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स्तनदृष्टि
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स्त्री
स्तनदृष्टि--कायोत्सर्गका एक अतिचार-दे० व्युत्सर्ग/१ । स्तनलोला-दूसरे नरकका ११वा पटल-दे० नरक/५/११॥ स्तनलोलुक-दूसरे नरकका ११वा पटल-दे० नरक/१/११ स्तनित-१. भवनवासी देवोंका एक भेद-दे० भवन/१४२.स्तनित
कुमार देवोंका लोकमै अवस्थान-दे० भवन/४ । स्तब्ध-कायोत्सर्गका एक अतिचार-दे० व्युत्सर्ग/९ । स्तव-दे० भक्ति/३। स्तिवुक संक्रमण-दे० संक्रमण/१० ।
-१ पूर्व व पश्चात स्तुति नामक आहारका एक दोष --दे० आहार/11/४।२. स्तुति सम्बन्धी विषय-देभक्ति/३।३. न्या.द./टी. २/१/६४/१००/२५ विधेः फलवादलक्षणा या प्रशंसा सा स्तुतिः संप्रत्ययाथं स्तूयमानं श्रद्दधीतेति । प्रवत्तिका च फलश्रवणात् प्रवतन्ते सर्वजिता वै देवाः सर्व मजयन् सर्वस्वाप्त्यै सर्वस्य जित्यै सर्वमेवैतेनाप्नोति सर्व जयतीत्येवमादि । -विधि वाक्यके फल कहनेसे जो प्रशंसा है, उसे स्तुति कहते हैं क्योंकि फलकी प्रशंसा सुननेसे प्रवृत्ति होती है। उदाहरण, जैसे--देवोंने इस यज्ञको करके यज्ञको जीता, इस यज्ञके करनेसे सब कुछ प्राप्त होता है इत्यादि । स्तूप-१. म.पु./२२/२६४ जनानुरागास्ताद्रूप्यम आपन्ना इव ते बभुः। सिद्धार्हत्प्रतिबिम्बोधैः अभितश्चित्रमूर्तयः । अर्हन्त सिद्ध भगवान की प्रतिमाओंसे वे स्तूप चारों ओरसे चित्रविचित्रहोरहेथे और सुशोभित हो रहे थे मानो मनुष्योंका अनुराग ही स्तूपों रूप हो रहा हो । २६४ । सवशरण स्थिति स्तूप-दे० समशरण २. Pyramid. (ज.प./प्र.(१०८) स्तनप्रयोग-स.सि /७/२७/३६७/३ मुष्णन्त स्वयमेव वा प्रयुङ्क्तेऽन्येन वा प्रयोजयति प्रयुक्तमनुमन्यते वा यतः स स्तेनप्रयोगः । किसीको चोरीके लिए स्वयं प्रेरित करना, या दूसरेके द्वारा प्रेरणा दिलाना या प्रयुक्त किये हुए की अनुमोदना करना स्तेन प्रयोग है।
(रा. वा./७/२७/१/५५४/६)। स्तेनित -कायोत्सर्गका एक अतिचार-दे० व्युत्सर्ग/१। स्तय-१.त. स.19/१५ (प्रमत्तयोगात ) अदत्तादानं स्तेयम् ।१० स. सि./9/१५/३५२/१२ आदानं ग्रामदत्तस्यादानमदत्तादानं स्तेयमित्युच्यते ।...दानादाने यत्र सभवतस्तत्रैव स्तेयव्यवहारः । बिना दी हुई वस्तुका लेना स्तेय है । १५ । आदान शब्दका अर्थ ग्रहण है। बिना दी हुई वस्तुका लेना अदत्तादान है और यहो स्तेय चोरी कहलाता है...जहाँ देना और लेना सम्भव हैं वहीं स्तेयका व्यवहार होता है। (रा.वा./७/१५/२/५४२/१५) २. स्तेय
सम्बन्धी विषय-दे० अस्तेय । स्तेयानन्दी रौद्रध्यान-दे रौद्रध्यान। स्तोक-कालका प्रमाण विशेष-दे० गणित/I/१/४। स्तोत्र-भिन्न-भिन्न आचार्योंने अनेकों स्तोत्र रचे हैं-१, आ. समन्तभद्र (ई. श. २) कृत देवागम स्तोत्र, स्वयंभूस्तोत्र व जिनस्तुतिशतक । २. आ० पूज्यपाद (ई. श. ५) कृत शान्त्यष्टकमें शान्तिनाथ भगवान का स्तोत्र है। ३. श्वेताम्बराचार्य सिद्धसेन दिवाकर (ई.५५५) कृत कल्याणमन्दिर स्तोत्र व शाश्वत जिन स्तुति । ४. आ० पात्रकेशरी (ई.श.६-७) कृत जिनेन्द्र स्तुति या पात्रकेशरी स्तोत्र । ५. आ० अकलंक भट्ट (ई. ६४०-६८०) कृत अकलंक स्तोत्र । ६. आ. विद्यानन्दि ( ई.७७५-८४०) कृत सुपार्श्वनाथ स्तोत्र । ७.
आ० वादिराज (ई. १०००-१०४०) कृत एकीभावस्तोत्र । ८. आ० वसुनन्दि (ई. १०४३-१०५३) कृत जिनशतक स्तोत्र | ह. आ० मानतुंग (ई. १०२१-१०२५) कृत भक्तामर स्तोत्र । १०. श्वे० आ० हेमचन्द्र (ई. १०८८-११८३) कृत वीतराग स्तोत्र। ११. पं. आशाधर ( १९७३-१२४३) कृत सहस्रनाम स्तव । १२. आ० पद्मनन्दि (ई. १३२८-१३६८) कृत जरापल्लीपार्श्वनाथ स्तोत्र । १३. जिनसहस्रनाम स्तोत्र-दे० अर्हन्त स्त्यानगृद्धि-दे. निद्रा। स्त्री-धर्मपत्नी, भोगपत्नी, दासोपत्नी, परस्त्री, वेश्यादि भेदसे स्त्रियाँ कई प्रकारकी कही गयी हैं। ब्रह्मचर्यधर्म के पालनार्थ यथाभूमिका इनके त्यागका उपदेश है। आगममें जो स्त्रियों की इतनी निन्दा की गयी है, वह केवल इनके भौतिक रूपपर ग्लानि उत्पन्न करानेके लिए लिए ही जानना अन्यथा तो अनेकों सतियाँ भी हुई हैं जो पूज्य हैं।
१. स्त्री सामान्य व लक्षण प.सं./प्रा /१/१०५ छादयति सयं दोसेण जदो छादयदि पर पि दोसेण । छादणसीला णियदं तम्हा सा वणिया इत्थी। जो मिथ्यात्व आदि दोषोंसे अपने आपको आच्छादित करे और मधुर संभाषण आदिके द्वारा दूसरोंको भी दोषसे आच्छादित करे, वह निश्चयसे यतः आच्छादन स्वभाववाली है अतः 'स्त्री' इस नामसे वर्णित की गयी है। (ध. १/१,९,१०१/गा. १७०/३४१); (गो. जी./मू./२७४/ ५६५); (पं.सं./सं/१/१६६) । ध. १/१,१,१०१/३४०/६ दोषैरात्मानं परं च स्तृणाति छादयतीति स्त्री, स्त्री चासौ वेदश्च स्त्रीवेदः। अथवा पुरुष स्तृणाति आकाङ्क्षतीति स्त्री पुरुषकाक्षेत्यर्थः। स्त्रियं विन्दतीति स्त्रीवेदः अथवा वेदन वेदः, स्त्रियो वेदः स्त्रीवेदः।-१. जो दोषों से स्वयं अपनेको और दूसरोंको आच्छादित करती है उसे स्त्री कहते हैं। (ध. ६/१,६-१, २४/४६/८); ( गो. जी./जो. प्र./२७४/५६६/४) और स्त्री रूप जो वेद है उसे स्त्रीवेद कहते हैं । २. अथवा जो पुरुषकी आकांक्षा करती है उसे स्त्री कहते हैं, जिसका अर्थ पुरुषकी चाह करनेवाली होता है, जो अपनेको स्त्री रूप अनुभव करती है उसे स्त्रीवेद कहते हैं। ३. अथवा वेदन करनेको वेद कहते हैं और स्त्री रूप वेदको स्त्रीवेद कहते हैं।
२. स्त्रीवेदकर्मका लक्षण स.सि./4/8/३८६/२ यदुदयास्त्रैणान्भावान्प्रतिपद्यते स स्त्रीवेदः।
-जिसके उदयसे स्त्री सम्बन्धी भावों को प्राप्त होता वह स्त्री वेद है। (रा. वा./5/8/५७४/२०); (पं.ध./उ./१०८१)। घ, ६/१६-१:२४/४७/१ जेसि कम्मरबंधाणमुद एण पुरुसम्मि आकंवा
उप्पज्जइ तेसिमित्यिवेदो त्ति सण्णा |--जिन कम स्कन्धोंके उदयसे पुरुषमें आकांक्षा उत्पन्न होती है उन कर्मस्कन्धोंकी 'स्त्रीवेद' यह संज्ञा है। (ध. १३/५,५,६६/३६१/६)। * स्त्रीवेदके बन्ध योग्य परिणाम.दे, मोहनीय/३/६।
३. स्त्रीके अनेकों पर्यायवाची शब्दोंके लक्षण भ, आ./म./९७७-१८१/१०४५ पुरिसं वधमुवणे दित्ति होदि बहुँगा णिरुत्तिवादम्मि । दोसे संघादिदि य होदि य इत्थी मणुस्सस्स ।१७७। तारिसओ णत्थि अरी परस्स अण्णेत्ति उच्चदे णारी। पुरिसं सदा पमत्तं कुण दि त्तिय उच्चदे पमदाराह७८ गलए लायदि पुरिसस्स अणत्थं जेण तेण विलया सा। जोजेदि णरं दुक्खेण तेण जुवदी य जोसा
भा०४-५७
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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