________________
स्पर्श
३ स्पर्श विषयक प्ररूपणाएँ
स्पर्शन प्ररूपणा सम्बन्धी नियम । - पै. क्षेत्र/३। सारनियोंमें प्रयुक्त संकेत सूची
।
जीवोंके वर्तमान काल स्पर्शकी ओष प्ररूपणा । जीव अतीत कालीन स्पर्शकी ओष प्ररूपणा । जीवक अतीत कालीन स्पर्शकी आदेश प्ररूपणा । अष्टकमक चतुबन्धकोंकी ओप आदेश प्ररूपणा । ६ मोहनीय सत्कार्मिक बन्धकों की ओव आदेश प्ररूप० । अन्य प्ररूपणाओंकी सूची ।
५
१
२
३
४
१. भेद व लक्षण
१. स्पर्श गुणका क्षण स.सि./५/२३/२६३/९९ स्पर्शनमा मा स्पर्शः । स.सि./२/२०/९०८/१ स्पृश्यत इति स्पर्शः प्राधान्यविवक्षाय भावनिर्देशः पर्याप १. जो स्पर्शन किया जाता है उसे या स्पर्धानमात्रको स्पर्श कहते हैं। २. द्रव्यको अपेक्षा होनेपर कर्म निर्देश होता है। जैसे जो स्पर्श किया जाता है सो स्पर्श है। ...तथा जहाँ पर्यायकी विवक्षा प्रधान रहती है तब भाव निर्देश होता है जैसे स्पर्शन स्पर्श है । (रा. वा./२/२०/१/१३२/३१) ।
घ. १/१.३३/२३०/० यदा वस्तुप्राधान्येन विवक्षितं तदा द्रये वस्त्वेव विषयीकृतं भवेद् वस्तुव्यतिरिक्तस्पर्शाद्यभावात् । एतस्मां विवक्षायां स्पृश्यत इति स्पर्शो वस्तु यदा तु पर्यायः प्राधान्येन विमतिस्तदा तस्य ततो भेदोपपत्तेरीदासीश्यामस्थिभावकथनाद्भावसाधनत्वमप्यविरुद्धम् । यथा स्पर्श इति । - जिस समय द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा प्रधानतासे वस्तु ही विवक्षित होती है, उस समय इन्द्रियके द्वारा वस्तुका ही ग्रहण होता है, क्योंकि वस्तुको छोड़कर स्पर्शादि धर्म पाये नहीं आते हैं इसलिए इस विवक्षायें जो स्पर्धा किया जाता है उसे स्पर्धा कहते हैं, और वह स्पर्श वस्तु रूप ही पड़ता है। तथा जिस समय पर्यायार्थिक नयकी प्रधानता से पर्याय विवक्षित होती है, उस समय पर्यायका द्रव्यसे भेद होनेके कारण उदासीन रूपसे अवस्थित भावका कथन किया जाता है। इसलिए स्पर्श में भाव साधन भी बन जाता है। जैसे स्पर्शन ही स्पर्श है।
२ स्पर्श नामकर्मका लक्षण
1
1
स.सि./८/१९/३१०/८ यस्योदयात्स्वादुर्भावस्तस्पर्शनाम। जिसके उदयसे स्पर्शकी उत्पत्ति होती है वह स्पर्श नामकर्म है (रा.वा./ ८११/१०/२०७/१४) (. १/४.१.१०२ / ३६४/८); (गो.क./जी. प्र ३३/२१/१५) ।
घ. ६/११-१२०/२५/६ जस्स कम्मर उदरण जीवसरीरे जाइपयिदो पासो उप्पज्जदि तस्स कम्मक्खंधस्स पाससण्णा कारणे कज्जुवयारादो । - जिस कर्मस्कन्धके उदयसे जीवके शरीर में जाति
४७४
Jain Education International
१. भेद व लक्षण
प्रतिनियत स्पर्श उत्पन्न होता है, उस कर्म स्कन्धकी कारण में कार्यके उपचारसे रूप यह संज्ञा है।
३. स्पर्शनानुयोग द्वारका लक्षण
स.सि./१/८/२६/७ सदेव स्पर्शनं त्रिकालमोचरम् त्रिकाल विषयक निवासको स्पर्श कहते हैं । ( रा. वा /१/८/५/४१/३० )
ध. १/१.१.७ /गा./१०२ / १५८ अस्थिन्तं पुण संतं अस्थिन्तस्स य तहेब परिमाणं पप अप पुस । १०२ ॥
५. १/१.१०७/१७ सेडियो समागतानं अदीव-कालविकास परुवेदि फोसमागम १ अस्तित्वका प्रतिपादन करनेवाली को सप्ररूपणाहते है। जिन पदार्थोके अ
-
का ज्ञान हो गया है ऐसे पदार्थों के परिमाणका कथन करनेवाली संख्या प्ररूपणा है. वर्तमान क्षेत्रका वर्णन करनेवाली क्षेत्र प्ररूपणा है। अतीस स्पर्श और वर्तमान स्पर्शका वर्णन करनेवाली स्पर्शन प्ररूपणा है । १०२२. उक्त सोनों अनुयोगों द्वारा जाने हुए सद संख्या और क्षेत्ररूप द्रव्यों के अतीतकाल विशिष्ट वर्तमान स्पर्शका स्पर्शनानुयोग वर्णन करता है ।
SURE
का
घ. ४/१२९/१४४ / अस्पर्शि] स्पृश्यत इति स्पर्शन जो स्पर्श किया है और वर्तमान में स्पर्श किया जा रहा है यह स्पर्शन कहलाता है ।
४. स्पर्शके भेद
१. स्पर्शगुण व स्पर्श नामकर्मके भेद
घ. नं. ६/१,६,१/ सू. ४०/७५ जं तं पासणामकम्मं तं अट्ठविहं, कपखडशाम मणा गुरुअाम सहुअणाम शिक्षणाम सुखमा सीपणाम उणणामं चेदि |४०| - जो स्पर्श नामकर्म है वह आठ प्रकारका - कर्कानामकर्म, मृदुकनामकर्म, गुरुकनामकर्म, सकनामकर्म, स्निग्धनामकर्म, रूक्षनामकर्म, शीतनामकर्म और उष्णनामकर्म | (१३/२०/ ११३/३००); (स.सि./०/९९/२०/-); (पं. सं./प्रा./२/४/टी./४०/२) (रा. वा /८/११/१०/१००/१४) (गो. / uft, #/33/38/tk) 1
स.सि./५/२३/२३/११ सोऽष्टविधः; मृदुकठिन गुरुलघुशीतोष्ण स्निग्धरूक्षभेदात् । कोमल, कठोर, भारी. हलका, ठंडा, गरम, स्निग्ध और रूक्षके भेदसे वह स्पर्श आठ प्रकारका है। (रा.वा./५/२३/०/ ४४) (गो की. जी. ९) (सं./टी./०/११) (५.२. / टी./१/१६)।
२. निक्षेपोंकी अपेक्षा भेद दृष्टि नं. १
नोट - ( नाम, स्थापना आदि भेददे, निक्षेप ) |
प. ४/१.४.२/१४३ /२ मिसम्मको घण्टं दब्यान संजोए पूणसहिमेयभिन्न मिश्रस्यस्पर्शर्शन चेतन अचेतन स्वरूप यहाँ द्रव्यों के संयोग से उनसठ भेदवाला होता है ।
=
विशेषार्थ मिश्र पर नागमद्रव्य स्पर्धा के सचिव अचित रूप छह द्रव्योंके ६५ संयोगी भंग निम्न प्रकार हैं। एक संयोगी भंग ज्योंका पृथ-पृथ ग्रहण करनेसे -६ दिसंयोगी (६५) + (१४२) - १०/२ - १५ । त्रिसंयोगी भंग - ( Ex५x४ ) + ( १x२४३} - १२०/६ = २० । चतुसंयोगी भंग- ( १२३०४ ) - १६० / २४-१ पंच संयोगीभंग (२)+(१२३४३ ) - ७२० / ९२० - ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org