Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 502
________________ स्पर्शन इन्द्रिय स्मृत्यनुपस्थानानि स्पर्शन इन्द्रिय-दे. इन्द्रिय। स्पर्शन क्रिया-दे. क्रिया/३/३ । स्पष्ट-न्या, वि./टी./८५-८६/८१६ किं पुनरिदं स्पष्टत्वं नाम । साक्षात्करणमिति चेत् (८५/८) ततो निर्मलप्रतिभासत्वमेव स्पष्टत्वम् । साक्षात् रूपसे देखना स्पष्टत्व है।८५/41 निर्मल प्रतिभासका नाम स्पष्टत्व है। होता हो। इसके अभावसे साध्यकी सिद्धिका अभाव है। अतः शब्द ध्वनि रूप ही है और नित्यानिध्यात्मक है ऐसा स्वीकार करना चाहिए। (सि. वि./टी./११/५/७०२/२२); (न्या. वि./टी./३/४६/ ३२८/३२); ( क. पा. १/११३,१४/६२१६/२६६/४ ) स्फोट कर्म-दे. सावद्या५ । स्फोटित-गणितको व्यकलन विधिमें मूल राशिमें ऋण राशि करि स्फोटित कहा जाता है। -दे. गणित/08/४ | स्पृहा- न्या. सू./टी./टी./४/१/३/२३०/१२ अस्वपरस्वादानेच्छा स्पृहा। -धर्मसे अविरुद्ध किसी पदार्थ के पानेकी इच्छा करनी स्पृहा कहलाती है। स्फटिक-१. सौधर्म स्वर्गका १८वौं पटल व इन्द्रक - दे. स्वर्ग५/३; २. गन्धमादन विजयाईका एक कूट -दे. लोक ५/४,३. मानुषोत्तर पर्वतस्थ एक कूट-- दे. लोक५/१०: ४. कुण्डलपर्वतस्थ एक कूट -दे. लोक/२/१२; १. रुचक पर्वतस्थ एक कट-दे. लोक/५/१३ 1 स्फटिकप्रभ-कुण्डल पर्वतस्थ एक कूट -दे. लोक/१/१२॥ स्फोट-१. मीमांसक माभ्य एक व्यापक तत्व जिसके द्वारा ध्वन्यात्मक शब्द में अर्थ प्रकाशन की सामर्थ्य अभिव्यक्त होती है। २. रा. वा./५/२४/५/४८६/१ अपरे मन्यन्ते ऽवनयः क्षणिकाः क्रमजन्मानः स्वरूपप्रतिपादनादेवोपक्षीणशक्तिका नार्थान्तरमबोधयितुमलम् । यदि समर्थाः स्युः पदेन इव पदार्थेषु प्रतिवर्ण वर्णार्थेषु प्रत्ययः स्यात् । एकेन चार्थे कृते वर्णान्तरोपादानमनर्थकं स्यात् । नापि क्रमजन्मना सहभावः संघातोऽस्ति योऽर्थेन युज्यते। अतस्तेभ्योऽर्थप्रतिपादने समर्थ शब्दात्मा अमूर्तो नित्योऽतीन्द्रियो निरवयवो निष्क्रियो ध्वनिभिरभिव्यङ्ग्य इत्यभ्युपगन्तव्य इतिः । एतच्चानुपपन्नमः कुतः । व्यङ्ग्यव्यजकभावानुपपत्तेः । ...किंच स इत्र निर्व्यउजकस्फोटस्य वा उपकारं कुर्यात, श्रोत्रस्य, उभयस्य वा। ...किंच, न ध्वनयः स्फोटाभिव्यक्तिहेतवो भवन्ति उत्पत्तिक्षणादूर्वमनवस्थानात् उत्पत्तिक्षणे चासत्त्वात् । ...किंच, स्फोटध्वनेरन्यो वा स्यात, अनन्यो वा ।...किंच व्यङ्ग्यत्वे सति अनित्यत्वं स्याव स्फोटस्य घटादिवत विज्ञानेन व्यङ्ग्यत्वात् ।...महदादिवत् इति चेत्ः न साध्यसमत्वात् ।-न चामूर्तः कश्चिन्नित्यो निरवयवो मूर्तिमतानित्येन सावयवेन व्यङ्ग्यो दृष्ट, तद्भावात साध्यसिद्धय- . भावः । =स्फोटवादी मीमांसकों का मत है कि ध्वनियाँ क्षणिक हैं, क्रमशः उत्पन्न होती हैं और अनन्तर क्षणमें विनष्ट हो जाती हैं। वे स्वरूपके बोध कराने में ही क्षीणशक्ति हो जाती हैं अतः अर्थान्तरका ज्ञान कराने में समर्थ नहीं हैं। यदि ध्वनियाँ ही समर्थ होती हैं तो पदोंसे पदार्थों की तरह प्रत्येक वर्णसे अर्थबोध होना चाहिए । एक वर्ण के द्वारा अर्थबोध होनेपर वर्णान्तरका उपादान निरर्थक है। क्रमसे उत्पन्न होने वाली ध्वनियोंका सहभावरूप संघात भी सम्भव नहीं है, जिससे अर्थबोध हो सके । अतः उन ध्वनियों से अभिव्यक्त होने वाला अर्थ प्रतिपादनमें समर्थ, अमूर्त, नित्य, अतीन्द्रिय, निरवयव और निष्क्रिय । शब्दस्फोट स्वीकार करना चाहिए। उनका यह मत ठीक नहीं है, क्योंकि ध्वनि और स्फोट में व्यंग्यव्यञ्जक भाव नहीं बन सकता। ...किंच धनियाँ स्फोटकी व्यञ्जक होती हैं तो वे स्फोटका उपकार करेंगी या श्रोत्रका या दोनों का।...किंच, जब ध्वनियाँ उत्पत्तिके बाद ही नष्ट हो जाती हैं तब वे स्फोटको अभिव्यक्ति कैसे करेंगी! ...किंच, स्फोट यदि ध्वनियोंसे अभिन्न है :...किंच, यदि स्फोटको व्यंग्य मानते हो तो उसमें घटादिकी तरह अनित्यता भी आ जानी चाहिए।.. महान् अहंकार आदि सारख्यमत तत्वोंका दृष्टान्त देना ठीक नहीं है, क्योंकि जैसे स्फोटकी व्यंग्यता असिद्ध है उस तरह उन तत्वोंको भो।...फिर ऐसा कोई.दृष्टान्त नहीं मिलता जो अमृत नित्य और निरवयत्र होकर मूर्त अनित्य, और साबयत्रसे व्यंग्य स्मरणाभास-प.प्र./६/ अतस्मिस्तदिति ज्ञानं स्मरणाभासमः जिनदत्ते स देवदत्तो यथा। देखे व सुने पदार्थको कालान्तरमें उसका स्मरण न होकर उसकी जगह दूसरेका स्मरण होना स्मरणाभास है । जिस प्रकार पूर्व अनुभूत जिनदत्तकी जगह देवदत्तका स्मरण स्मरणाभास है। स्मृति-१.दे, मतिज्ञान/१/२, मति, स्मृति, चिन्ता, संज्ञा और अभिनियोध ये एकार्थवाची हैं। स. सि./१/१३/१०६/४ स्मरणं स्मृतिः। -स्मरण करना स्मृति है। (ध १३/५४,४१/२४४/३) ध. १३/५,५,६३/३३३/४ दिट्ठ-सुदाणुभूदविसयणाणविसे सिदजीवो सदी णाम । - दृष्ट, श्रुत और अनुभूत अर्थको विषय करनेवाले ज्ञानसे विशेषित जीवका नाम स्मृति है। म.पु./२१/२२६ स्मृतिर्जीवादितत्त्वानां याथात्म्यानुस्मृतिः स्मृता। गुणानुस्मरणं वा स्याद सिद्धार्हत्परमेष्ठिनाम् । -जीवादि तत्त्वोंका अथवा अर्ह सिद्धका गुणस्मरण स्मृति है।। प. मु./३/३-४ संस्कारोबोधनिबन्धना तदित्याकारा स्मृतिः।३। स देवदत्तो यथा ।४। -पूर्व संस्कारकी प्रक्टतासे 'बह देवदत्त' इस प्रकारके स्मरणको स्मृतिज्ञान कहते हैं ।३-४ (न्या. दी./३/६४/५३/8); ( स. म./२८/३२१/२२) न्या. दी./३/8/१६/३ तत्तोल्लेखिज्ञानं स्मरणम् । = बह' का उल्लेखी ज्ञान स्मरण है। २. स्मृति व प्रत्यभिज्ञानमें अन्तर-दे. मतिज्ञान/३ । ३. स्मृति आदि ज्ञानोंकी उत्पत्तिका क्रम व स्मृति आदि भेदोंकी सार्थकताकी सिद्धि-दे, मतिज्ञान/३ । स्मृत्यन्तराधान-१. रा. वा./७/३०/८/५/३० अननु स्मरणं स्मृत्यन्तराधानम् ।८। अनुस्मरणम् परामर्शनं प्रत्यवेक्षणमित्यनर्थान्तरम्, इदमिदं मया योजनादिभिरभिज्ञान' कृतमिति, तदभावः समृत्यन्तराधानम् । = मर्यादाका स्मरण न रखना स्मृत्यन्तराधान है। (स. सि./७/३१/३६६/६ ) अनुस्मरण, परामर्शन और प्रत्यवेक्षण ये एकार्थवाची हैं । यह यह मैंने योजनादिका प्रमाण किया था, उसका भूल जाना स्मृत्यन्तराधान है। २. दिग्वतका एक अतिचार है।-दे. दिग्व्रत। स्मत्यनुपस्थानानि-१. सामायिक व्रतका एक अतिचार -दे. सामायिक; २. प्रोषधोपवास व्रतका एक अतिचार -दे. प्रोषधोपवास । ३. स. सि./७/३३/३७०/६ अनै काय स्मृत्यनुपस्थान । रा. वा./७/३३/४-५/५१७/१३ अन कायमसमाहितमनस्कृता स्मृत्यनुपस्थानमित्याख्यायते।। स्यादेतद-रमृत्यनुपस्थानं तन्मनोदुःप्रणिधानमेवेति तस्य ग्रहणमनर्थ कमिति: तन्नः किं कारणम्। तत्रान्याचिन्तनात् । तत्र हि अन्यत् किंचित अचिन्तयतश्चिन्तयत एवाविषये क्रोधाद्यावेशः औदासीन्येन वावस्थानं मनसा, इह पुनः परिस्पन्दनाव चिन्ताया ऐकाग्येणावस्थान मिति विस्पष्टमन्यत्वम् । रात्रिन्दिवीयरय वा प्रमादाधिकस्य सचित्यानुपस्थानम् । = चित्तकी एकाग्रता न होना और मनमें समाधिरूपताका न होना स्मृत्यनुपस्थान है। प्रश्न-स्मृत्यनुपस्थान तो मनदुष्प्रणिधान ही है, इसलिए इसका जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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