Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 477
________________ स्थितिकरण स्थितिकरण – १ स्थितिकरण अंगका लक्षण १. निश्चय स.सा./मू./२३४म्म सपि मग्गे ठमेदि जो चैवा सो ठिदिकरणाजुत्तो सम्मादिट्ठी मुणेयव्वो । जो चेतयिता उन्मार्ग में जाते हुए अपने आमाको भी मार्ग में स्थापित करता है वह स्थिति करण युक्त सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए। उपस्थि कषायोदय रा.वा./६/२४/९/२२१/१४ कपायोदयादिषु धर्मपरिकार तेष्वात्मनो धर्माप्रच्यवनं परिपालनं स्थितिकरणम् । आदिसे धर्म भ्रष्ट होने के कारण उपस्थित होनेपर भी अपने धर्मसे परिच्युत नहीं होना, उसका बराबर पालन करना स्थितिकरण है । पू. सि. उ. / २० कामक्रोधमादिषु चलयितुमुदितेषु वर्त्मनो न्यायात् । तमात्मनः परस्य च युक्त्या स्थितिकरणमपि कार्यम् ॥२०॥ क्रोध, मद, लोभादिक भावोंके होनेपर न्याय मार्ग से च्युत करनेको प्रगट होते हुए अपने आत्मा को... जिस किस प्रकार धर्म में स्थित करना भी कर्तव्य है । ( पं. ध. /उ. / ७६५) काम, ४७० क.अ./मू./४२० धम्मादो चलमा जो अयं संवेदि धम्मम्मि । अप्पा पि दिपदि ठिदिकरण होदि उस्सेव] [४२०] जो धर्म से चलायमान ... अपनेको धर्म में दृढ करता है उसीके स्थितिकरण गुण होता है। प्र से टी/४१/१०५/० निश्चयेन पुनस्तेनेव व्यवहारेण स्थितिकरणगुणेन धर्म जाते सति रागादिविकल्पलत्यागेन निजपरमात्मस्वभावभावन परमानन्दे मुखामृतरसास्वादेन तलयतन्मयपरमसमरसीभावेन चित्तस्थिरीकरणमेव स्थितिकरणमिति । - उपहार स्थिति करण गुणसे धर्म में रडता होने पर... रागादि विकल्पों के त्याग द्वारा निज परमात्म स्वभाव भावकी भावनासे उत्पन्न परम आनन्द सुखामृत के आस्वाद रूप परमात्मामें लीन अथवा परमात्म स्वरूप में समरसी भावसे चित्तका स्थिर करना, निश्चयसे स्थितिकरण है । • २. व्यवहार यू.आ./२६२ दंसणपरषभट्ठे जीने द धम्मबुद्धीए हिदमिदमहि ते खप्तत्तोणियत्तेइ | २६२॥ सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्रसे भ्रष्ट हुए जीवों को देख धर्म बुद्धिकर सुखके निमित्त हितमित वचनों से उनके दोषों को दूर करके धर्म एवं करता है यह शुद्धसम्ययस्वी स्थितिकरण गुणवाला है। : र. क. भा. / ९६ दर्शनाच्चरणाद्वापि चलता धर्मवत्सलेः । प्रत्यवस्थापन प्राज्ञः स्थितिरते |१६|दर्शन व चारित्रसे डिगते हुए पुरुषको जो उसी में स्थिर कर देना है सो विद्वानोंके द्वारा स्थितिकरण अंग कहा गया है । Jain Education International का. अ./मू./२२० धम्मादो चसमा जो बण्णं संठवेदि धम्मम्मि ।... ठिदि करणं होदि तस्सेव ॥४२०| जो धर्मसे चलायमान अन्य जीवको धर्ममें स्थिर करता है।...उसी के स्थितिकारण गुण होता है। प्र.सं./टी./४१/१०२/३ मध्ये या कोऽपि दर्शनचारित्रमहोदयेन दर्शन हा चारित्रं वा परित्य वान्छति तदागमावि रोधेन यथाशक्त्या धर्मश्रवणेन वा अर्थेन वा सामर्थ्येन वा केनाप्युपायेन यद्धर्मे स्थिरत्वं क्रियते तद्व्यवहारेण स्थितिकरणमिति । - चार प्रकारके से यदि कोई दर्शन मोहनीयके उदयसे दर्शन ज्ञानको या चारित्र मोहनीयके उदयसे चारित्रको छोड़नेकी इच्छा करे तो यथाशक्ति शास्त्रानुकूल धर्मोपदेशसे, धनसे या सामर्थ्य से या अन्य किसी उपायसे उसको धर्म रिवर कर देना, यह व्यवहार स्थितिकरण है। स्थिर पं. घ /उ. / ८०२ सुस्थितिकरणं' नाम परेषां सदनुग्रहात भ्रष्टानां स्वपदात्तत्र स्थापनं तत्पदे पुनः । ८०२ ॥ स्वव पर स्थितिकरणों में अपने पदसे भ्रष्ट हुए अन्य जीवोंको जो उत्तम दया भावसे उनके पदमें फिरसे स्थापित करना है वह परिस्थितिकरण है । ८०२ | २. स्वधर्मबाधक परका स्थितिकरण करना योग्य नहीं पं. ध. /उ./८४ धर्मादेशोपदेशाभ्यां कर्तव्योऽनुग्रहः परे । नात्मवतं विहायास्तु तत्परः पररक्षणे । ८०२॥ धर्मके आदेश वा उपदेश से ही दूसरे जीवोंपर अनुग्रह करना चाहिए। किन्तु अपने मतको छोड़कर दूसरोंके व्रतोंकी रक्षा नहीं करनी चाहिए |८०२ | स्थितिकल्प साधुके १०/२/३ स्थितिकांडक घात - अपकर्षण/ स्थितिबंधापसरण / स्थितिबंधोत्सरण स्थितिभोजन- साधुका एक मूलगुण-दे, साधु / २ / २ । स्थितिसत्त्वा पसरण - दे. अपकर्षण / ३ । स्थिर कुण्डल पर्वतस्थ अंक कूटका स्वामी देव - दे. लोक /५/१२ ॥ स्थिर - १. स्थिर व अस्थिर नामकर्मका लक्षण स.सि./१/११/२६२ / २ स्थिरभावस्य निर्वर्तक स्थिरनाम राद्विपरीतमस्थिरनाम - स्थिर भावका निर्वर्तक कर्म स्थिर नामकर्म है, इससे विपरीत अस्थिर नामकर्म है। रा. बा. ९/११/२४-२५/५०६/२२ वयात दुष्करोपवासादितपरकरणेऽपि अङ्गोपाङ्गानां स्थिरवं जायते तत् स्थिरनाम ३४ यदावासादिकरणात् स्वल्पणादिसंयम्याच अपहानि कृशीभवन्ति तदस्थिरनाम। जिसके उदयसे दुष्कर उपवास आदि तप करनेवर भी अंग-उन आदि स्थिर भने रहते हैं. कृश नहीं होते वह स्थिर नामकर्म है। तथा जिससे एक उपवाससे या साधारण शीत उष्ण आदिसे ही शरीर में अस्थिरता आ जाय, कृश हो जाय वह अस्थिर नामकर्म है। ध. १३/५,५,१०१/३६५/१० जस्स कम्मस्सुदरण रसादीणं सगसरूवेण केपि कालमवाणं होदितं विरणामं जस्स कम्मरसुदरण रसायनरमधादुवेग परिणामी होदितमथिरणामं जिस कर्मके उदयसे रसादिक धातुओंका अपने रूपसे कितने ही कालतक अवस्थान होता है वह स्थिर नामकर्म है । जिस कर्मके उदयसे रसादिकों का आगेकी धातुओं स्वरूप परिणमन होता है वह अस्थिर नामकर्म है। (ध. ६ / १.६-१.२८/६३/३); (गो, जी./जी.प्र./३३/३०/३) । २. सप्त धातु रहित विग्रह गतिमें स्थिर नामकर्मका क्या कार्य है = ६/९.२-१. २०६४/६ सत्तधा विरहिदविग्गहगदीए वि विराधिराणदादो दासि तस्य यावारो ति णासंकणि जोगि परवादस्य रथ यत्तोदरण अपवादो प्रश्न धातुओंसे रहित विग्रहगति में भी स्थिर और अस्थिर प्रकृतियोंका उदय देखा जाता है, इसलिए इनका वहाँ पर व्यापार नहीं मानना चाहिए 1 उत्तर- ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि सयोगकेवली भगवान परथात प्रकृति के समान विग्रहपतिमें उन प्रकृतियोंका अभ्यक्त उदयरूपसे अवस्थान रहता है। ★ स्थिर नामकर्मकी बम्ध उदय सत्व प्ररूपणाएँ व तत्सम्बन्धी शंका समाधान दे, वह वह नाम । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only TAM 4 www.jainelibrary.org

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