Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 460
________________ स्थान क्योंकि ये सब पुद्गल द्रव्यके परिणाम हैं । ५५। अर्थात् आगम में निम्न नामके स्थानों का उल्लेख यत्रतत्र मिलता है ।) २. निक्षेप रूप स्थान नोट-नाम स्थापना आदि भेद निक्षेप १२/२ (१०/४.२.४. १०५ / ४३४/८ ) । 1 सचित्त 1 | बाह्य | ध्रुव अध्रुव वर्ण / अभ्यन्तर 1 T सकोच तडीन विकोचात्मक 1 तद्वयतिरिक्त I अचित्त बाह्य 1 Jain Education International गंभ (व इनके उसर भेड़ ) भाव निक्षेप रूपभेद-दे, भाव । 1 ( लोकाकाश ) रूपी 1 धर्म बच अधर्म बाह्य 1 1 T I एक संख्यात असंख्यात अनंत इत्यादि जहद्वृत्तिक प्रदेशी प्रदेशी प्रदेशी प्रदेशी T 1 के आकाश प्रदेश I अभ्यन्तर } मिश्र 1 काल धर्म अधर्म काल का निज अब स्थान * अम्य सम्बन्धित विषय १. अध्यात्म आदि स्थानोंके लक्षण २. जीव स्थान ३. स्वस्थान रवस्थान व विहारवत्स्व-स्वस्थान 1 ४५३ अरूपी 1 - अभ्यन्तर 1 1 1 1 / रस [प] मूर्ति वर्णादि उपयोग इत्यादि हीनता २. निक्षेप रूप भेदोंके लक्षण ध. १०/२,४,४,१७५/४३४/१० जं तं धुवं तं सिद्वाण मोगाहणट ठाणं । कुदो। सिमोगाइगाए बहिणीसमभावेण विरामादो। मधु चिद् तं संसारा जीवाणमोहगाहमा दो। तत्थ वड्ढिहाणीणमुत्र भादो ...ज तं संकोच विकोचणप्पयमब्भंतरसचित्तट्ठाणं तं सव्वेसि सजोगजीवाणं जीवदन । जं तं तव्त्रिहोगमन्तर सचिवाला गणराज अमोडिदि बंध परिणयानं सिद्धाअ जो गिकेवली या जीवद जो ध्रुव सचित्त स्थान है वह सिद्धाँका अनास्थानक वृद्धि हानिका प्रभाव होने से उनकी अवगाहना स्थिर स्वरूपसे अवस्थित है । जो अध्रुव सचित्तस्थान है वह संसारी जीवोंकी अवगाहना है, क्योंकि उनमें वृद्धि और हानि पायी जाती है।... संकोच विकचात्मक अभ्यन्तर सचित्त स्थान है वह योग युक्त सब जीवोंका जीव द्रव्य है । जो द्विहीन अभ्यन्तर सचित्त स्थान है यह केवलज्ञान व केवलदर्शनको धारण करनेवाले एव मोक्ष व स्थितिबन्धसे परिणत ऐसे सिद्धों अथवा अयोगत्र लियोंका जीव द्रव्य है । नोट- शेष निक्षेप रूप भेदोंके लक्षण--दे, निक्षेप अजवृत्तिक - दे. वह वह नाम । - दे. समास । - -३.शेज/१। स्थानकवासी दे, श्वेताम्बर । स्थानांगका राग स्थाना पद्धति - Place Value (ज. प. / प्र.१०६ ) | स्थापना - १. दे. धारणा / १ धरणी, धारणा, स्थापना, कोष्ठा और प्रतिष्ठा एकार्थबाची हैं । ध. १३/५.५. ४/२४३ / ११ स्थाप्यते अनया निर्णीतरूपेण अर्थ इति स्थापना। जिसके द्वारा निर्णीत रूपसे अर्थ स्थापित किया जाता है वह स्थापना है । २. पूजा में स्थापनाका विधि निषेध - दे. पूजा / ५ स्थापनाअक्षर दे, अक्षर 1 स्थापना नयन स्थापना निक्षेप - दे. निक्षेप /४ - स्थापना सत्य दे. सत्य / १ । स्थापित स्थावर १. आहारका एक दोष- दे. आहार / IT / ४४ । २. वसएक दोष स्थावर - वर्धमान भगवान्का पूर्वका १८ वाँ भय- दे. वर्धमान । स्थावर - पृथिवी अप आदि कायके एकेन्द्रिय जीव अपने स्थान पर स्थित रहने के कारण अथवा स्थावर नामकर्मके उदयसे स्थावर कहलाते हैं। ये जीव सूक्ष्म व बादर दोनों प्रकार के होते हुए सर्व लोक में पाये जाते हैं। - श्रुतज्ञान[III । notation system. १. स्थावर जीवोंका लक्षण स.सि./२/१२/१७१/४ स्थावरनामकर्मोदयवशवर्तिनः स्थावराः । =स्थामर नामकर्मके उदयसे जीवाते हैं। (रा. ना./२/१२/ १२६/२८) । ध. २/१.१.३३/गा. १३३/२११ दिपदि जदि मेदि परिसदिरण एचकेण । कुणदि य तस्सामित्तं थारु एवं दिओ तेण ११३५ । स्थावर जीव एक स्पर्शन इन्द्रियके द्वारा ही जानता है, देखता है, खाता है, सेवन करता है और उसका स्वामीपना करता है, इसलिए उसे एकेन्द्रिय स्थावर जीव कहा है | १३६| १/१.१.३६/२६१/६ एते चापि स्थावरा स्थावरमामकमदयजनितविशेषत्वात् । =स्थावर नामकर्म के उदयमे उत्पन्न हुई विशेषता के कारण ये पाँचों ही स्थावर कहलाते हैं। २. स्थावर नामकर्मका लक्षण जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश स.सि./८/१२/०१/१० मत नाम । प्रादुर्भावस्तत्स्थावर-जिसके उदयसे एकेन्द्रियों मे उम्पत्ति होती है वह स्थावर नामकर्म है। (रा.वा./१/११/२२/७/१६) (गो.... १३ १०/१७) । For Private & Personal Use Only ध. ६ / १६६-१.२८/६१/६ जस्स कम्मम्स उदरण जीवी थावरतं पडिवज्जदि तस्स कम्मरंग थावरण | जदि थावरणामकम्मं ण होज्ज, तो थावरजीवाणमभावो हाउज । ण च एवं तेसिगुवलंभा । = जिस कर्मके उदयसे स्थापनेको प्राप्त होता है, उस कर्मकी स्थावर यह संज्ञा है । यदि स्थावर नाग न हो, तो स्थावर जीवोंका अभाव हो जायेगा। दन्तु ऐसा नहीं है । (ध. १२/१५,१०१/३६५ / ४) । * स्थावर नामकर्मके असंख्यातों भेद सम्भव हैं नाम ★ स्थावर नामकर्मकी बन्ध उदय व सत्व प्ररूपणाएँ दे. वह वह नाम । www.jainelibrary.org

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