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स्थिति
ति भणिदं होदि । एपसमओ जहणणं तरं किण्ण होदि । ण उक्काम्सट्रिट्ठदि बंधिय पsिहग्गस्स पुणो अंतोमुहुत्तेण विणा उक्कस्सदिदिबधासंभवादो। = कर्मोकी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधनेवाला जीव अनुत्कृष्ट" स्थितिका कम से कम अन्तर्मुहूर्त काल तक बन्ध करता है। उसके अन्तर्मुहूर्त के बाद पुनः पूर्वीकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध पाया जाता है। प्रश्न- जघन्य अन्तर एक समय क्यों नहीं होता 1 उत्तर - नहीं, क्योंकि उत्कृष्ट स्थितिको बाँधकर उससे च्युत हुए फोनः अन्त कालके बिना उत्कृष्ट स्थितिकाम नहीं होता, अतः जधन्य अन्तर एक समय नहीं है ।
६. जघन्य स्थितिबन्धमें गुणहानि सम्भव नहीं
घ. ६/१.६-७,३/१८३/१ एत्थ गुगहाणीओ णत्थि पलिदोषमस्स असंदिमागमे दीए विणा गुणहाणीए असंभवाशे इस जयस्थिति गुणानियाँ नहीं होती है, क्योंकि परयोमके असंख्यातवें भागमात्र स्थिति विना गुणहानिका होना अस म्भव है।
७. साता व तीर्थंकर प्रकृतियोंकी व्र. उ. स्थितिबन्ध सम्बन्धी दृष्टिभेद
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घ. १२/४.२.१,१०१/३२९/६ उपरिणामहानिससागाओ सेडिछेदमाहिती बहुगाओ त्ति के वि आइरिया भणति । तेसिमाइरियागमहिप्पारण सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ता जीवा उवरि तप्पा ओगाहामी होति एवं वक्त्राने अशोष्णम्भरथमिस्स परिदोषस्स अलेज्जदिभागवतं भादो ( साता वेदनीयके द्वि स्थानिक यब मध्यसे तथा असातावेदनीयके चतुस्थानिक यब मध्यसे ऊपरकी स्थितियों में जीवोंकी ) 'नाना गुणहानि शाकाएँ] श्रेणिके अर्थों महुत है ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। उन आचार्योंके अभिप्राय से श्रेणिके अस्पातले भाग प्रमाण जीव आगे तत्प्रायोग्य असंख्यात गुणहानियाँ जाकर हैं । परन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि इस व्याख्यानमें अन्योन्याभ्यस्त राशि पत्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण पायी जाती है।
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घ. १२/४.२.१४.३०/४१४/१२ आदिमं तिमदोहि पहि गोकोडी सादरेयससागरोत्तातिर समयटूट्ठदा होदित्ति के वि आइरिया भणति । तण घडदे । कुदो । आहाररस पासमेतादित्ययरस्स सादिरेयतेत्तीसागरीयममेता समयपणद्वदा होति सि सुखाभावादी आदि और अन्सके दो वर्ष पृथक्वोंसे रहित तथा दो पूर्व कोटि अधिक तीर्थंकर प्रकृतिफी] तेतीस सागरोपम मात्र समय प्रमद्धार्थता होती है. ऐसा किसने हो बाचार्य महते हैं परन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि, आहारकद्विकको संरुपात वर्ष मात्र और शंकर प्रकृति साधिक तीस सागरोगम प्रमाण समर्थ है, ऐसा कोई सूत्र नहीं है।
५. स्थितिबन्ध सम्बन्धी शंका-समाधान
१. साताके जघन्य स्थिति बन्ध सम्बन्धी
६/१६-०२/२०६/२ तीसियस्स समामरणीयास तो धिमा सीयमेवमेवरस सादावेद
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५. स्थितिबन्ध सम्बन्धी शंका-समाधान
णीयरस पण्णारससागरोवमकोडाकोडी उक्वस्सटिट्ठदिअस्स वधं वारसमुहुत्तिय जहणट्ठिदि बंधदे ण दंसणावरणादो सुहस्स सादावेदणीयस्स विसोधीदो मुट्ठु ट्ठिदिबंधोषणाभावा । = तीस कोको सागको उत्कृष्ट स्थितिवाले दर्शनावरणीय कर्मकी अन्तर्मुहूर्त मात्र जघन्य स्थितिको बाँधनेत्राला सूक्ष्म साम्पराय संयत टीस कोहाकोड़ी सागरोपमको उत्कृष्ट स्थिति पानीक भेदस्वरूप पन्द्रह कोड़ाकोडी सामरोपम प्रति उत्कृष्ट स्थितिमाले सातावेदनीय कर्म की बारह मुहूर्त वाली जघन्य स्थितिको कैसे बाँधा है उत्तर नहीं, क्योंकि, दर्शनावरणीय कर्मकी अपेक्षा शुभ प्रकृतिरूप] सातावेदनीय कर्मको विशुद्धिके द्वारा स्थितिबन्धकी अधिक अपवर्तनाका अभाव है।
२. उ. अनुभागके साथ अनुत्कृष्ट स्थिति बन्ध कैसे ध.१२/४,२,१३,४०/३१३/६ उक्कस्साणुभागं बंधमाणो णिच्छरण उक्कसिम दिदि बंदि उक्तस्स किलेसेग बिना उक्करसाणुभागाभावाद एवं संतेाभागे जिसमे अस्स ट्रिट्ठदीए संभवोति । ण एस दोसो, उक्कस्साणुभागेण सह उक्करसदिउर्दि बंधिय पडिमग्गस्स अट्ठदिगलगाए दो समऊगादिनिय भाग अदिदिगणार मादो अस्थि, सरिसनिय परमापूर्ण तर भादो...पभग्गसमजाव अंतकालीन गोलाब अनुभागलं'ड्यघादाभावादो। प्रश्न- चूँकि उत्कृष्ट अनुभागको बाँधनेवाला जीव निश्चयसे उत्कृष्ट स्थितिको ही बाँधता है, क्योंकि उत्कृष्ट संक्लेशके बिना उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध नहीं होता; अतएव ऐसी स्थिति अनुभागको विवक्षामें अनुष्कृष्ट स्थितिकी सम्भावना कैसे हो सकती है ? उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि उत्कृष्ट अनुभाग के साथ उत्कृष्ट स्थितिको बाँधकर प्रतिभग्न हुए जीन के अधःस्थिति गलने से उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा एक समय हीन आदि स्थिति विकल्प पाये जाते हैं। और अधःस्थितिके गलने से अनुभागका घात कुछ नहीं होता है, क्योंकि, समान धनवाले परमाणु वहाँ पाये जाते हैं।प्रतिभग्न होनेके प्रथम समय लेकर जब तक अन्तर्मुहूर्त काल नहीं बीत जाता है तब तक अनुभाग काण्डक घात सम्भव नहीं है।
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३. विग्रह गति में नारकी संज्ञीका भुजगार स्थितिबन्ध कैसे
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क. पा. ४/३-२२/११/२७/७ संकिलेसवखरण विणा तदियसमए कधं सनि दिउदि बंदिदमा सविचिदियजादि मरिसडीए उपसंभादो प्रश्नलेश क्षय बिना (विग्रहगति के तीसरे समय में वह ( नरक गतिको प्राप्त करने बाला) जीव संज्ञीकी ( भुजगार) स्थितिको कैसे बाँधता है ? उत्तर- क्योंकि संक्लेशके बिना संज्ञी पंचेन्द्रिय जातिके निमित्त से उसके स्थिबन्ध पायी जाती है।
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