Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 463
________________ स्थिति ફ્ ३ ४ ५ ६ ७ * ८ ५ १ २ ३ स्थितिजन्य संक्या विशुद्ध परिणामका स्थान । मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्धक कौन । उत्कृष्ट अनुभागके साथ उत्कृष्ट स्थिति बन्धको व्याप्ति । स्थिति व प्रदेश बन्धमें अन्तर - दे. प्रदेश बन्ध । उत्कृष्ट स्थिति बन्धका अन्तरकाल । २ जघन्य स्थितिबन्ध गुणहानि सम्भव नहीं । खाता न तीर्थंकर प्रतियोंका न सम्बन्धी दृष्टि मेद ईर्यापथ कर्मकी स्थिति सम्बन्धी जघन्य व उत्कृष्ट स्थिति सत्त्वके स्वामी उ स्थितियन्य - दे ईर्यायथ । -दे, सव/२ | अनुभागके साथ अनुष्ट स्थिति कैसे। स्थितिबन्ध सम्बन्धी शंका समाधान साताके जघन्य स्थितिबन्ध सम्बन्धो । उत्कृष्ट अनुभाग के साथ अनुत्कृष्ट स्थितिवन्ध कैसे । विग्रह गति में नारको संक्षोका सुजगार स्थितिबन्ध कैसे ? ६ स्थितिबन्ध प्ररूपणा १ मूलोत्तर प्रकृतियोंकी जयन्योत्कृष्ट आबाधा व स्थिति तथा उनका स्वामित्व । इन्द्रिय मार्गणाकी अपेक्षाकृतियों की उ. ज. रिथतिकी सारणी | उत्कृष्ट व जघन्य स्थिति, प्रदेश व अनुभाग के 'बन्धोंकी प्ररूपणा । १. भेद व लक्षण १. स्थिति सामान्यका लक्षण अन्य प्ररूपणाओं सम्बन्धी सूची । मूलोत्तर प्रकृतिकी स्थितिबन्ध व वन्धकों समन्धी संख्या क्षेत्र वन, काल, अन्तर, भाव व अवदुत्व रूप आठ मरूपणाएँ । Jain Education International - दे. वह वह नाम । १. स्पितिका अर्थ गमनरहितता रा. वा //१०/२/४१० / २४ तद्विपरीता स्थितिः । द्रव्यस्य स्वदेशादप्रधयन हेतुर्गतिनिवृत्तिरूप स्थितिगन्तव्य गतिविपरीत स्थिति होती है। वर्षा गतिनिवृत्ति रूप स्वदेश से अतिको स्थिति कहते हैं । (स.सि./५/१७/२८१/१२/ रा. या /५/९/१६/४४१/१२ जीवप्ररेशानाम् उदनियतपरिस्पन्स्थाप्रवृत्तिको स्थिति तथा उथलपृथल न होनेको स्थिति कहते हैं । ४५६ २. स्थितिका अकाल स.सि./१/७/२२/४ स्थितिः कालपरिच्छेदः । - जितने काल तक वस्तु रहती है वह स्थिति है (रा. मा./१/०/-/ १००३) रावा./१/८/६/४२/३ स्थितिमोऽधिपरिच्छेदार्थकोपादानम् ॥६॥ = किसी क्षेत्र में स्थित पदार्थकी काल मयार्दा निश्चय करना काल (स्थिति) है। क. पा. ३/३३५८ / १६२ / ६ कम्मसरुवेण परिणदाणं कम्मइयपोग्गलक्खंधाण कम्मभावमछंडिय अच्छाणकालो द्विदीणाम । कर्म रूपसे परिणत हुए कर्मोंके कर्मपनेको न छोड़कर रहनेके बालको स्थिति कहते हैं। क. पा. ३/३-२२/६३९४/२१२/२ सलयियकालमा अावेद सपल णिसेगहाणा द्विदित्ति । सर्व निषेकगत काल प्रधान अद्धाहोता है और सर्वनिषेक प्रदान स्थिति होती है। गो. जी. /भाषा/ पृ. ३१०/२ अन्य काय तै आकर तेजसकाय विषै जीव उपज्या तहाँ उत्कृष्टपने जेते काल और काय न धरे. तेजस कायनिकों धराकरै तिस काल के समयनिका प्रमाण ( तेजसकायिककी स्थिति ) जानना । १३. २. स्थिति का अर्थ आयु १. भेद व लक्षण स. सि. ४/२०/२५१/० स्वोपात्तस्याम उपाभिने दशरीरेण सहायस्थानं स्थितिः । - अपने द्वारा प्राप्त हुई आयुके उदयसे उस भवमें शरीर के साथ रहना स्थिति कहलाती है (रा. २१.२४/२०/१/२३७/१२) २. स्थिति बन्धका लक्षण स. सि. /८/३/३७६/४ तत्स्वभावादप्रच्युतिः स्थितिः । यथा-अजागोमहिष्यादिक्षीराणां माधुर्यस्वभावादप्रच्युतिः स्थितिः । तथा ज्ञानावरणादीनामर्थावगमादित्यभावादवच्युतिः स्थिति जिसका जो स्वभाव है उससे च्युत न होना स्थिति है। जिस प्रकार बक्री, गाय और भैंस आदि दूधका माधुर्य स्वभावसे न होना स्थिति है। उसी प्रकार ज्ञानावरण आदि कर्मोंका अर्थका ज्ञान न होने देना आदि स्तन होता स्थिति है (पं. सं. वा./२/५१४-२१२१ (रा.वा./३/५/५६७/७) (प्र. सं. / टी. / ३२/१३/५) (पं. सं/से, /४/१६६-१६७) ६/९.६२ १४६ / १ जोगबसे कम्मररुवेग परिणदा पोग्गल - घानं कायमसे जीने कालो द्विदी नामयोगके शसे कर्मस्वरूप परिणता कमायके से जीवमें एक स्वरूपसे रहने के कालको स्थिति कहते हैं । ३. उत्कृष्ट व सर्व स्थितिके लक्षण क. पा. ३/३-२२/१२०/२५/२ 'तत्यतणसम्वणिसेयाणं समूहों सदी नाम । = (बद्ध कर्म के ) समस्त निषेकोंके या समस्त निषेकों के प्रदेशों के कालको उत्कृष्ट स्थिति कहते हैं। ये स्थिति /९/६ वहाँ पर उत्कृष्ट स्थिति रहनेवाले (बद्ध कर्म के ) सम्पूर्ण निषेकका जो समूह वह सर्व स्थिति है । क. पा. ३/३-२२/२०/१५ पर विशेषार्थ - (द्ध कर्म के) अन्तिम निषेकका जो काल है वह ( उस कर्मको) उत्कृष्ट स्थिति है। इसमें उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होनेपर प्रथम निषेकसे लेकर अन्तिम निषेक तककी सब स्थितियों का ग्रहण किया है । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होनेपर जो प्रथम निषेकसे लेकर अन्तिम निषेक तक निषेक रचना होती है वह सर्व स्थिति है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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