Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 457
________________ स्त्री स्त्री या। अब लत्ति होदि जं से ण दढं हिदयम्मि धिदिवल अत्थि। कुमरणोपायं जं जणयदि तो उच्चदि हि कुमारी।६८० आलं जाणेदि पुरिसस्स महल्लं जेण तेण महिला सा । एवं महिला णामाणि होति असुभाणि सव्वाणि (१८१। = स्त्री पुरुषको मारती है इस बास्ते उसको वधू कहते हैं। पुरुषमें यह दोषों का समुदाय संचित करती है इस वास्ते इसका 'स्त्री' यह नाम है।६७७१ मनुष्यको इसके समान दूसरा शत्रु नहीं है अतः इसको नारी कहते हैं। यह पुरुषको प्रमत्त अर्थात उन्मत्त बनाती है इसलिए इसको 'प्रमदा कहते हैं ।१७८। पुरुषके गले में यह अनर्थोंको बाँधती है अथवा पुरुषको देखकर उसमें लीन हो जाती है अत: इसको विलया कहते हैं। यह स्त्रो पुरुषको दु.ख से संयुक्त करती है अतः युवति और योषा ऐसे दो नाम इसके हैं ।१७। इसके हृदयमें धैर्य रूपी बल दृढ रहता नहीं अतः इसको साबला कहते हैं। कुत्सित ऐसा मरणका उपाय उत्पन्न करती है, इस लिए इसको कुमारी कहते हैं ।१६०। यह पुरुषके ऊपर दोषारोपण करती है इसलिए उसको महिला कहते हैं। ऐसे जितने स्त्रियों के नाम हैं वे सत्र अशुभ है ।१८) ४. द्रव्य व मावस्त्रीके लक्षण स. सि./२/१२/२००/६ स्त्रीवेदोदयात् स्त्यायस्त्यस्यां गर्भ इति स्त्री। - स्त्रीवेदके उदयसे जिसमें गर्भ रहता है वह (द्रव्य ) स्त्री है। (रा. वा./२/५२/१/१७/४)। गो. जी./जी. प्र./५७१/५६१/१७ स्त्रीवेदोदयेन पुरुषाभिलाषरूपमैथुनसंज्ञाक्रान्तो जीवः भावस्त्री भवति । स्त्रीवेदोदयेन निर्माणनामकर्मोदययुक्ताङ्गोपाङ्गनामकर्मोदयेन निर्लोममुग्वस्तनयोन्यादिलिङ्गलक्षितशरीरयुक्तो जीवो भवप्रथमसमयमादिं कृत्वा तद्भवचरमसमयपर्यन्तं द्रव्य(स्त्री) भवति । -स्त्रीवेदके उदयसे पुरुषकी अभिलाषा रूप . मैथुन संज्ञाकाधारक जीवभावस्त्री होता है ।...निर्माण नामकर्मके उदयसे युक्त स्त्रीवेद रूप आकार विशेष लिये, अंगोपांग नामकर्मके उदयसे रोम रहित मुख, स्तन, यो नि इत्यादि चिह्न संयुक्त शरीरका धारक जीव, सो पर्यायके प्रथम समयसे लगाकर अन्तसमध पयंत द्रव्यस्त्री होता है। नोट-(और भी देखो भावस्त्रोका लक्षण स्त्री/१,२) । नृपादिभिर्गृहीतत्वान्नीतिमार्गानतिक्रमात् ।२०३। विख्यातो नीतिमार्गोऽयं स्वामी स्याज्जगता नृपः । वस्तुतो यस्य न स्वामी तस्य स्वामी महीपतिः।२०४॥ तन्मतेषु गृहीता सा पित्राद्यैरावृतापिया। यस्याः संसर्गतो भीतिर्जायते न नृपादितः ।२०५॥ तन्मते द्विधैय स्वैरी गृहीतागृहीतभेदतः । सामान्यवनिता या स्याद्गृहीतान्तभवितः ।२०६।- स्वस्त्रो-देवशास्त्र गुरुको नमस्कारकर तथा अपने भाई बन्धुओं की साक्षी पूर्वक जिस कन्याके साथ विवाह किया जाता है वह विवाहिता स्त्री कहलाती है. ऐसी विवाहिता स्त्रियों के सिवाय अन्य सब पत्नियाँ दासियाँ कहलाती हैं ।१८। विवाहिता पत्नी दो प्रकारकी होती है। एक तो कर्मभूमिमें रूढिसे चली आयी अपनी जातिकी कन्याके साथ विवाह करना और दूसरी अन्य जातिकी कन्याके साथ विवाह करना ।१७१। अपनी जातिकी जिस कन्याके साथ विवाह किया जाता है वह धर्मपत्नी कहलाती है। वह ही यज्ञपूजा प्रतिष्ठा आदि शुभ कार्यों में व प्रत्येक धर्म कार्यों में साथ रहती है ।१८०। उस धर्मपत्नीसे उत्पन्न पुत्र ही पिताके धर्मका अधिकारी होता है और गोत्रकी रक्षा करने रूप कार्यमें वह ही समस्त लोकका अविरोधी पुत्र है। अन्य जातिकी विवाहिता कन्या रूप पत्नीसे उत्पन्न पुत्रको उपरोक्त कार्यों का अधिकार नहीं है ।१२। जो पिताकी साक्षीपूर्वक अन्य जातिकी कन्याके साथ विवाह किया जाता है वह भोगपत्नी कहलाती है, क्योंकि वह केवल भोगोपभोग सेवन करने के काम आती है, अन्य कामों में नहीं।१८३। अपनी जाति तथा पर जातिके भेदसे स्त्रियाँ दो प्रकारकी हैं तथा जिसके साथ विवाह नहीं हुआ है ऐसी स्त्री दासी वा चेटो कहलाती है, ऐसी दासी केवल भोगाभिलाषिणी है ।१८४ा दासी और भोगपत्नी केवल भोगोपभोगके ही काम आती हैं। लौकिक दृष्टिसे यद्यपि उनमें थोड़ा भेद है पर परमार्थ से कोई भेद नहीं है ।१८ परस्त्री भी दो प्रकारकी हैं, एक दुसरेके अधीन रहनेवाली और दूसरी स्वतन्त्र रहनेवाली जिनको गृहीता और अगृहीता कहते हैं। इनके सिवाय तीसरी वेश्या भी परस्त्री कहलाती है ।१६८। गृहीता या विवाहिता स्त्री दो प्रकारको हैं एक ऐसी स्त्रियाँ जिनका पति जोता है तथा दूसरी ऐसी जिनका पति तो मर गया हो परन्तु माता, पिता अथवा जेठ देवरके यहाँ रहती हों ।१६। इसके सिवाय जो दासीके नामसे प्रसिद्ध हो और उसका पति ही घरका स्वामी हो वह भी गृहीता कहलाती है। यदि वह दासी किसोकी रक्खी हुई न हो, स्वतन्त्र हो तो वह गृहीता " दासी के समान ही अगृहीता कहलाती है ।२००। जिसके भाई बन्धु जीते हों परन्तु पति मर गया हो ऐसी विधवा स्त्रीको भी गृहीता कहते हैं। ऐसी विधवा स्त्रीके यदि भाई बन्धु सब मर जायें तो अगृहीता कहलाती है ।२०१। ऐसी स्त्रियों के साथ संसर्ग करते समय कोई शत्रु राजाको खबर कर दे तो अपराधके बदले राज्यकी ओरसे भी कठोर दण्ड मिलता है ।२०२। कोई यह भी कहते हैं कि जिस स्त्रीका पति और भाई बन्धु सब मर जायें तो भी अगृहीता नहीं कहलाती किन्तु गृहीता ही कहलाती है, क्यों कि गृहीता लक्षण उसमें घटित होता है क्योंकि नीतिमार्गका उल्लंघन न करते हुए राजाओंके द्वारा ग्रहण की जाती हैं इसलिए गृहीता ही कहलाती हैं ।२०३। संसारमें यह नीतिमार्ग प्रसिद्ध है कि संसार भरका स्वामी राजा होता है। वास्तवमें देखा जाये तो जिसका कोई स्वामी नहीं होता उसका स्वामी राजा ही होता है ।२०४। जो इस नीतिको मानते हैं, उनके अनुसार उसको गृहोता ही मानना चाहिए, चाहे वह माता पिताके साथ रहती हो, चाहे अकेली रहती हो। उनके मतानुसार अगृहीता उसको समझना चाहिए जिसके साथ संसर्ग करनेपर राजाका डर न हो ।२०५॥ ऐसे लोगोंके मतानुसार रहनेवाली ( कुलटा) स्त्रियाँ दो प्रकार ही समझनी चाहिए। एक गृहीता दूसरी अगृहीता। जो सामान्य स्त्रियाँ हैं वे सब गृहीतामें अन्तर्भूत कर लेना चाहिए ( तथा वेश्याएँ अगृहीता समझनी चाहिए)।२०६। ५. गृहीता आदि स्त्रियोंके भेद व लक्षण ला, सं/२/१७८-२०६ देव शास्त्रगुरूनत्या बन्धुवर्गात्मसाक्षिकम् । पत्नी पाणिगृहीता स्यात्तदन्या चेटिका मता ।१७। तत्र पाणिगृहीता या सा द्विधा लक्षणाद्यथा। आत्म-ज्ञातिः परज्ञातिः कर्मभृरूढिसाधनात ।१७६। परिणीतात्मज्ञातिश्च धर्मपत्नीति सैव च । धर्मकार्ये हि सधीची यागादौ शुभकर्मणि ।१८०1 सः सूनुः कर्मकार्येऽपि गोत्ररक्षादिलक्षणे । सर्वलोकाविरुदत्वादधिकारी न चेतरः।१८२। परिणीतानात्मज्ञातिर्या पितृसाक्षिपूर्वकम् । भोगपत्नीति सा ज्ञया भोगमात्रैकसाधनात् १८३। आत्मज्ञातिः परज्ञातिः सामान्यव निता तु या। पाणिग्रहणशून्या चेच्चेटिका सुरतप्रिया ।१८४। चेटिका भोगपत्नीच द्वयोर्भागाङ्गमात्रतः । लौकिकोक्तिविशेषोऽपि न भेदः पारमार्थिकः ।१८। विशेषोऽस्ति मिथश्चात्र-परत्वैकत्वतोऽपि च । गृहीताचागृहीता च तृतीया नगराङ्गना १९८। गृहीतापि द्विधा तत्र यथाद्या जोवभतृ का । सत्सु पित्रादिवर्गेषु द्वितीया मृतभत का ।१३। चेटिका या च विरूपाता पतिस्तस्याः स एव हि । गृहीता सापि विख्याता । स्यादगृहीता च तद्वत् ।२००। जीवत्सु बन्धुवर्गेषु रण्डा स्यान्मृतभर्तृ का। मृतेषु तेषु सैव स्यादगृहीता च स्वैरिणी ।२०१। अस्याः ससर्गवेजायामिङ्गिते नरि वैरिभिः। सापराधतया दण्डो नृपादिभ्यो भवेध वम् ।२०२। केचिज्जैना बदन्त्येव गृहोतेषां स्वलक्षणात् । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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