर उतने ही वर्ग उत्पन्न होते हैं। इन वर्गोंका समुदाय दूसरे स्पर्धककी प्रथम वर्गणा कहलाता है, इस प्रथम वर्गणाको प्रथम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणाके आगे अन्तराल देकर स्थापित करना चाहिए। इस क्रमसे वर्ग, वर्गणा और स्पर्धकको जानकर तब उनकी जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org

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