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स्थावर
३. स्थावर जीवोंके भेद
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पं.का./मू./ ११० वी व उदगमगणी माणदि जीवसंसिदा काया १११०] पृथ्वीकाय. अकाय अग्निकाय, बाकाय और वनस्पतिकाय यह कार्ये जीव सहित हैं ।११० ( . आ. १०५) (न.च.मु./१२३); (का.अ. १९२४); (प्र.सं./मू./११) (स्वा.म. २६ / ३२६/२३/
४. स्थावर जीव एकेन्द्रिय ही होते हैं।
पं.का./मू./११० देति खलु मोहबहुलं फार्स बहुगा वि ते तैसि । ११० ।
( पाँचों स्थावर जीवोंकी अवान्तर जातियों की अपेक्षा ) उनकी भारी संख्या होनेपर भी वे सभी उनमें रहनेवाले जीवको वास्तव में अत्यन्त मोहले संयुक्तस्पर्श देती है (अर्थात् स्पर्श ज्ञानमें निमित्त होती है।)
घ. १/१,१.३३ / गा. १३५/२३६ जाणदि पस्सदि भुंजदि सेवदि पस्सिदिएण एक् । कुणदि य तस्सामित्तं थावरु एइंदिओ तेण ११३५। क्योंकि स्थावर जीव एक स्पर्शन इन्द्रियके द्वारा ही जानता है, देखता है, खाता है, सेवन करता है और उसका स्वामीपना करता है, इसलिए उसे एकेन्द्रिय स्थावर जीव कहा गया है । १३५ ।
५. स्थावर जीवोंमें जीवत्वकी सिद्धि
पं.का./.../ ११३ मत्था माणूसा य सुरागया। जारिया तारिया जीमा एदिया पेया ॥११३॥ एकेन्द्रियाणां चैतन्यास्रिये रातोपन्यः सोऽयम् अण्डमानां गर्भ स्थानों, हितानां च बुद्धिपूर्वक व्यापारादर्शनेऽपि येन प्रकारेण जो निश्चीयते, तेन प्रकारेण के न्द्रियाणामपि उभयेषामपि बुद्धिपूर्वकव्यापारादर्शनस्य समानस्यादिति में वृद्धि पानेवाले प्राणी, गर्भ में रहे हुए प्राणी और प्राप्त मनुष्य जैसे हैं, जैसे एय जब जानना | ११३ | यह एकेन्द्रियोंको चैतम्या अस्तित्व होने सम्बन्धी दृष्टान्तका कथन है । अण्डे में रहे हुए प्राणी, गर्भ में रहे हुए और मुर्च्छा पाये हुएके का उन्हें बुद्धिपूर्वक व्यापार नहीं देखा जाता तथापि, जिस प्रकार निश्चय किया जाता है, उसी प्रकार एकेन्द्रियों के जीवश्वका भी निश्चय किया जाता है; क्योंकि दोनोंमें बुद्धि पूर्वक व्यापारका अदर्शन है। रा.मा./१/४/१५-१६/२६/१७ यद्य वं वनस्परमादीनामजीयस्वं प्राप्नोति भावादज्ञानादी प्रवृत्ति उपलब्धिः न च तेषां तत्का प्रवृतिरस्ति हिताविपरिवर्जनात् कियां इष्ट्या स्वदेहेऽन्यत्रतग्रहाद मम्यते बुद्धिमान येषु न तेषु धीः । [ सन्ताना. सि. श्लो. ] इति नैष दोषः तेषामपि ज्ञानादयः सन्ति सर्व इतरेषानागमगम्याः आहारताभालाभयोः पुष्टिम्ानादिदर्शनेन तिगम्यारथ गर्भस्थ
चितादिषु सत्यपि जीवत्येतत्पूर्वक प्रवृत्त्यभावाद हेतुव्यभि चारः । - प्रश्न - ( जिसमें चेतनता न पायी जाये सो अजीब है ) यदि ऐसा है तो वनस्पति आदिकों में अजीवनकी प्राप्ति होती है। क्योंकि उनमें चेतनताका अभाव है। ज्ञानादिकी प्रवृत्ति से ही उसकी उपलब्धि होती है । परन्तु वनस्पति आदिमें बुद्धि पूर्वक प्रवृत्ति नहीं देखी जाती, क्योंकि उनमें हितके ग्रहण व अहितके त्यागका अभाव है। कहा भी है-अपने शरीर में बुद्धि क्रिया बुद्धिके रहते ही देखी जाती है, वैसी क्रिया यदि अन्यन्त्र हो तो वहाँ भी बुद्धिका सान मानना चाहिए, अन्यथा नहीं ? उत्तर- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि वनस्पति आदि ज्ञानादिका सद्भाव है इसको सर्वतो अपने प्रत्यक्ष ज्ञानसे जानते हैं और हम लोग आगमसे । खान पान आदिके मिलने पर पुष्टि और न मिलने पर मलिनता देखकर उनमें चैतन्यका अनुमान भी होता है। गर्भस्थ जीव मूच्छित और
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अण्डस्थ जीव बुद्धिपूर्वकस्थत क्रिया भी दिखाई नहीं देखी, अतः न दीखने मात्र से अभाव नहीं किया जा सकता ।
अर्शोऽङ्कुर
स्या. म. / २६ / ३३० / १० पृथिव्यादीनां पुनर्जीवत्वमित्थं साधनीयम् । यथासामा मिसिलाविरुण पृथिवी समानधारयाना, भौममम्भोऽपि सात्मकम् क्षतभूसजातीयस्य सभावस्य संभवात् शाजूरवत् । आन्तरिक्षमपि सात्मकम्, अभ्रादिभिकारे स्वतः संपाताद मत्स्यादिमत् तेजोऽपि सारमकर, आहारोपादानेन वृद्धचादिविकारोपलम्भाद पुरुषाद वायुरपि सात्मकः अपरप्रेरित तिर्यग्गतिमवाद गोयद वनस्पतिरपि सात्मकः छेदादिभिम्लन्यादिदर्शनात् पुरुषाङ्गवत् । केषांचित् कसरतम्याद वा सर्वेष
स्वापाङ्गलोपश्लेयादिविकाराय
सात्मकत्व सिद्धिः । आप्तवचनाच्च । त्रसेषु च कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादिषु न केषांचिद साम्यकरले विगानमिति । १. गंगा पाषाणादि रूप पृथिवी सजीव है, क्योंकि डाभके अंकुरकी तरह पृथिवीके काटनेपर वह फिरसे ऊग आती है । २. पृथिवीका जल सजीव है, क्योंकि मैककी तरह जलका स्वभाव खोदी हुई पृथिवीके समान है। आकाशका जल भी सजीव है, क्योंकि मछली की तरह बादल के विकार होने पर वह स्वतः ही उत्पन्न होता है । ३. अग्नि भी सजीव है, क्योंकि पुरुषके अंगों की तरह आहार आदिके ग्रहण करनेसे उसमें वृद्धि होती है । ४, बायुमें भी जीव है, क्योंकि गौकी तरह वह दूसरे से प्रेरित होकर गमन करती है । ५. वनस्पति में भी कि पुरुषके अंगोंकी तरह बने उसमें मलिनता देखी जाती है । कुछ वनस्पतियों में स्त्रियोंके पादाघात आदिसे विकार होता है, इसलिए भो वनस्पतिमें जीव है । अथवा जिन जीवोंमें चेतना घटती हुई देखी जाती है, वे सब सजीव है। सर्वज्ञ भगवा पृथिवी आदिको जीव कहा है । ६, कृमि, पिपीलिका, भ्रमर, मनुष्य आदि प्रस जीवोंमें सभी लोगोंने जीव माना है।
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६. स्थावरोंमें कथंचित् श्रसपना
पं.का./.../१९९९ तिरथावरजोगा अणिलागतकाध्याय ते [तसा] [१९१ अथ व्यवहारेणाग्निमातकायिकामा प्रस दर्शयति पृथिव्यनस्पतयखयः स्थावर काययोगासंबन्धात्स्यायरा भण्यन्ते अनामिकायिका रोषु पञ्चस्थान रेषु मध्ये चलन क्रियां रष्ट्रा व्यवहारेण त्रसाभण्यन्ते । अत्र व्यवहारसे अग्नि और बातकायिकों के सत्व दर्शाते हैं -- पृथिवी, अप और वनस्पति ये तीन तो स्थावर अर्थात स्थिर योग सम्बन्धके कारण स्थावर कहे जाते हैं । परन्तु अग्नि व वायुकायिक उन पाँच स्थावरोंमें ऐसे हैं जिनमें चलन किया देखकर व्यवहारसे उस भी कह देते हैं।
७. स्थावरके लक्षण सम्बन्धी शंका समाधान रा.वा./२/१२/४-३/१२७/१ स्थादेतत्-सिष्ठन्तीरयेनं शीलाः स्थावरा इति सम्म किं कारणम् बाजादीनामस्थावरसंगात वायुतेजोऽम्भसां हि देशान्तरमाविर्शनादस्थावरावं स्यात् कथं तस्य निष्पत्तिः स्थानशीलाः स्थावरा" इति एवं विशेषतखाभात् क्वचिदेव वर्तते [४] अथ मतमेतद् इमेव वाय्वादीनामस्थावरस्वमितिः सन्नः किं कारणम् समयायमिवोधात् एवं हि समयोऽपस्थितः सत्प्ररूपणाय कायानुवाद “सा नाम जीन्द्रियादारभ्य वा अयोगिकेवलिनः प ११९०१ सु. ४४/१७५) । तस्मान्न चलनाचलनापेक्ष सस्थावरवं कर्मोदयापेक्षनेवेति स्थितम्। प्रश्न जो ठहरे खो, स्थावर ऐसा क्यों नहीं कहते ? उत्तर--नहीं, क्योंकि, वायु आदिकोंमें अस्थावरत्वका प्रसंग आता है। वायु अग्नि और जलकी देशान्तर प्राप्ति देखी जाती है। इससे वे अस्थावर समझे जायेंगे। प्रश्न-- फिर इस स्थावर शब्द की 'जो ठहरे सो स्थावर ऐसी निष्पत्ति कैसे हो सकती है 1
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