Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 455
________________ स्कंध फर्म पं. उ. ४० पौगलिकः पिण्डो बन्दस्तच्या रूप पौगलिक पिंडका अथवा कर्मको शहिका ही नाम द्रव्य बन्ध है |४| २. बन्धका कारण स्निग्ध रूक्षता त. सू./२/१३ स्निग्धः स.सि./५/३३/३०४/८ स्निग्धोरण्योः परस्परश्लेयलक्षणे अन्धे सन्धि भति एवं संख्यासं रूपेयानन्तप्रदेशः स्कन्धो योज्यः । = स्निग्धव और रूहत्व से बन्ध होता है |३३| स्निग्ध और गुणमा दो परमाणुओं का परस्पर संश्लेष लक्षण बन्ध होनेपर द्वणुक नामका स्कन्ध बनता है । इसी प्रकार संख्यात असंख्यात और अनन्त प्रदेश वाले स्कन्ध उत्पन्न होते हैं। (गो.जो. / घ. / ६०१ / १०६४) ३. स्निग्ध व रूक्ष में परस्पर बन्ध होने सम्बन्धी नियम नं. १४/५/२४.३६/२१.१२ यो यति वासना |४| द्विस्स णिवेग दुराहिएण हुक्वस्स बहुत्रखेण दुरा हिरण । णिद्धस्स यो जिसमे समे या ३६॥ स्नग्ध पृहगत स्निग्ध टुगलों के साथ नहीं रूस रूक्ष गलोंके साथ नहीं वैधते किन्तु सरश और विसदृश ऐसे स्निग्ध और रूक्ष पुगल परस्पर बँधते हैं | ३४ | स्निग्ध पुद्गलकह दो गुरु अधिक स्निग्ध हुनसके साथ और दो गुण अधिक रूक्ष पुद्गल के साथ बन्ध होता है। तथा स्निग्ध गलका मलका रूक्ष पुद्गल के साथ जघन्य गुणके सिवा विषम अथवा सम गुग रहनेपर बग्ध होता है | ३६ | (प्र. सा./त.प्र./ १६६ में उद्धृत ) ; (गो, जो../६१०, २०/९०६०) प्र. स. १६६ सिग गुणो चद्गुगनिवेदि या तिगुणि अणुदि पंचो | ९६६॥ स्निग्ध रूपसे दो अंशवाला परमाणु चार अंशवाले स्निग्ध परमाणुके साथ बन्धको अनुभव करता है अथवा रूपरूपसे तीन अंशवाला परमाणु पॉच अंशवाले के साथ युक्त होता हुआ बँधता है । त सू. / ५ / ३४ ३६ न जवन्धगुणानाम् | १४ | गुणसाम्ये सदृशानाम् ॥३५॥ ॥३६॥ गुणवाले पृढगलों का बन्ध नहीं होता | ३ ४ | समान शक्यंश होनेपर तुल्य जातिवालोंका बन्ध नहीं होता । ३५। दो अधिक आदि शक्त्यंशवालोंका तो बन्ध होता है | ३६ | न.च.वृ./१० पारी हे सरिस सिम वा । बज्झदि दोगुणअहिओ परमाणु जहणगुणरहिओ 12 जघन्य गुणसे रहित तथा दो गुण अधिक होनेपर स्निग्धका स्निग्ध के साथ, रूपका रूपके साथ, स्निग्धका रूपके साथ, और रूक्षका स्निग्धके साथ परमाणुओं का बन्ध होता है । ★ स्कन्धों में परमाणुओंका एक देश व सर्वदेश समागम ३ ४. पुद्गल बंध सम्बन्धी नियममें दृष्टि भेद सकेत-सहंश स्निग्ध + स्विग्ध याख् + रूक्ष । विसदृश स्निग्ध+ रूक्ष या रूप + स्निग्ध । S ૪૪૮ दृष्टि नं. १. ( . खं. १२ / मु. व टी./५, ६/सू. ३२-३६ / ३०-३२ ) । दृष्टि नं. २. (स.सि./२/१८/३०४-२००) (रा. वा./२/२४-३६/गो जो../६१२-६१८/१०६०) । Jain Education International नं. १ | समान गुणधारी २ असमान गुणधारी गुणांश ३ जघन्य + जघन्य ४ ५ ६ ७ ८ जघन्य + जघन्येतर जघन्येतर + सम जघन्येतर जघन्येतर + एकाधिक जर जघन्येतर + द्वयधिक जघन्येतर जघन्येतर + व्यापि अधिक जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश जघन्येतर दृष्टि २०१ For Private & Personal Use Only the the to the सदृश बिसदृश सदृश विसदृश नहीं हाँ The theater the नहीं स्तनक दृष्टि नं० २ नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं e and = = = etv काळ = = = ११ है ५. बद्ध परमाणुओंके गुणोंमें परिणमन त. सू. /५/३७ बन्धेऽधिको पारिणामिको च ॥ ३७॥ स.सि./५/३० / २०० / ९९ यया को गुडोऽधिकमधुररसः परीतान रेवादीनां स्वगुणापादनाय परिणामिक तथाऽन्योऽन्यमिव गुणाः अल्पीयसः पारिणामिक इति कृष्णा द्विगुणादिस्निग्धस्तु गंगादिस्मिन्रूतः पारिणामिको भवति ततः पूर्वावस्थाप्रच्यवनपूर्वकं तार्तीयकमवस्थान्तरं प्रादुर्भवतीत्येकत्वमुपपद्यते । इतरथा हि शुक्तन्तु संयोगे परिविति रूपेणे वावतिष्ठेत् । - बन्धके समय दो अधिक गुणवाला परिणमन करानेवाला होता है | ६७| जैसे अधिक मीठे रमवाला गीला गुड़ उसपर पड़ी हुई प्रतिको अपने गुणरूपसे परिणमानेके कारण पारिणामिक होता है उसी प्रकार अधिक गुणवाला अन्य भी अल्प गुणवालेका पारिणामिक होता है। इस व्यवस्थाके अनुसार दो शक्त्यंशवाले स्निग्ध या रूक्ष परमाणुका चार शक्त्यंशवाला स्निग्ध या रूक्ष परमाणु पारिणामिक होता है। इससे पूर्व अवस्थाओंका त्याग होकर उनसे भिन्न एक तीसरी अवस्था उत्पन्न होती है। अतः उनमें एकरूपता आ जाती है अन्यथा सफेद और काले तन्तुके समान संयोग होनेपर भी पारिणामिक न होनेसे सब अलग-अलग ही स्थित रहेगा । गो.जो./मू./११/२००४ जिबीदरगुणा बहिया होणं परिणामयति बंधम्म | संखेज्जा संखेज्जाणं तपसाण खंधाण । संख्यात अस्थात अनम्यप्रदेशमा स्कन्धोंमें स्निग्ध या रूक्षके अधिक गुणवाले परमाणु या स्कन्ध अपनेसे हीन गुणवाले परमाणु या स्कन्धोंको अपने रूप परिणमाते हैं। ( जैसे एक हज़ार स्निग्ध या रूक्ष गुणके अंशोंसे युक्त परमाणु या स्कन्धको एक हजार दो अंशवाला स्निग्ध या रूक्ष परमाणु या स्कन्ध परणमाता है | ) ★ गुणोंका परिणमन स्वजातिको सीमाका लंघन नहीं कर सकता - दे० गुण /२/७१ स्कंधशाली महोरण नामा जातिय व्यन्तरदेवोंका एक भेददे० महोरग । स्तंभन यंत्र यंत्र - स्तंभावष्टंभ - कायोत्सर्गका एक अतिचार-दे० व्युत्सर्ग / १ । नहीं नहीं स्तनक- दूसरे नरकका प्रथम पटल अथवा ( त्रि.सा. की अपेक्षा ) द्वितीय नरकका द्वितीय पटल दे० नरक/५/१९ www.jainelibrary.org

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