Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 503
________________ स्यन्दन स्याद्वाद कथन करना व्यर्थ है ? उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि, मनोदुष्पणि- धानमें अन्य विचार नहीं आता, जिस विषयका विचार किया जाता है, उसमें भी क्रोधादिका आवेश आ जाता है, किन्तु स्मृत्यनुपस्थानमें चिन्ताके विकल्प चलते रहते हैं और चित्त में एकाग्रता नहीं आती। अथवा रात्रि और दिनकी नित्य क्रियाओं को ही प्रमादकी अधिकतासे भूल जाना स्मृत्यनुपस्थान है। (चा. सा./२०/५) स. भ. त./२३/१ न च निपातानां द्योतकत्वादेवकारस्य वाचकत्वं न संभवतीति वाच्यम् । निपातानां द्योतकत्वपक्षस्य वाचकत्वपक्षस्य च शास्त्रे दर्शनात् । 'द्योतकाश्च भवन्ति निपाताः' इत्यत्र च शब्दावाचकाश्च इति व्यारूपानात् । = कदाचित् यह कहो कि निपातोंको द्योतकता है कि वाचकताका सम्भव है। सो ऐसा नहीं है, क्योंकि निपातोंका द्योतकत्व तथा वाचकत्व दोनों शास्त्रों में देखे गये हैं। 'द्योत काश्च भवन्ति निपाताः' निपात द्योतक भी होते हैं इस वाक्यमें च शब्दसे वाचकताका भी व्याख्यान किया गया है। ३. स्यात् शब्दकी अर्थे विवक्षा स.भ.त./३०/१ स्याच्छब्दस्य चाने कान्तविधिविचारादिषु बहुवर्थेषु संभवत्सु इह विवक्षावशादनेकान्तार्थो गृह्यते । यद्यपि अनेकान्त, विधि, विचार आदि अनेक अर्थ स्यात्कारके सम्भव हैं तथापि यहाँ वक्ताको विशेष इच्छासे अनेकान्तार्थ वाचक ही स्यात्कार शब्दका ग्रहण है। ४. स्यात् शब्दका अर्थ अनियमितता ध. १३/५,४,२६/७८/१० तम्हि चेव अत्थे गुणस्स पज्जायस्स वा संकमदि । पुठिवल्लजोगादो जोगंतरं पि सिया संकमदि।- (पृथक्त्व वितर्क वीचार शुक्लध्यान अन्तर्मुहूर्त तक एक ही अर्थको ध्यानेके पश्चात् ) अर्थान्तरपर नियमसे संक्रामित होता है। और पूर्व योगसे स्यात ( अनियमित रूपसे ) योगान्तरपर संक्रमित होता है। * स्यात् शब्दकी प्रयोग विधि व उसका महत्त्व . -दे. स्याद्वाद/४ । स्यन्दन-ध. १४/५,६,४२/३६/१ चक्कट्टि-बलदेवाणं चडणजोग्गा सध्याउहाबुण्णा णिमणपवणवेगा अच्छे भंगे वि चक्कघडणगुणेण अपडिहयगमणा संदणा णाम । - जो चक्रवर्ती और बलदेवोंके चढ़ने योग्य होते हैं, जो सर्व आयुधोंसे परिपूर्ण होते हैं, जो पवनके समान वेगवाले होते हैं और धुरके टूट जानेपर भी जिनके चक्कों की इस प्रकारकी रचना होती है जिस गुणके कारण जिनके गमनागमनमें बाधा नहीं पड़ती वे स्यन्दन कहलाते हैं। स्यात्-१. स्यात् शब्दका लक्षण रा. वा./४/१२/१५/२५३/११ तेनेतरनिवृत्तिप्रसङ्गे तत्संभवप्रदर्शनार्थः स्याच्छब्दप्रयोगः, स च लिङन्तप्रतिरूपको निपातः। तस्यानेकान्तविधिविचारादिषु बहुवर्थेषु संभवत्सु इह विवक्षावशात अनेकान्तार्थो गृह्यते।...अथवा, स्याच्छब्दोऽयमनेकान्तार्थस्य द्योतकः । द्योतकश्च वाचकप्रयोगसन्निधिमन्तरेणाभिप्रेताविद्योतनाय नाल मिति तद्द्योत्यधर्माधारार्थाभिधानायेतरपदप्रयोगः क्रियते । अथ केनोपात्तोऽनेकान्तार्थः अनेन द्योत्यते । उक्तमेतत्-अभेदवृत्त्या अभेदोपचारेण वा प्रयुक्तशब्दवाच्यतामेवास्कन्दन्ति इतरे धर्मा इति । इससे इतर धमौकी निवृत्तिका प्रसंग होता है, अतः उन धर्मों का सद्भाव द्योतन करनेके लिए 'स्यात्' शब्दका प्रयोग किया गया है। स्यात् शब्द लिङन्त प्रतिरूपक निपात है। इसके अनेकान्त विधि विचार आदि अनेक अर्थ हो सकते हैं। परन्तु विवक्षावश यहाँ अनेकान्त अर्थ लिया गया है ।...अथवा स्यात शब्द अनेकान्तका द्योतक होता है। जो द्योतक होता है वह किसी वाचक शब्दके द्वारा कहे गये अर्थका ही द्योतन कर सकता है अतः उसके द्वारा प्रकाश्य धर्म की सूचनाके लिए इतर शब्दों का प्रयोग किया गया है। प्रश्न-इसके द्वारा किस कारणसे अनेकान्तार्थ का द्योतन होता है। उत्तर-यह बात पहले भी कही जा चुकी है कि अभेद वृत्ति वा अभेदोपचारके द्वारा प्रयुक्त शब्दोंकी वाच्यता हो इतने धर्मों का ग्रहण करती है। (स, भ.त./ ३१/१०) श्लो. वा./२/१/६/५५/४५६/१ स्यादिति निपातोऽयमनेकान्तविधिवि चारादिषु बहुष्वर्थेषु वर्तते । स्यात यह तिडतप्रतिरूपक निपात 'अनेकान्त, विधि, विचार, और विद्या आदि बहुत अर्थों में वर्त रहता है । ( विशेष दे. स्याद्वाद/५/२) । अष्टसहस्री/टिप्पणी/पृ. २८६ विधि-आदिष्वर्थेषु अपि लिङ्लकारस्य स्यादिति क्रियारूपं पदं सिद्वयति। परन्तु नायं स शब्द: निपात इति विशेष्योक्तत्वात् । स्यात् शब्द विधि आदि अर्थो में लिङ् लकारकी क्रिया रूप पदको सिद्ध करता है, परन्तु यह स्यात शब्द निपात नहीं है। क्योंकि विशेषता पहले कह दी गयी है। स्याद्वाद-आ. शुभभद्र (ई. १५१६-१५५६) द्वारा रचित एक न्याय विषयक ग्रन्थ । स्याद्वाद-अनेकान्तमयी वस्तु (दे. अनेकान्त ) का कथन करनेकी पद्धति स्याद्वाद है। किसी भी एक शब्द या वाक्यके द्वारा सारीकी सारी वस्तुका युगपत् कथन करना अशक्य होनेसे प्रयोजनवश कभी एक धर्मको मुख्य करके कथन करते हैं और कभी दूसरेको। मुख्य धर्मको सुनते हुए श्रोताको अन्य धर्म भी गौण रूपसे स्वीकार होते रहें उनका निषेध न होने पावे इस प्रयोजनसे अनेकान्तवादी अपने प्रत्येक वाक्यके साथ स्यात् या कथंचित शब्दका प्रयोग करता है। ror स्याद्वाद निर्देश स्याद्वादका लक्षण। विवक्षाका ठीक-ठीक स्वीकार ही स्यादादकी सत्यता है। स्याद्वादके प्रामाण्यमें हेतु । स्यात् पद का अर्थ । -दे. स्यात् । अपेक्षा निर्देश सापेक्ष व निरपेक्षका अर्थ । विवक्षा एक ही अंश पर लागू होती है अनेकपर नहीं। विवक्षाकी प्रयोग विधि। २. स्यात् नामक निपात शब्द द्योतक व वाचक दोनों है आप्त. मी./भाषा/१/१४/२३ (सप्त भंगी में ) सत् आदि शब्द है ते तो अनेकान्तके वाचक है और कथंचित शब्द है सो अनेकान्तका द्योतक है । बहुरि इसके आगे एवकार शब्द है सो अवधारण कहिये नियम के अर्थि होइ है । बहुरि यह कथं चित शब्द है सो याका पर्याय शब्द स्यात् है। * arr जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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