Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 478
________________ स्थूणा स्थूणा - औदारिक शरीरमें स्थूणाओंका प्रमाण- दे. औदारिक १/७ । स्थूल - दे. सूक्ष्म । स्थूलभद्र - आचार्य भद्रबाहु प्रथम ( पंचम श्रुतकेवली ) के शिष्य थे १२ वर्षीय दुर्भिक्षके अवसरपर आपने उनको भातको अस्वीकार करके दक्षिणकी ओर बिहार न किया और उज्जैनी में हो रह गये। दुर्मि वानेवर उनके संपमें शिथिताचार आया और वे 'अर्ध फालक (दे. श्वेताम्बर बन गये भद्रवाह स्वामीकी दक्षिण में ही समाधि हो गयी, परन्तु दुर्भिक्षके समाप्त होनेपर उनके शिष्य विशाखाचार्य आदि लौटकर पुनः उज्जैनी में आये । उस समय आप (स्थूल (भद्र ) ने अपने संघको शिथिलाचार छोड़ पुनः शुद्धाचरण अपनानेको कहा। इसपर संघने रुष्ट होकर इन्हें जानसे मार दिया। ये एक व्यन्तर बनकर संघ पर उपद्रव करने लगे। जिसे शान्त करनेके लिए संघने कुलदेवताके रूपमें इनकी पूजा करनी प्रारम्भ कर दी । इनके अपर नाम स्थूलाचार्य व रामन्य भी थे। इस कथाके अनुसार इनका समय भद्रबाहु तृतीयसे लेकर विशाखाचार्य के कुछ काल पश्चात् तक बी. नि १३३-१६० (ई.पू. २६४-३६०) जाता है । दे. श्वेताम्बर। 7 स्थूलाचार्य - अपर नाम स्थूलभद्र - दे. स्थूलभद्र । स्नातक- १. स्नातक साधुका लक्षण स.सि./१/४६/४६०/११प्रक्षीणघातिकर्माणः केवलिनो द्विविधाः स्नातकाः । - जिन्होंने चार घातिया कर्मोंका नाश कर दिया है, ऐसे दोनों प्रकारके केवली स्नातक कहलाते हैं । ( रा. वा./६/४६/५/६३६/३ । ); (चा. सा./१०२/२) । व. सा. २४ ततः क्षीयतुमावास्यातसंयम बोजगन्धननिर्मुक्तः स्नातकः पारों पातिया कर्म नष्ट होते ही यथास्यात संयमकी प्राप्ति होती हैं। बीजके समान बन्धनका निर्मूल नाश होनेसे बन्धन रहित हुए योगी स्नातक कहाने लगते हैं । ★ स्नातक साधु सम्बन्धी विषयदे साधु स्नान - अस्नान मूलगुणका लक्षण .आ./३१ ण्ह णादिवज्जणेण य विलित्तजलमग्लसेदसव्वं । अण्हाणं पोरगुणं संजमदुगपायं मुषिणो ॥२१॥ जलसे नहाना रूप स्नानादि क्रियाओंके छोड़ देनेसे जन्तमन्त स्वेद रूप देहके मैलकर लिप्त हो गया है सब अंग जिसमें ऐसा अस्नान नामक महागुण साधुके होता है। अन. ध. // न ब्रह्मचारिणामर्थो विशेषादात्मदर्शिनाम् । जलशुद्धयाथवा याद्दोष सापि मतार्हतः । ब्रह्मचारी तथा विशेषकर आत्मदर्शियोंको जो कि स्वयं पवित्र है उनके लिए स्नान किस प्रयोजनका किन्तु अस्पर्श्य दोष होनेपर उसकी शुद्धिके लिए उसकी आवश्यकता है । २. साधुके अस्नान गुण सम्बन्धी शंका समाधान भ. जा./वि./१३/२२६-२१०/२० स्नानमनेकप्रकार शिरोमात्रप्राशनं शिरो मुक्त्वा अन्यस्य वा गात्रस्य, समस्तस्यै वा । तन्न शीतोदकेन क्रियते स्थावराणां प्रसानां च बाधा माभूदिति । ... उष्णोदकेन स्नायादिति चेन्न तत्र सस्थावरबाधावस्थितैव ।...न चास्ति प्रयोजनं स्नानेन धातुमस्य देहस्य न शुचिता क्या करें तो न शौचप्रयोजनं । न रोगापडतये रोगपरी पहसहनाभावप्रसंगात न हि षायै विरागस्वाद तसादिभिरभ्यञ्जनमपि न करोति प्रयोजनाभावादुलेन प्रकारेण घृतादिना क्षारेण स्पृष्टा भूम्यादिजन्तवो बाध्यन्ते । त्रसाश्च तत्रावलग्नाः । - स्नान अनेक प्रकार है- जलसे केवल मस्तक धोना, अथवा मस्तक छोड़कर अन्य अवयवोंको धोना अथवा समस्त अत्रयोंको धोना, परन्तु त्रस और स्थावर जीवोंको बाधा न होवे । Fai " Jain Education International स्निग्ध इसलिए मुनि शीतल जलसे स्नान नहीं करते हैं।... प्रश्न - ठंडे जलसे स्नान नहीं करते तो गरम पानीसे क्यों नहीं करते हैं । उत्तर- नहीं, गरम जलसे स्नान करनेसे भी त्रस स्थावर जीवोंको बाधा होती ही है।...मुनियाँको जलस्नानको आवश्यकता ही नहीं है। क्योंकि, जल स्नानसे सप्त धातुमय देह पवित्र नहीं होता। इस वास्ते - शुचिता के लिए स्नान करना भी योग्य नहीं है, रोग परिहार के लिए भी स्नानकी आवश्यकता नहीं है, यदि वे स्नान करेंगे तो रोग परीष सहन करना व्यर्थ होगा। शरीर सौन्दर्य युक्त होनेके लिए भी वे स्नान नहीं करते, क्योंकि वे वीतराग हैं। मुनि, घी, सेल इत्यादिकों से अभ्यंगस्नान भो कुछ प्रयोजन न होनेसे करते नहीं हैं। घृतादि क्षार पदार्थोंका स्पर्श होनेसे भूमि वगैरह में रहने वाले जन्तुओं को पीड़ा होती है, भूमिपर चिपके हुए जीव इधर उधर होते है, गिरते हैं, तब उनको एक स्थानसे दूसरे स्थान पर जाते समय बाधा पहुँचती है। ४७१ २. स्नान के भेद साथ /२/३४ पर फुटनोट- पादानुकटिपीवाशिरत्पर्वतसंश्रयं । स्नानं पञ्चविधं ज्ञयं यथा दोषं शरीरिणा स्नान पाँच प्रकारका मानना चाहिए केवल पाँव धोना, घुटने तक धोना, कमर तक धोना, कण्ठ तक धोना और शिर तक स्नान करना ४. गृहस्थ व साधुकी स्नान विधि " 1 सा. घ. /२/३४ स्प्पारम्भसेवा क्लिष्टः स्नात्वा वण्ठमधाशिरः म यजेत ह स्पादानस्मातोऽन्येन यामेव स्त्री सेवन और खेती आदि करनेसे दूषित है मन जिसका ऐसा गृहस्थ कण्ठ पर्यन्त अथवा शिरपर्यन्त स्नान कर अर्हन्त देवके चरणोंको पूजे और अस्नात व्यक्ति दूसरे स्नात व्यक्तिसे पूजा करावे । सा. भ./२/१३.३४ पर फुटनोट- नित्यं स्नानं गृहस्थस्य देवार्चन परि यस्य नियतारम्भकर्मणः। यद्वाहा भवेत्स्ना नमन्त्यमन्यस्य तु द्वयम् । जिन पूजा आदि करनेको गृहस्थको नित्य स्नान करना चाहिए। जो ब्रह्मचारी हैं, और जो खेती आदि आरम्भसे निवृत्त है उनको पाँचों इच्छानुसार स्नान कर लेना चाहिए परन्तु गृहस्थों को कण्ठ तक वा शिर तक दो ही स्नान करना चाहिए। ५. जलाशय में डुबकी लगाकर स्नान करनेका निर्देश सा. ध. / २ / ३४ पर फुटनोट- वातातपादिसंस्पृष्टे भूरितोर्ये जलाशये । अवगाह्याचरेन्नानमयोऽगासितं जे जिस जलायमें पानी बहुत हो और उसपरसे भारी पवनका झकोरा निकल गया हो अथवा धूप पड़ रही हो तो उसमें डुबकी मारकर स्नान करना चाहिए। यदि ऐसे जलाशय न मिलें तो छने हुए पानी से स्नान करना चाहिए । I - * शूद्रसे छूनेपर साधुकी स्नान विधि। दे, भिक्षा /३/३ ६. आत्म स्नान ही यथार्थ स्नान है। प्र. सं./टी./१०/९०६/२२ विशुद्धात्मनदी स्नानमेव परमशुचित्वकारणं न सात स्नानादिकम् आत्मा नदी संयमतापूर्णा सत्यावगाहाशीलतादयोर्मिः । तत्राभिषेकं कुरु पाण्डुपुत्र न वारिणा शुध्यति चान्तरात्मा । विशुद्ध आत्मा रूपी शुद्ध नदीमें स्नान करना ही परम पवित्रताका कारण है, लौकिक गंगा आदि तीर्थोंमें स्नानका करना शुचिका कारण नहीं है। संयम रूपी जलसे भरी, सत्य रूपी प्रवाह, शील रूप तट और दयामय तरङ्गोंकी धारक तो आत्मा रूपी नदी है। औदारिक शरीरमें इनका प्रमाण वें. बौदारिक/१/७ स्नायु स्निग्ध स.सि./५/३३/३०४/५ वाह्याभ्यन्तर कारणवशात् स्नेहपविस्मेति स्निग्धः ।... स्निग्धवं चिक्कणगुणलक्षणः पर्यायः । - - बाह्य और आभ्यन्तर कारणसे जो स्नेह पर्याय जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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